जीने की कला (निबंध) : महादेवी वर्मा

प्रत्येक कार्य के प्रतिपादन और प्रत्येक वस्तु के निर्माण में दो आवश्यक अंग हैं- तदविषयक विज्ञान और उस विज्ञान का क्रियात्मक प्रयोग। बिना एक के दूसरा अंग अपूर्ण ही रहेगा, क्योंकि बिना प्रयोग के ज्ञान प्रमाण हीन है और बिना ज्ञान के प्रयोग आधारहीन। अतः प्रत्येक विज्ञान में क्रियात्मक कला का कुछ अंश अवश्य रहता है और प्रत्येक क्रियात्मक कला भी अपने विज्ञान विशेष की अनुगामिनी बनकर ही सफल होती है। ये दोनों इतने सापेक्ष हैं की एक को जानने के लिए दूसरे को जानना ही पड़ता है।

यदि हम रंग और उनके मिश्रण के विषय में जान लें, तूलिका आदि के विषय में सब कुछ समझ लें, परंतु कभी इस ज्ञान को प्रयोग की कसौटी पर न कसें तो हमारी चित्रकला-विषयक ज्ञान परीक्षा के बिना अपूर्ण ही रह जाएगा। इसी प्रकार यदि हम इस ज्ञान के बिना ही एकाएक रंग भरने का प्रयत्न करने लगें तो हमारा यह प्रयास भी असफल ही कहा जाएगा। चित्रकला की पूर्णता के लिए और सफल चित्रकार बनाने के लिए हमें तत्संबंधी ज्ञातव्य को जानकार प्रयोग में लाना ही होगा। यही अन्य कलाओं के लिए भी सत्य सिद्ध होगा।

यदि हम ध्यान से देखें तो संसार में जीना भी एक ऐसी कला जान पड़ेगा, जिसमें उपर्युक्त दोनों साधनों का ज्ञान जितना आवश्यक है, उतना ही या उससे भी कुछ अधिक आवश्यक उन सिद्धांतों का उचित अवसर पर उपयुक्त प्रयोग भी किया जाना चाहिए। यदि हम ऐसे सिद्धांतों का भार जन्म-भर ढोते रहें, जिनका उपयुक्त प्रयोग हमें ज्ञात न हो, तो हमारी दशा उस पशु से भिन्न न होगी जिसको बिना जाने ही शाष्त्रोन और धर्मग्रंथों का भार वहन करना पड़ता हो। इस प्रकार यदि हम बिना सिद्धान्त समझे उनका अनुपयुक्त प्रयोग करते रहें तो हमारी क्रिया बिना अर्थ समझे मंत्रपाठी शुक की वाणी के समान निरर्थक हो उठेगी।

हमारे संस्कारों में, जीवन के लिए आवश्यक सिद्धान्त ऐसे सूत्र रूप में समझे जाते हैं, जो प्रयोग रूपी टीका के बिना न स्पष्ट हो पाते हैं और न उपयोगी। ‘सत्यं ब्रूयात ‘ को हम सिद्धान्त रूप में जानकार भी न अपना विकास कर सकते हैं और न समाज का उपकार, जब तक अनेक परिस्थितियों, विभिन्न स्थानों और विशेष कालों में उसका प्रयोग कर उसके वास्तविक अर्थ को न समझ लें – उनके यथार्थ रूप को हृदयंगम न कर लें।

एक निर्दोष को बचाने वाला असत्य उसकी हिंसा का कारण बनाने वाले सत्य से श्रेष्ठ ही रहेगा, एक क्रूर स्वामी की अन्यायपूर्ण आज्ञा का पालन करने वाले सेवक से उसका विरोध करने वाला अधिक स्वामीभक्त कहलाएगा और एक दुर्बल पर अन्याय करने वाले अत्याचारी को क्षमा कर देने वाले क्रोधजित से उसे दंड देने वाला क्रोधी संसार का अधिक उपकार कर सकेगा। अन्य सिद्धांतों के लिए भी यही सत्य है और रहेगा।

सिद्धांतों की जितनी भारी गठरी लेकर हम अपने कर्मक्षेत्र के द्वार तक पहुँचते हैं, उतना भारी बोझ लेकर कदाचित ही किसी अन्य देश के व्यक्ति को पहुँचना पड़ता हो, परंतु फिर भी कार्यक्षेत्र में हमीं सबसे अधिक निष्क्रिय प्रमाणित होंगे। कारण, हम अपने सिद्धांतों को उपयोग से बचा-बचाकर उसी प्रकार रखने में उद्देश्य की सिद्धि समझ लेते हैं, जिस प्रकार धन को व्यय से बचाकर रखने वाले कृपण उसके संचय में ही अपने उद्योग की चरम सफलता देख लेते हैं।

परिस्थिति, काल और स्थान के अनुसार उनके प्रयोग तथा रूपों के विषय में जानने का न हमें अवकाश है न इच्छा। फल यह हुआ है की हमारा जीवन अपूर्ण वस्तुओं में सबसे अधिक अपूर्ण होने का दुर्भाग्य मात्र प्राप्त कर सका।

आज तो जीने की कला न जानने का अभिशाप देश व्यापक है, परंतु विशेष रूप से स्त्रियों ने इस अभिशाप के कारण जो कुछ सहा है उसे सहकार जीवित रहने का अभिमान करने वाले विरले ही मिलेंगे। यह सत्य है की हमारे देश में व्यक्ति को इतना महत्व दिया गया था कि कहीं-कहीं हमें उसके विकास के साधन भी एक विचित्र बंधन जैसे लगने लगते हैं। परंतु यह कहना अन्याय होगा की उन प्राचीन युग के निवासियों ने व्यक्तिगत जीवन को दृष्टिबिंदु बनाकर सामूहिक या सामाजिक विकास को एक क्षण के लिए भी दृष्टि से ओझल न होने दिया। उनका जीवन विषयक ज्ञान कितना वैयक्तिक किन्तु व्यापक, स्थिर किंतु प्रत्येक परिस्थिति के अनुकूल और एक किंतु सामूहिक था, इसका प्रमाण हमें उन सिद्धांतों में मिल जाता है, जिनके आकर्षण से हम अपनी अज्ञानावस्था में भी नहीं छूट पाते और इस ज्ञान का उन्होंने कैसा उपयुक्त और प्रगतिशील प्रयोग किया, यह समाज के निर्माण और व्यक्ति के जीवन के पूर्ण विकास को दृष्टि में रखकर खोजे गए समाधानों से स्पष्ट हो जाता है। यदि हम शताब्दियों से सिद्धांतों का निर्जीव भार लिए हुए शिथिल हो रहे हैं इसमें हमारा और हमारी परिस्थितियों का दोष है। यदि हम अपने जीवन को सजीव और सक्रिय बनाना चाहते, अपनी विशेष परिस्थितियों में उनका प्रयोग कर उनकी सामयिक अनुकूलता-प्रतिकूलता, उपयुक्तता-अनुपयुक्तता का निश्चय कर लेते और जीवन के ज्ञान और उसके क्रियात्मक प्रवाह को साथ बहने देते तो अवश्य ही हमारा जीवन उत्कृष्ट कला का निदर्शन होता।

हमने जीवन को उचित कार्य से विरत कर उसी के व्यवस्थापक नियमों को अपने पैर की बेड़ियाँ बनाकर उन्हें भी भारी बना डाला, अतः आज यदि लक्ष्य तक पहुँचने की इच्छा भी भूल गए तो आश्चर्य ही क्यों होना चाहिए!

इस समय भारतीय नारी के पास ऐसा कौन-सा विशिष्ट गुण नहीं है, जिसे पाकर किसी भी देश की मानवी देवी न बन सकती हो। उमसे उस सहनशक्ति की सीमा समाप्त है, जिसके द्वारा मनुष्य घोर से घोर तर अग्निपरीक्षा हँसते-हँसते पार कर सकता है और अपने लक्ष्य के मार्ग में बाधाओं पर बाधाएँ देखकर नहीं सिहरता। उसमें वह त्याग है जो मनुष्य की क्षुद्र-से-क्षुद्र स्वार्थवृत्ति को क्षण में नष्ट कर डालता है और उसे अन्य के कल्याणार्थ अपनी आहुति के लिए प्रस्तुत कर देता है, उसमें मनुष्य को देवता की पंक्ति में बैठा देने वाली वह पवित्रता है जो मरना नहीं जानती तथा उसमें हमारी संस्कृति का वह कोश है जिसकी किसी अन्य के द्वारा रक्षा संभव ही नहीं थी। वह आज भी त्यागमयी माता, पतिव्रता पत्नी, स्नेहमयी बहिन, और आज्ञाकारिणी पुत्री है, जब संसार के जागृत देशों की स्त्रियाँ भौतिक सुखभोग पर अपनी युगजीर्ण संस्कृति न्योछावर किए दे रही हैं। इन्हें त्याग के, बलिदान के और स्नेह के नाम पर सब कुछ आता है , परंतु जीने की वह कला नहीं आती जो इन अलौकिक गुणों को सजीव कर देती है।

जीर्ण से जीर्ण कुटीर में बसने वालों में भी कदाचित ही कोई ऐसा अभागा निर्धन होगा, जिसके उजड़े आँगन में एक भी सहनशीला, त्यागमयी , ममतामयी स्त्री न हो।

स्त्री किस प्रकार अपने हृदय को चूर-चूर कर पत्थर की देव–प्रतिमा बन सकती है, यह देखना हो तो हिन्दू गृहस्थ की दुधमुंही बालिका से शापमयी युवती में परिवर्तित होती हुई विधवा को देखना चाहिए, जो किसी अज्ञात व्यक्ति के लिए अपने हृदय की, हृदय की समान ही प्रिय इच्छाएं कुचल-कुचलकर निर्मूल कर देती है, सतीत्व और संयम के नाम पर अपने शरीर और मन को अमानुषिक यंत्रणाओं के सहने का अभ्यस्त बना लेती है और इस पर भी दूसरों के अमंगल के भय से आँखों में दो बूंद जल भी इच्छानुसार नहीं आने दे सकती।

अर्धांगिनी की विडम्बना का भार लिए, सीता, सावित्री, के अलौकिक तथा पवित्र आदर्श का भार, अपने भेदे हुये जीर्ण-शीर्ण स्त्रीत्व को किसी प्रकार संभालकर क्रीतदासी के समान अपने मध्यप, दुराचारी तथा पशु से भी निकृष्ट स्वामी की परिचर्या में लगी हुई और उसके दुर्व्यवहार को सहकार भी देवताओं से जन्म-जन्मांतर में उसी के संग पाने के वरदान मांगने वाली पत्नी को देखकर कौन आश्चर्याभिभूत न हो उठेगा? पिता के इंगित मात्र से अपने जीवन-प्रभात में देखे रंगीन स्वप्नों को विस्मृति से ढँककर बिना एक दीर्घ निःश्वास लिए अयोग्य-से-अयोग्य पुरुष का अनुगमन करने को प्रस्तुत पुत्री को देखकर किसका हृदय न भर आवेगा? पिता की अट्टालिका और वैभव से वंचित दरिद्र भगिनी को ऐश्वर्य का उपभोग करने वाले भाई की कलाई पर सरल भाव से रक्षाबंधन बांधते देख कौन विश्वास कर सकेगा की ईर्ष्या भी मनुष्य का स्वाभाविक विकार है और अनेक साहसहीन निर्जीव-से पुत्रों द्वारा उपेक्षा और अनादर से आहात हृदय ले, उनके सुख के प्रयत्न में लगी माता को देख कौन ‘कवचित कुमाता न भवति’ कहने वाले को स्त्री-स्वभाव के गंभीर रहस्य का अन्वेषक न मान लेगा? परंतु इतनी अधिक सहनशक्ति, ऐसा अप्रतिम त्याग और ऐसा अलौकिक साहस देखकर भी देखने वाले के हृदय में यह प्रश्न उठे बिना नहीं रह सकता कि क्या वे विभूतियां जीवित हैं? यदि सजीवता न हो, विवेक के चिह्न न हों, तो इन गुणों का मूल्य के क्या है? क्या हमारे कोल्हू में जूता बैल कम सहनशील है? कम यंत्रणाएँ भोगता है? शव हमारे द्वारा किए गए किसी अपमान का प्रतिकार नहीं कर सकता है; सब प्रकार के आघात बिना हिले-डुले सह सकता है, हम चाहे उसे अटल जल में बहाकर मगरमच्छ के उदर में पहुँचा दे, चाहे चीता पर लिटाकर राख करके हवा में उड़ा दें, परंतु उसके मुख से न निःश्वास निकलेगी, न आह, न निरंतर खुली आँखों में जल आवेगा, न अंग कंपित होंगे! परंतु क्या हम उसकी निष्क्रियता की प्रशंसा कर सकेंगे?

आज हिन्दू स्त्री भी शव के समान निस्पंद है। संस्कारों ने उसे पक्षाघात के रोगी के समान जड़ कर दिया है, अतः अपने सुख-दुःख को चेष्टा द्वारा प्रकट करने में भी वह असमर्थ है।

इसके अतिरिक्त, ऐसी सीमातीत सहिष्णुता कि प्रशंसा सुनते –सुनते अब इसे अपने मर्म का आवश्यक अंग समझने लगी है।

जीवन को पूर्ण से पूर्ण रूप तक विकसित कर देने योग्य सिद्धान्त उसके पास है, परंतु न उनका परिस्थिति-विशेष में उपयोग ही वह जानती है और न उनका अर्थ ही समझती है, आता: जीवन और सिद्धान्त दोनों ही भर होकर उसे वैसे ही संज्ञाहीन किए दे रहे हैं, जैसे ग्रीष्म कि कड़ी धूप में शीतकाल के भारी और गरम वस्त्र पहने हुये पथिक को उसका परिधान। जीवन को अपने साँचे में ढलकर सुंदर और सुडौल बनाने वाले सिद्धांतों ने ही अपने विपरीत उपयोग से भार बनकर उसके सुकुमार जीवन को उसी प्रकार कुरूप और वामन कर डाला है जिस प्रकार हाथ का सुंदर कंकण चरण में पहना जाने पर उसकी वृद्धि को रोककर उसे कुरूप बना देता है। हिन्दू-समाज ने अपनी प्राचीन गौरव-गाथा का प्रदर्शन मात्र बनाकर रख छोड़ा है। और वह भी मूक निरीह भाव से उसको वहाँ करती आ रही है। शताब्दियों पर शताब्दियों बीती चली जा रही है, समय की लहरों में परिवर्तन पर परिवर्तन बहते आ रहे हैं, परिस्थितियाँ बदल रही है, परंतु समाज केवल स्त्री को, जिसे उसने अपनी दस्ता के अतिरिक्त और कुछ देना नहीं सीखा, प्रलय कि उथल-पुथल में भी शीला के समान स्थिर देखना चाहता है। अवश्य ही मृत्यु में भी एक सौन्दर्य है, परंतु वह जीवन के रिक्त स्थान को तो नहीं भर सकता।

धन कि प्रभुता या पूंजीवाद जितना गर्हित है उतना ही गर्हित रूप धर्म और अधिकार का हो सकता है, फिर उसके विषय में तो कहना ही व्यर्थ है जिसे धन, धर्म और अधिकार तीनों प्रकार की प्रभुता प्राप्त हो चुकी हो?

समाज में उपार्जन का उत्तरदायित्व मिल जाने से पुरुष को एक प्रकार का पूंजीपतित्व तो प्राप्त हो ही गया था, शक्ति अधिक होने के कारण अधिकार मिलना भी सहज-प्राप्त हो गया। इसके अतिरिक्त शास्त्रों और अन्य सामाजिक नियमों का निर्माता होने के कारण वह अपने आपको अधिक-से-अधिक स्वच्छन्द और स्त्री को कठिन-से-कठिन बंधन में रखने में समर्थ हो सका।

धीरे-धीरे बनते-बनते स्त्री को बाँध रखने का सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक उपकरणों से बना हुआ यंत्र इतना पूर्ण और सफलता-युक्त सक्रिय हो उठा की उसमें ढलकर स्त्री केवल सफल दासी के रूप में ही निकलने लगी। न उसकी मानसिक दासता में कोई अभाव या न्यूनता थी और न शारीरिक दासता में विद्रोह, तो क्या अपनी स्थिति के विषय में प्रश्न करना भी उसके लिए जीवन में यंत्रणा और मृत्यु के उपरांत नरक मिलने का साधन था। आज यंत्रों के युग में भी दासत्व के इस पुराने दृढ़ यंत्र के निर्माण-कौशल पर हमें विस्मित होना पड़ता है, क्योंकि इसमें मूक यंत्रणा सहने वाले व्यक्ति ही सहायता देने वाले के कार्य में बाधा डालता रहता है। मनुष्य को नष्ट न कर उसकी मनुष्यता को इस प्रकार नष्ट कर देना कि वह उस हानि को जीवन का सबसे उज्ज्वल, सबसे बहुमूल्य और सबसे आवश्यक लाभ समझने लगे, असंभव नहीं तो कठिन तम प्रयास-साध्य अवश्य है। प्रत्येक बालिका उत्पन्न होने के साथ ही अपने-आपको ऐसे पराये घर कि वस्तु मानने और बनने लगती है, जिसमें न जाने कि इच्छा करना भी उसके लिए पाप है। विवाह के व्यवसाय में उसकी विद्या पासंग बने हुये ढेले के समान है, जो तुला को दोनों ओर से समान रूप से गुरु कर देता है, कुछ उसके मानसिक विकास के लिए नहीं। उसकी योग्यता, उसकी कला पति के प्रदर्शन और गर्व कि वस्तु है, उसे सत्यं शिवम सुंदरम तक पहुँचने का साधन नहीं; उसके कोमलता, करुणा, आज्ञाकारिता, पवित्रता आदि गुण उसे पुरुष कि इच्छानुकूल बनाने के लिए आवश्यक हैं, संसार पर कल्याण-वर्षा के लिए नहीं। न स्त्री को अपने जीवन का कोई लक्ष्य बनने का अधिकार है और न समाज द्वारा निर्धारित विधान के विरुद्ध कुछ कहने का। उसका जीवन पुरुष के मनोरंजन तथा उसके वंशवृद्धि के लिए इस प्रकार चिरनिवेदित हो चुका है कि उसकी सम्मति पूछने कि आवश्यकता का अनुभव भी किसी ने नहीं किया। वातावरण भी धीरे धीरे उसे ऐसे ही मूक आज्ञा-पालन के लिए प्रस्तुत करता रहता है। गृहिणी का कर्तव्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं यदि वह साधिकार और स्वेच्छा से स्वीकृत हो। जिस घर को बचपन से उसका लक्ष्य बनाया जाता है यदि उस पर उसे अन्न-वस्त्र पाने के अतिरिक्त कोई और अधिकार भी होता, जिस पुरुष के लिए उसका जीवन एकांत रूप से निवेदित है यदि उसके जीवन पर उसका भी कोई स्वत्व होता, तो यह दासता स्पृहणीय प्रभुता बन जाती। परंतु जिस घर गृह के द्वार पर भी वह बिना गृहपति के आज्ञा के पैर नहीं रख सकती, जिस पुरुष के घोर-से-घोर अन्य, नीच-से-नीच आचरण के विरोध में दो शब्द कहना भी उसके लिए अपराध हो जाता हो, उस गृह को बंदीगृह और पुरुष को कारारक्षक के अतिरिक्त वह और क्या समझे!

इसमें संदेह नहीं कि ऐसे परिस्थिति का कुछ उत्तरदायित्व स्त्री पर भी है, क्योंकि उसे जीने की कला नहीं आती, केवल युगयुगान्तर से चले आने वाले सिद्धांतों का भर लेकर वह स्वयं ही अपने लिए भार हो उठी है।

मनुष्यता के ऊपर की स्थिति को अपना लक्ष्य बनाने से प्रायः मनुष्य देवता की पाषाण-प्रतिमा बनकर रह जाता है और इसके विपरीत मनुष्य से नीचे उतरना पशु की श्रेणी में आ जाना है। एक स्थिति मनुष्य से ऊपर होने पर भी निष्क्रिय है, दूसरी इससे नीची होने के कारण मनुष्यता का कलंक है। अतः दोनों ही स्थितियों में मनुष्यता का कलंक और स्त्री अपनी अज्ञानमय निस्पंद सहिष्णुता के कारण पाषाण-सी उपेक्षणीय दोनों के मनुष्यत्व-युक्त मनुष्य हो जाने से ही जीवन की कला का विकास पा सकेगी जिसका ध्येय मनुष्य की सहानुभूति, सक्रियता, स्नेह आदि गुणों को अधिक-से-अधिक व्यापक बना देना है।

जीवन को विकृत न बनाकर उसे सुंदर और उपयोगी रूप देने के इच्छुक को अपने सिद्धांतों से संबंध रखने वाली अंतर्मुखी तथा उन सिद्धांतों के सक्रिय रूप से संबंध रखने वाली बहिर्मुखी शक्तियों को पूर्ण विकास की सुविधाएं देनी ही पड़ेंगी। वही वृक्ष पृथ्वीतल पर बिना अवलंब के अकेला खड़ा रहकर झंझा के प्रहारों को मलय-समीर के झोंकों के समान सहकार भी हरा-भरा फल-फूल से युक्त रह सकेगा, जिसकी मूल-स्थित शक्तियाँ विकसित और सबल हैं और उसकी मूल-स्थिति दृढ़ रह सकती है जो धरातल से बाहर स्वच्छंद वातावरण में सांस लेता है। जब बहिर्मुखी शक्तियाँ भी अंतर्मुखी हो जाती हैं तब बाह्य सक्रियता नष्ट हुये बिना नहीं रहती। आज चाहे हमारी आध्यात्मिकता भीतर-ही-भीतर पाताल तक फैल गई हो, परंतु जीवन का व्यवहारिक रूप विकृत-सा होता जा रहा है। जीवन का चिह्न केवल काल्पनिक स्वर्ग में विचरण नहीं है किन्तु संसार के कंटकाकीर्ण पथ को प्रशस्त बनाना भी है। जब तक बाह्य तथा आंतरिक विकास सापेक्ष नहीं बनते, हम जीना नहीं जान सकते।

(‘शृंखला की कड़ियाँ’ से)

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