न्यायमूर्ति नागरत्ना की चेतावनी: जब अदालतें राजनीति के अखाड़े में बदलने लगती हैं
भारत के लोकतंत्र की सबसे मज़बूत नींवों में से एक है— न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता। यही वह आधारशिला है जिस पर नागरिकों का संविधान में विश्वास टिका हुआ है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने जिस स्पष्टता और निर्भीकता के साथ न्यायपालिका पर बढ़ते राजनीतिक दबाव और प्रभावशाली समूहों के असर की ओर इशारा किया, वह न केवल साहसिक वक्तव्य है, बल्कि एक लोकतांत्रिक चेतावनी भी है।
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने एक सार्वजनिक मंच से कहा कि “निष्पक्षता ही लोकतंत्र की जीवन रेखा है।” यह वाक्य सिर्फ एक विचार नहीं, बल्कि न्यायपालिका के लिए एक नैतिक संहिता की तरह है। उन्होंने इस बात पर चिंता जताई कि जब सरकारी संस्थान बार-बार निरर्थक और आधारहीन मुकदमे दायर करते हैं, तो इससे न केवल सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी होती है, बल्कि अदालतों का मूल्यवान समय भी व्यर्थ जाता है। परिणामस्वरूप, साधारण नागरिक वर्षों तक न्याय के इंतज़ार में रहते हैं। यह टिप्पणी उस प्रशासनिक प्रवृत्ति पर एक करारा प्रहार है, जो न्यायालयों को राजनीतिक युद्धभूमि में बदल देने की दिशा में अग्रसर दिखती है।
एक साहसी न्यायाधीश की दृष्टि और विरासत
न्यायमूर्ति नागरत्ना का अब तक का न्यायिक रिकॉर्ड उनकी सिद्धांतनिष्ठा और साहसिकता का साक्षी है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि वर्ष 2027 में वह भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनने वाली हैं — इसलिए उनका हर निर्णय और मत देश के न्यायिक इतिहास में विशेष महत्व रखता है।
उनके कुछ उल्लेखनीय निर्णय इस प्रकार हैं:
1. न्यायमूर्ति पंचोली की पदोन्नति का विरोध: उन्होंने वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के असंतुलन के आधार पर न्यायिक चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाए। इस मामले में उन्होंने गोपनीय चयन दस्तावेज़ों की जांच की मांग कर न्यायिक पारदर्शिता की वकालत की।
2. नोटबंदी (Demonetisation) पर ऐतिहासिक असहमति: पाँच-सदस्यीय संविधान पीठ में वे एकमात्र असहमति जताने वाली न्यायाधीश थीं। उनका कहना था कि इतनी व्यापक आर्थिक कार्रवाई केवल संसद द्वारा पारित विधेयक से ही हो सकती थी, न कि सरकारी अधिसूचना से। उनका “I had to dissent” वाला वक्तव्य भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मिसाल है।
3. बिलकिस बानो मामला: उन्होंने उस बेंच में रहते हुए, जिसने ग्यारह दोषियों की रिहाई रद्द की, यह स्पष्ट किया कि गुजरात सरकार के पास क्षमादान का संवैधानिक अधिकार नहीं था। यह निर्णय न्याय की स्वायत्तता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
4. खनन और रॉयल्टी विवाद: तकनीकी मामलों में भी उन्होंने तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाया। उनका मत था कि खनिज रॉयल्टी एक प्रकार का कर है, जिसे केंद्र के अधिकार क्षेत्र में होना चाहिए, ताकि राज्य सरकारों की मनमानी नीति पर रोक लग सके।
5. मीडिया स्वतंत्रता और विनियमन: उन्होंने सरकारी नियंत्रण के विरुद्ध सशक्त मत रखा और सुझाव दिया कि मीडिया को स्व-नियमन (Self-Regulation) का अवसर दिया जाए, ताकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सत्ता का मुखपत्र न बने।
न्यायमूर्ति नागरत्ना का हालिया वक्तव्य न केवल सरकार के लिए, बल्कि जनता के लिए भी चेतावनी है। यह हमें याद दिलाता है कि यदि न्यायपालिका को राजनीतिक हथियार में बदला जाने दिया गया, तो न्याय और लोकतंत्र दोनों ही खतरे में पड़ जाएंगे।
उन्होंने अपने वक्तव्यों से यह स्पष्ट संदेश दिया है —
“अदालतें जनता की हैं, सरकार की नहीं।”
उनकी यह चेतना भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है। यदि न्यायपालिका की यह स्वतंत्र चेतना जीवित रही, तभी भारत का लोकतांत्रिक भविष्य सुरक्षित रह सकेगा।
बैंगलोर वेंकटरमैया नागरत्ना (जन्म: 30 अक्टूबर 1962) भारत के सर्वोच्च न्यायालयमें न्यायाधीश हैं। उन्होंने 2008 से 2021 तक कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। उनके पिता, ई एस वेंकटरमैय्या, 1989 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे थे।
2009 में विरोध कर रहे वकीलों के एक समूह द्वारा कर्नाटक उच्च न्यायालय परिसर में जबरन हिरासत में लिए जाने के बाद उन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित किया था। उन्होंने कर्नाटक में वाणिज्यिक और संवैधानिक कानून से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। वह 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बन सकती हैं।
बी॰ वी॰ नागरत्ना ने 1987 में कर्नाटक में वकील के रूप में कार्य शुरू किया। अपने वकालत के समय उन्होंने बैंगलोर में संवैधानिक और वाणिज्यिक कानून का अभ्यास किया। 2008 में कर्नाटक उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में उन्हें नियुक्त किया गया। उन्हें 17 फरवरी 2010 को स्थायी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।
मई 2020 में उनको भारत के सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त किये जाने की बात चली। जिससे कई विश्लेषकों ने ये अनुमान लगाया कि इससे वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने के योग्य हो जाएंगी।
26 अगस्त 2021 को, उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया और 31 अगस्त 2021 को उन्होंने शपथ ली। वह वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में हैं।

