जब ज़हर बनी दवा: भारत की फार्मेसी छवि पर गहरा धब्बा
भारत लंबे समय से गर्व करता आया है कि वह “विश्व की फार्मेसी” है। सस्ती और प्रभावी दवाएँ उपलब्ध कराने की हमारी क्षमता ने न केवल विकासशील देशों में बल्कि विकसित विश्व में भी भारत को एक भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता बनाया। पर आज वही प्रतिष्ठा बुरी तरह डगमगा गई है — और कारण है खाद्य एवं औषधि प्रशासन की घोर लापरवाही, जिसने एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट को जन्म दिया है।
2022 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भारत को स्पष्ट चेतावनी दी थी — बच्चों की खाँसी की सिरप में इथाइलीन ग्लाइकॉल जैसे जहरीले रासायनिक पदार्थ का प्रयोग हो रहा है। यह वही तत्व है जो इंजिन कूलेंट और औद्योगिक तरल पदार्थों में पाया जाता है। चेतावनी दी गई कि यह पदार्थ शरीर में पहुँचने पर किडनी फेलियर और तंत्रिका तंत्र को स्थायी नुकसान पहुँचा सकता है। लेकिन भारत के नियामक ढाँचे में कोई हलचल नहीं हुई।
परिणाम विनाशकारी रहे। गाम्बिया में दर्जनों बच्चों की मौत हुई, और मध्य प्रदेश जैसे भारतीय राज्यों में भी संदिग्ध दवाओं से नवजातों की मौत की खबरें आईं। जब यह घटनाएँ अंतरराष्ट्रीय मीडिया — बीबीसी, अलजज़ीरा, द गार्डियन — में प्रमुखता से छपीं, तो दुनिया ने भारत की दवा-उद्योग पर भरोसा डगमगाते देखा। संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत की दवा गुणवत्ता नियंत्रण श्रृंखला “व्यवस्थित रूप से कमजोर” है। यह सिर्फ आलोचना नहीं, बल्कि भारत के अरबों डॉलर के दवा निर्यात पर एक गंभीर खतरे की घंटी है।
विफल नियामक तंत्र
भारत का दवा नियमन तंत्र अब लगभग यांत्रिक और अप्रभावी बन चुका है। निरीक्षण अनियमित हैं, परीक्षण प्रयोगशालाएँ कम हैं, और जाँच रिपोर्टों में महीनों लग जाते हैं। कई बार तो वर्षों तक रिपोर्टें फाइलों में धूल खाती रहती हैं।
और सबसे चिंताजनक — बार-बार नियम तोड़ने वाली कंपनियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।
अधिकारियों का तर्क यह होता है कि कार्रवाई करने से दवा की सप्लाई बाधित होगी। यानी बच्चों की मौत से ज़्यादा चिंता उन्हें बाज़ार की निरंतरता की है! यही वह मानसिकता है जिसने नियामक व्यवस्था को खोखला बना दिया है।
और यह भी कम गंभीर नहीं कि जिन अधिकारियों को दवा उद्योग की निगरानी करनी होती है, सेवानिवृत्ति के बाद वही अधिकारी उन्हीं कंपनियों के सलाहकार बन जाते हैं। यह “संघर्ष of interest” नहीं, बल्कि संघर्ष of conscience है।
सरकार की प्रतिक्रिया: इनकार और छवि-संरक्षण
गाम्बिया में हुई मौतों के बाद भारत सरकार की पहली प्रतिक्रिया शर्मनाक थी। WHO की चेतावनियों को भारत की छवि खराब करने की साजिश कहा गया।
अगर सरकार ने ईमानदारी से जाँच कराई होती, तो शायद देश की छवि और भी मजबूत होती — क्योंकि आत्मसमीक्षा किसी राष्ट्र की कमजोरी नहीं, बल्कि परिपक्वता का प्रमाण होती है।
हालाँकि बाद में निर्यात दवाओं के लिए कुछ नए नियम लाए गए, लेकिन घरेलू बाजार के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। इससे साफ़ झलकता है कि सरकार की प्राथमिकता विदेशी उपभोक्ताओं की सुरक्षा है, अपने नागरिकों की नहीं।
और यह सबसे गहरी चोट है — जब देश की जनता अपने ही बच्चों की सुरक्षा को “दूसरी प्राथमिकता” में देखती है।
यह केवल प्रशासनिक नहीं, नैतिक पतन है
दवा उद्योग का उद्देश्य लाभ कमाना हो सकता है, लेकिन राज्य का उद्देश्य केवल एक है — जनजीवन की रक्षा।
जब बच्चों की जान लेने वाली दवाओं के मामलों में भी कोई मंत्री, कोई अधिकारी, कोई नियामक जवाबदेह नहीं ठहराया जाता, तो यह राज्य-नैतिकता के पतन का संकेत है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” निहित है — इसमें स्वस्थ जीवन भी शामिल है। लेकिन जब शासन स्वयं अपने नागरिकों को जहरीली दवा से बचा नहीं पाता, तो यह संवैधानिक और नैतिक दोनों स्तरों पर असफलता है।
अब मौन नहीं, प्रतिरोध आवश्यक
यह संकट केवल “दवा उद्योग” का नहीं है — यह हमारे लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है। जब शासन, नियामक और उद्योग — तीनों एक-दूसरे की जिम्मेदारी टालते हैं, तो जनता को ही जवाबदेही की मांग करनी पड़ती है।
हमें यह प्रश्न उठाना होगा:
- कौन सुनिश्चित करेगा कि हमारे बच्चों को सुरक्षित दवाएँ मिलें?
- क्यों उन कंपनियों पर प्रतिबंध नहीं लगता जिन्होंने WHO की चेतावनियों के बाद भी जहरीली दवाएँ बनाई?
- और क्यों अब तक किसी उच्चाधिकारी से जवाब नहीं माँगा गया?
जब नागरिक चुप रहते हैं, तो सत्ता बेफिक्र हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि समाज मीडिया-निर्मित विभाजनों — जैसे धर्म, जाति या व्यक्तित्व पूजाओं — से ऊपर उठकर, स्वास्थ्य, शिक्षा और जवाबदेही जैसे मूल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करे।
यदि अब भी हम मौन रहे, तो इतिहास यही दर्ज करेगा कि इस देश ने अपने ही बच्चों की मौत पर चुप्पी साध ली — और यह चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध बन गई।

