जातिविहीन नौकरशाह एक मिथक

आज भारतीय नौकरशाही को “इस्पात ढाँचा” कहकर सम्मानित किया जाता है — एक ऐसी संस्था जो राजनीतिक दबावों से ऊपर, निष्पक्ष और संविधाननिष्ठ मानी जाती है।

पर यह धारणा केवल एक राज्य निर्मित मिथक है।

वास्तव में यह “इस्पात ढाँचा” समाज की असमान संरचना का सबसे सुदृढ़ स्तंभ है — जहाँ जाति अब किसी पहचान-पत्र में नहीं, बल्कि संस्थागत व्यवहार, भाषा, और निर्णयों की दिशा में छिपी रहती है।

“जातिविहीनता” का दावा भारतीय नौकरशाही में तटस्थता के आवरण में छिपी जातिगत निरंतरता है।

यह तटस्थता दरअसल उस वर्गीय और ब्राह्मणवादी सोच का पुनर्नामकरण है, जिसने सदियों से ज्ञान और सत्ता पर अपना एकाधिकार बनाए रखा है।

अंबेडकरौ की दूरदृष्टि: लोकतंत्र के भीतर असमानता का खतरा

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक States and Minorities (1947) में चेतावनी दी थी कि

“राजनीतिक लोकतंत्र तभी स्थायी रहेगा जब वह सामाजिक लोकतंत्र की मिट्टी में उगेगा।”

उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यदि प्रशासनिक और आर्थिक संस्थाएँ सामाजिक बराबरी को आत्मसात नहीं करेंगी, तो भारत का लोकतंत्र केवल नाम मात्र का रह जाएगा।

आज वही हो रहा है।

राजनीतिक रूप से भारत लोकतंत्र है, लेकिन प्रशासनिक और संस्थागत रूप से अब भी जाति-संरचित राजतंत्र बना हुआ है।

यह नौकरशाही “निष्पक्ष” तो दिखती है, पर उसके निर्णय, भाषा और नेटवर्किंग में एक अदृश्य जातीय वर्चस्व कायम है।

‘मेरिट’ की आड़ में जारी असमानता

भारतीय प्रशासन में “मेरिट” शब्द एक नैतिक ढाल की तरह इस्तेमाल होता है।

यह कहा जाता है कि नियुक्ति और पदोन्नति केवल योग्यता पर आधारित है।

पर यह “योग्यता” सामाजिक विशेषाधिकारों से पैदा होती है —

अंग्रेज़ी शिक्षा, सांस्कृतिक पूँजी, नेटवर्किंग, और परिवार की पृष्ठभूमि से।

इस ढाँचे में जो समूह ऐतिहासिक रूप से वंचित रहा, वह अब भी “आरक्षण से आया” कहकर हाशिये पर रखा जाता है।

उसे “कमी का प्रतीक” माना जाता है, जबकि ऊँची जातियों के अधिकारी “सिस्टम के स्वाभाविक उत्तराधिकारी” समझे जाते हैं।

इस तरह, जातिवाद अब अपशब्द नहीं, बल्कि संस्कृत मर्यादा का हिस्सा बन चुका है।

इस्पात ढाँचे की असल संरचना

ब्रिटिश राज के समय से ही भारतीय सिविल सर्विस (ICS) को “Steel Frame” कहा गया।

आज वही “IAS” बनकर जारी है, पर मानसिकता वही है —

ऊपर से प्रशासन, नीचे से आज्ञाकारिता।

ब्रिटिश साम्राज्य ने इसे वर्गीय शासन के उपकरण के रूप में बनाया था।

आज यह वही काम लोकतंत्र के भीतर करता है — सत्ता के सामाजिक पुनरुत्पादन का।

फाइलों की भाषा से लेकर रिपोर्टों के प्रारूप तक,

हर जगह एक ऐसी “उच्च वर्गीय संस्कृति” दिखती है जो समाज के निचले तबकों को अदृश्य कर देती है।

नौकरशाही के भीतर यह विश्वास गहराई से बैठा है कि “देश चलाना” एक “संस्कारी वर्ग” का दायित्व है, जनता का नहीं।

जाति अब नीति में नहीं, पर व्यवहार में जीवित है

आज कोई अधिकारी खुले तौर पर जाति की बात नहीं करता।

परन्तु यह दिखता है —

किसे कौन-सी पोस्टिंग मिलती है,

किसकी रिपोर्ट “पॉजिटिव” होती है,

कौन-सा अधिकारी “सिस्टम फ्रेंडली” कहलाता है और कौन “समस्या पैदा करने वाला”।

जाति अब फाइलों में नहीं, बल्कि सिस्टम की स्मृति में है।

यह वह स्मृति है जो तय करती है कि कौन स्वीकृत है, कौन संदेहास्पद।

लोकतंत्र बनाम नौकरशाही की जातीय जड़ें

लोकतंत्र जनता की भागीदारी पर चलता है,

पर नौकरशाही नियंत्रण और आदेश पर।

जब नियंत्रण की यह संस्कृति जातिगत पदानुक्रम से प्रेरित होती है,

तो लोकतंत्र केवल प्रतीक बनकर रह जाता है —

ऊपर “जनता के सेवक” और नीचे “जनता के अनुयायी”।

भारत में प्रशासनिक तंत्र अभी भी “शासक-प्रजा” संबंध की मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है।

फर्क सिर्फ इतना है कि आज “शासक” अब राजनीतिक नहीं, बल्कि संस्थागत जाति-धारी हैं।

सुधार नहीं, पुनर्गठन की आवश्यकता

भारत की नौकरशाही में जातिवाद केवल एक नैतिक या व्यवहारिक समस्या नहीं,

बल्कि संवैधानिक चुनौती है।

क्योंकि यह समानता के उस सिद्धांत का उल्लंघन करती है जिस पर पूरा लोकतंत्र टिका है।

सिर्फ़ reform से काम नहीं चलेगा — ज़रूरत restructuring की है।

ऐसे पुनर्गठन की जिसमें प्रतिनिधित्व, जवाबदेही और संवेदनशीलता को

नौकरशाही के मूल ढाँचे का हिस्सा बनाया जाए।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था —

“अगर समाज में ऊँच-नीच कायम रही, तो राजनीतिक बराबरी एक दिन ढह जाएगी।”

आज यह चेतावनी पहले से ज़्यादा प्रासंगिक है।

“जातिविहीन नौकरशाही” का मिथक तोड़ना अब सिर्फ़ सामाजिक न्याय का प्रश्न नहीं,

बल्कि लोकतंत्र की बचाव रणनीति है।

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