टीवी डिबेट में राहुल गांधी को धमकी: लोकतंत्र की सेहत पर गहरी चोट

प्रस्तावना

केरल में एक टीवी चैनल (न्यूज़ 18 केरल) की डिबेट के दौरान बीजेपी प्रवक्ता प्रिंटू महादेव ने विपक्ष के नेता राहुल गांधी को लेकर यह आपत्तिजनक टिप्पणी की कि “उनके सीने में गोली मार दी जाएगी।” यह केवल एक बयान नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के सामने खड़ा गंभीर संकट है। इस बयान की कांग्रेस ने निंदा की और गिरफ्तारी की मांग की, लेकिन अब तक पुलिस-प्रशासन की ओर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि भारतीय राजनीति किस दिशा में जा रही है, और हमारी संवैधानिक संस्थाएँ कितनी सजग हैं।

राजनीतिक हिंसा की भाषा का सामान्यीकरण

भारत में असहमति को विचार और तर्क से निपटाने की परंपरा रही है। लेकिन पिछले दशक में बहस की भाषा बदल चुकी है।

  • राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को अब विरोधी नहीं, बल्कि शत्रु की तरह पेश किया जाता है।
  • डिबेट मंचों पर व्यक्तिगत हमले, धमकियाँ और हिंसा की खुली बातें की जाती हैं।
  • इस तरह की भाषा, लोकतांत्रिक विमर्श को कमजोर करके भीड़तंत्र और अराजकता को बढ़ावा देती है।

यह स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ असहमति रखने वाले को चुप कराने का एकमात्र तरीका हिंसक धमकी रह गया है?

संवैधानिक संस्थाओं की चुप्पी

इस घटना का दूसरा पहलू है संस्थाओं की खामोशी।

  • अगर यही बयान प्रधानमंत्री के खिलाफ होता, तो एफआईआर, गिरफ्तारी और मीडिया ट्रायल सब कुछ तुरंत हो जाता।
  • लेकिन विपक्ष के नेता के खिलाफ खुले मंच पर धमकी दी जाती है और कोई संस्थान सक्रिय नहीं होता।

यह दोहरे मापदंड दिखाते हैं कि सत्ता और विपक्ष के लिए अलग-अलग नियम लागू हो चुके हैं। चुनाव आयोग, न्यायपालिका, और मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं का स्वतः संज्ञान न लेना लोकतंत्र की निष्पक्षता पर गहरी चोट है।

मीडिया की गिरती विश्वसनीयता

टीवी डिबेट अब लोकतांत्रिक विमर्श का मंच न होकर राजनीतिक नाटक बन चुके हैं।

  • एंकरों को चाहिए था कि वे ऐसी टिप्पणी का तुरंत प्रतिवाद करते और प्रवक्ता को बाहर करते।
  • लेकिन सनसनी और टीआरपी के लिए ऐसे बयान जानबूझकर चलने दिए जाते हैं।
  • बाद में चैनल अपनी नैतिक जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं।

यह मीडिया की भूमिका पर बड़ा प्रश्नचिह्न है। पत्रकारिता का काम सत्ता से सवाल करना था, न कि सत्ता की हिंसक भाषा को मंच और माइक देना।

ऐतिहासिक संदर्भ: महात्मा गांधी से लेकर आज तक

भारत का इतिहास यह सिखाता है कि जब हिंसक विचारधारा को सामान्य बना दिया जाता है, तो अंततः वह असली हिंसा में बदल जाती है।

  • महात्मा गांधी की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की कट्टरता नहीं थी, बल्कि उस दौर के ज़हरीले माहौल का नतीजा थी।
  • हिंसक बयानबाजी एक तरह का “अनकहा आदेश” होती है, जिससे समर्थक खुद को हिंसक कार्रवाई के लिए वैध मानने लगते हैं।

आज राहुल गांधी के खिलाफ की गई धमकी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। यह जरूरी नहीं कि सरकार सीधे हिंसा करे, लेकिन कट्टर समर्थकों द्वारा ऐसी कार्रवाई की संभावना को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

गैर-भाजपाई सरकारों की निष्क्रियता

केरल की वामपंथी सरकार की चुप्पी और निष्क्रियता विशेष रूप से चिंताजनक है।

  • यह एक कानून-व्यवस्था का मुद्दा था, जहाँ तुरंत कार्रवाई की अपेक्षा की जाती।
  • लेकिन यहाँ भी राजनीतिक “साठगांठ” या डर साफ झलकता है।

यह सवाल खड़ा होता है कि क्या भारत में विपक्षी राजनीति अब केवल औपचारिक है और वास्तविक सत्ता-संरचना में सभी दल एक-दूसरे की सुविधा के अनुसार व्यवहार कर रहे हैं?

वैश्विक संदर्भ: अमेरिका और यूरोप से सीख

दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों ने हिंसक राजनीति का दंश झेला है।

  • अमेरिका में 2021 के कैपिटल हिल हमले के पीछे भी उकसाने वाली राजनीतिक भाषा थी। डोनाल्ड ट्रंप की बयानबाजी ने समर्थकों को यह विश्वास दिला दिया था कि हिंसा वैध है।
  • यूरोप में भी चरमपंथी विचारधाराओं के कारण नेताओं पर जानलेवा हमले हुए हैं।
  • इन देशों ने इसके बाद अपने राजनीतिक विमर्श और सुरक्षा व्यवस्थाओं में कड़े सुधार किए।

भारत को भी यह समझना होगा कि अगर हिंसक बयानबाजी पर रोक नहीं लगी, तो यह लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर देगी।

लोकतांत्रिक मर्यादाओं के लिए खतरा

यह घटना केवल राहुल गांधी की व्यक्तिगत सुरक्षा का मामला नहीं है।

यह एक बड़े प्रश्न की ओर इशारा करती है:

  • क्या भारत में विपक्ष को सुरक्षित और सम्मानजनक जगह मिल रही है?
  • क्या संविधान और लोकतांत्रिक संस्थाएँ सबके लिए समान रूप से काम कर रही हैं?
  • क्या मीडिया और नागरिक समाज अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं?

अगर इन सवालों के जवाब नकारात्मक हैं, तो यह केवल एक नेता नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र की हार है।

आगे का रास्ता

  1. कानूनी जवाबदेही: हिंसक बयान देने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
  2. मीडिया आचार संहिता: टीवी डिबेट्स के लिए स्पष्ट आचार संहिता लागू की जाए।
  3. राजनीतिक नेतृत्व की जिम्मेदारी: सत्ता पक्ष को यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि हिंसा और धमकी उसकी राजनीति का हिस्सा नहीं है।
  4. नागरिक समाज की जागरूकता: बुद्धिजीवी, सामाजिक संगठन और जनता को मिलकर यह दबाव बनाना होगा कि हिंसा की भाषा स्वीकार्य नहीं है।

निष्कर्ष

केरल की डिबेट में दिया गया हिंसक बयान महज़ एक घटना नहीं है; यह भारतीय लोकतंत्र की सेहत पर गंभीर सवाल उठाता है। जब विपक्ष के सबसे बड़े नेता को खुले मंच पर गोली मारने की धमकी दी जाती है और संस्थाएँ खामोश रहती हैं, तो यह संकेत है कि हमारा लोकतंत्र खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुका है।

आज सवाल केवल राहुल गांधी की सुरक्षा का नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा का है। अगर हिंसा और नफरत की भाषा को सामान्य मान लिया गया, तो कल यह केवल नेताओं तक सीमित नहीं रहेगी—यह समाज के हर असहमत नागरिक तक पहुँच जाएगी। यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा है।

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