(Gail Omvedt: Representative historian of the Bahujan movement)

गेल ओमवेट (1941–2021): अमेरिकी मूल की समाजशास्त्री और लेखिका, जिन्होंने जाति, पितृसत्ता व वर्ग-शोषण के खिलाफ बहुजन दृष्टि से भारत के सामाजिक इतिहास को पुनर्परिभाषित किया।

भारत के आधुनिक बहुजन आंदोलन को समझने और उसे इतिहास के केंद्र में स्थान देने का कार्य किसी भारतीय इतिहासकार ने नहीं, बल्कि अमेरिका में जन्मी एक महिला विदुषी — गेल ओमवेट ने किया। यह विडंबना भी है और सच भी।

आधुनिक बहुजन आंदोलन का तात्पर्य उस लंबी सामाजिक क्रांति से है, जो ज्योतिराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890) से लेकर डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956) के नेतृत्व में चली। इस आंदोलन की अगुवाई शूद्र और अतिशूद्र कही जाने वाली जातियों से आए नायकों ने की, और इसका मूल उद्देश्य था— ब्राह्मणवाद (जो भारत में सामंतवाद का ही रूप है) से मुक्ति। यह वह संघर्ष था जो राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम के समानांतर, लेकिन उससे अलग एक सामाजिक मुक्ति की धारा के रूप में बह रहा था।

दुर्भाग्य से, भारतीय इतिहासकारों — चाहे वे दक्षिणपंथी हों, उदारपंथी राष्ट्रवादी हों, या वामपंथी — ने इस आंदोलन को या तो नजरअंदाज किया, या गलत ढंग से प्रस्तुत किया। सुमित सरकार जैसे प्रतिष्ठित इतिहासकारों की चर्चित पुस्तक ‘आधुनिक भारत (1885–1947)’ में बहुजन आंदोलन की उपेक्षा है। वहीं, वामपंथी धारा में और आगे बढ़कर, अयोध्या सिंह ने अपनी पुस्तक ‘भारत का मुक्तिसंग्राम’ में डॉ. आंबेडकर और दलित आंदोलन पर अपमानजनक टिप्पणियां कीं, यहां तक कि व्यक्तिगत स्तर पर भद्दी गालियां दीं।

कुछ सुधार के संकेत बाद में शेखर बंद्योपाध्याय की ‘पलासी से विभाजन तक – आधुनिक भारत का इतिहास’ में दिखे, जहां बहुजन आंदोलन को थोड़ी जगह मिली, पर वह भी हाशिये की।

यहीं पर गेल ओमवेट का योगदान अद्वितीय है। वे पहली इतिहासकार थीं जिन्होंने अपने शोध और लेखन का केंद्र बहुजन आंदोलन को बनाया। अमेरिका में जन्मीं, कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले से समाजशास्त्र में पीएचडी करने के बाद उन्होंने अपनी पहली किताब ‘Cultural Revolt in a Colonial Society: The Non-Brahman Movement in Western India’ लिखी, जिसमें ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले, शाहूजी महाराज और अन्य नायकों के नेतृत्व में चले पश्चिम भारत के आंदोलन का विस्तृत विवरण था।

फुले–आंबेडकर परंपरा को उन्होंने भारत की क्रांतिकारी परंपरा का हिस्सा मानते हुए, इसे बंगाल के ‘पुनर्जागरण’ जैसे उच्च जाति-नेतृत्व वाले सुधार आंदोलनों से अलग और अधिक व्यापक सामाजिक क्रांति के रूप में स्थापित किया। डॉ. आंबेडकर की उस अंतर्दृष्टि को वे पूरी तरह समझती थीं कि भारतीय समाज में दलित-बहुजन, “गुलामों के गुलाम” रहे हैं — न केवल अंग्रेजों के, बल्कि उच्च जातियों के भी।

भारत आने के बाद उन्होंने महाराष्ट्र के समाजकर्मी भरत पटनकर को जीवनसाथी चुना और स्थायी रूप से यहीं बस गईं। भरत पटनकर ने ज़मीनी आंदोलनों को अपना मुख्य कार्यक्षेत्र बनाया, जबकि गेल ओमवेट ने लेखन और शोध के माध्यम से बहुजन आंदोलन को वैचारिक आधार दिया।

उनकी किताबों ने आधुनिक भारत के इतिहास को समझने का दृष्टिकोण बदला। ‘दलित और प्रजातांत्रिक क्रांति’, ‘आंबेडकर: प्रबुद्ध भारत की ओर’, ‘Understanding Caste: From Buddha to Ambedkar and Beyond’, ‘भारत में बौद्ध धम्म, ब्राह्मणवाद और जातिवाद को चुनौती’, और ‘Seeking Begumpura’ जैसी कृतियां बहुजन चेतना की धरोहर हैं। उनकी कुल लगभग 25 किताबें प्रकाशित हुईं और कई पर वे जीवन के अंतिम समय तक कार्य कर रही थीं।

गेल ओमवेट का नाता केवल अकादमिक दायरे तक सीमित नहीं था। वे बहुजन और श्रमिक आंदोलनों में सक्रिय रहीं, महिलाओं की मुक्ति को उतना ही अहम मानती थीं, विस्थापन और श्रमिक अधिकारों पर संघर्ष करती थीं, और भरत पटनकर के साथ मिलकर श्रमिक मुक्ति दल की स्थापना की।

उनका दृष्टिकोण मार्क्सवादी था, लेकिन वे भारतीय वामपंथियों की तरह जाति के सवाल पर यांत्रिक या यूरोप-केंद्रित सोच में नहीं बंधीं। उन्होंने जाति, वर्ग और पितृसत्ता के जटिल रिश्तों को भारतीय संदर्भ में गहराई से समझा और प्रस्तुत किया।

अकादमिक जगत में वे पुणे विश्वविद्यालय की फुले–आंबेडकर चेयर की प्रमुख रहीं, कोपेनहेगन के इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज़ में प्रोफेसर रहीं, इग्नू में डॉ. आंबेडकर चेयर की अध्यक्ष रहीं और नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम, नई दिल्ली से जुड़ी रहीं।

2 अगस्त 1941 को मिनियापोलिस (अमेरिका) में जन्मी इस विदुषी ने भारत की नागरिकता ग्रहण की और अपना अधिकांश जीवन महाराष्ट्र के सांगली जिले के कासेगांव में बिताया। 25 अगस्त 2021 को 81 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

उनके जाने से भारत के बहुजनों ने अपना प्रतिनिधि इतिहासकार खो दिया — एक ऐसी मेधा जो इतिहास को सत्ता-केन्द्रित नज़र से नहीं, बल्कि हाशिये के लोगों के संघर्षों की रोशनी में देखती थी। गेल ओमवेट की किताबें, लेख और भाषण आज भी इस बात का प्रमाण हैं कि उन्होंने अपना जीवन “सत्य, न्याय और समानता” की खोज में समर्पित किया।

गेल ओमवेट को शत्-शत् नमन। उनकी दृष्टि और संवेदना आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाती रहेगी कि इतिहास केवल विजेताओं का नहीं होता, बल्कि उन अनसुने नायकों का भी होता है जिन्होंने अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया।

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