देश में पिछड़ों और अनुसूचितों पर अत्याचार वृद्धि: सत्ताधारी बेपरवाह
एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध अपराधों में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि साल 2013 से 2023 के बीच दलितों के विरुद्ध अपराध के मामलों में 46% की वृद्धि हुई है। आदिवासियों के विरुद्ध अपराधों में यह वृद्धि 91% तक दर्ज की गई है, जबकि पिछड़े वर्गों के विरुद्ध अपराध भी लगभग 30-40% बढ़े हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले एक दशक में देश के सबसे कमजोर और हाशिए के समुदायों के विरुद्ध हिंसा और भेदभाव में चिंताजनक वृद्धि हुई है।
उच्च पदों पर दलितों के साथ भेदभाव और अपमानजनक घटनाएँ बढ़ी हैं। अपराधों की प्रकृति में व्यापक विविधता देखने को मिली है। इसमें हरि ओम वाल्मीकि जैसे एक दलित युवक की सामूहिक पिटाई से हत्या से लेकर, देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी. आर. गवई जैसे उच्च पदस्थ दलित अधिकारी पर जूता फेंकने जैसी घटनाएँ शामिल हैं। इसी तरह, हरियाणा में एक वरिष्ठ दलित आईपीएस अधिकारी द्वारा जातिवादी प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर लेना एक और गंभीर उदाहरण है, जो संस्थागत जातिवाद की गहरी जड़ों को उजागर करता है।
सोशल मीडिया पर जहर फैलाना और अपराधियों का महिमामंडन करना बढ़ा है।
चिंता का एक प्रमुख कारण सोशल मीडिया पर होने वाला विषैला प्रचार है। मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने वाले व्यक्ति को ‘महानायक’ के रूप में प्रस्तुत किया गया और उसके साक्षात्कार प्रसारित किए गए। इसके विपरीत, जस्टिस गवई और डॉ. अंबेडकर जैसे व्यक्तित्वों का अपमानजनक मीम्स बनाकर उपहास उड़ाया गया। अजीत भारती जैसे लोगों द्वारा घृणा फैलाने के बावजूद, उनके विरुद्ध कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, जबकि ऐसे ही मामलों में अन्य समुदायों के लोगों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई देखी गई है। इससे एक खतरनाक संदेश गया है कि दलितों के विरुद्ध अपराध और उनका अपमान बिना किसी परिणाम के किया जा सकता है।
क्या यह संस्थागत व्यवस्था की विफलता और चयनात्मक न्याय नहीं है? ऐसी घटनाओं के बाद प्रशासनिक और न्यायिक प्रणाली की प्रतिक्रिया (या उसकी कमी) गहरी चिंता का विषय है। एक दलित आईपीएस अधिकारी की आत्महत्या या मुख्य न्यायाधीश पर हमले जैसी गंभीर घटनाओं को गंभीरता से नहीं लिया गया। मीडिया द्वारा भी इन मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। इस चयनात्मक न्याय और संवेदनशीलता की कमी ने अपराधियों का मनोबल बढ़ाया है और पीड़ितों में न्याय के प्रति विश्वास को कमजोर किया है।
शिक्षा और रोजगार में पिछड़े वर्गों के अवसर सीमित होना हुये हैं। आरक्षण और समान अवसरों पर चुपचाप हमला हो रहा है। रिपोर्ट्स बताती हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित पदों (एनएफएस) पर भर्ती नहीं की जा रही है। जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में सौ से अधिक ऐसे पद खाली पड़े हैं। साथ ही, सरकारी नौकरियों को आउटसोर्स और ठेके पर दिया जा रहा है, जिससे आरक्षण का उद्देश्य व्यावहारिक रूप से समाप्त हो रहा है। इन सबके कारण इन समुदायों के लिए उन्नति के रास्ते बंद होते जा रहे हैं।
राजनीतिक एजेंडे और सामाजिक एकजुटता का अभाव साफ-साफ दिख रहा है। भाजपा और आरएसएस की एक सोची-समझी रणनीति के तहत संवैधानिक मूल्यों और दलित-पिछड़े अधिकारों को कमजोर किया जा रहा है। ऐसे में, संविधान को बचाने के लिए दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों को एकजुट होकर आवाज उठानी होगी। जो लोग इन खतरों को नहीं पहचानते या विरोध करने में ढिलाई बरतते हैं, वे ऐतिहासिक रूप से दोषी ठहराए जाएंगे। समय आ गया है कि इन मुद्दों पर सड़क से संसद तक मजबूत आंदोलन खड़ा किया जाए।
आँकड़ों की स्थिति
नीचे कुछ ताज़ा और विश्वसनीय आंकड़े प्रस्तुत हैं जो आपकी पोस्ट में उल्लेख किए गए बिंदुओं को पुष्टि करते हैं:
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विषय |
आंकड़ा (समय अवधि) |
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दलितों के विरुद्ध अपराधोंमें वृद्धि |
2013 से 2023 के बीच दलितों के विरुद्ध अपराधों में लगभग 46.11% की वृद्धि हुई है। |
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आदिवासियों के विरुद्धअपराधों में वृद्धि |
2013 से आदिवासियों के विरुद्ध अपराधों में लगभग 48.15% की वृद्धि हुई है। |
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2022 का आँकड़ा — SC अपराधों की संख्या |
2022 में दलितों (Scheduled Castes, SC) के विरुद्ध 57,582 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 की संख्या (50,900) से लगभग 13.1% अधिक है। |
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2023 का आँकड़ा — SC अपराधों की संख्या |
2023 में SC के विरुद्ध मामलों की संख्या 57,789 रही, जो 2022 से थोड़ा बढ़ोतरी है। |
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अपराध दर (crime rate) और राज्यों में असमानता |
SC अपराध दर 2023 में लगभग 28.7 प्रति लाख SC जनसंख्या की रही। कुछ राज्यों में जैसे उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार में मामलों की संख्या और दर विशेष रूप से ज़्यादा है। |
हाल की गंभीर घटनाएँ जो संस्थागत असमानता दिखाती हैं
- हरियाणा में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी Y. Puran Kumar ने आत्महत्या की — उनके सुसाइड नोट में उन्होंने बताया कि उन्हें कई वर्षों से जाति-आधारित भेदभाव, अपमान, मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़ा। अधिकारियों की उच्च स्तर पर शिकायतें की गईं, लेकिन कार्रवाई की कमी की बात सामने आई है।
- यह घटना यह दिखाती है कि उच्च पदों पर बैठे लोग भी सुरक्षित नहीं हैं और यह असमानता कहीं-न-कहीं सिस्टम के अंदर गहरी जमी हुई है।
विश्लेषण: क्यों अपराध और भेदभाव बढ़े हैं
नीचे कुछ मुख्य कारण दिए जा रहे हैं जिससे ये स्थिति उत्पन्न हुई है:
- न्याय प्रणाली में देरी और निष्क्रियता
बहुत से मामलों में पुलिस शिकायत दर्ज तो हो जाती है, लेकिन मुकदमे की कार्रवाई धीमी होती है, अभियुक्तों को सज़ा नहीं मिलती, या न्यायाधिकरणों तक पहुँच मुश्किल होती है। - संवेदनशीलता की कमी और सार्वजनिक अपमान
जातीय भेदभाव की घटनाएँ अक्सर मीडिया, सोशल मीडिया पर घटित होती हैं या दिखायी देती हैं, लेकिन प्रतिक्रिया कम होती है — चाहे वह सरकारी स्तर पर हो या न्यायपालिका या प्रशासन के स्तर पर। - शिक्षा और जागरूकता का अभाव
कई इलाकों में लोगों को अपनी कानूनी अधिकारों की जानकारी नहीं है; SC/ST एक्ट और अन्य कानूनों के प्रावधानों की जानकारी सीमित है। - सामाजिक असमानता और वर्गीय-आर्थिक पिछड़ापन
अवसरों की कमी, गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य संसाधनों की कमी, सामाजिक नेटवर्क और राजनीतिक शक्ति की कमी — ये सभी मिलकर जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। - राजनीतिक/संस्थागत भगदड़
कभी-कभी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी होती है, या जब सत्ता में दलों का इशारा न करे या दबाव न बने तो मामलों को टाल दिया जाता है। - साक्ष्य-संरचना और रिपोर्टिंग की चुनौतियाँ
कई मामलों को दर्ज नहीं किया जाता; पीड़ित न्यायिक प्रक्रियाओं से डरते हैं; पुलिस या स्थानीय प्रशासन दबाव में हो सकते हैं; आंकड़े अधूरे-अधूरे होते हैं।
व्यवहारिक उपाय
नीचे कुछ ठोस और व्यवहारिक उपाय दिए जा रहे हैं, जिन्हें लागू कर इस समस्या को कम किया जा सकता है:
कानूनी और न्यायिक सुधार
- SC/ST एक्ट की कड़ी और विश्वसनीय अनुपालन सुनिश्चित करना
- जितने भी मामलों में SC/ST अधिनियम (PoA Act) लागू हो सकते हैं, उन्हें तुरंत लागू किया जाए; धारा-3(2)(v) जैसे कड़े प्रावधानों का प्रयोग हो।
- FIR दर्ज करने में देरी न हो; प्राथमिकी दर्जीकरण स्वतः सुनिश्चित हो।
- मुकदमों में त्वरित न्याय हो — कानून में सुनिश्चिय समय-सीमा निर्धारित हो।
- विशेष न्यायालयों की स्थापना
- जाति/संवेदनशील मामलों के लिए विशेष न्यायालय।
- ये न्यायालय स्थानीय स्तर पर, उचित संसाधन और ट्रांसपोर्ट, भाषा समर्थन से युक्त हों ताकि पीड़ित आसानी से पहुंच सकें।
- पुलिस सुधार और प्रशिक्षण
- पुलिस में संवेदनशीलता प्रशिक्षण (sensitization training) अनिवार्य हो, खासकर SC/ST मामलों के लिए।
- पुलिस एवं अन्य अधिकारियों पर जवाबदेही सुनिश्चित हो; कोई भी अधिकारी शिकायत दर्ज करने में या कार्रवाई में बाधा डाले तो उन पर कार्रवाई हो।
- पुलिस स्टेशन स्तर तक शिकायत नियंत्रण का उपाय हो; महिला पुलिस अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि को शामिल किया जाए।
- प्रत्येक स्तर पर शिकायत-निवारण तंत्र
- जिला स्तर पर SC/ST आयोगों और मानवाधिकार संगठनों की निगरानी।
- किसी भी तरह के उत्पीड़न, भेदभाव या अपमान की शिकायत को तुरंत सुने जाने और उचित कार्रवाई की जाए।
सामाजिक, शिक्षा और जागरूकता से जुड़े उपाय
- शिक्षा में संवेदनशील पाठ्य-चर्या
- स्कूल और कॉलेज में जाति-विरोधी इतिहास और सामाजिक न्याय से जुड़े विषयों को शामिल किया जाए।
- जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएँ, मानवाधिकार, समानता और सामाजिक सम्मान के विषय पर।
- मीडिया और सोशल मीडिया में जिम्मेदारी
- अपमानजनक और घृणा फैलाने वाले कंटेंट पर तेजी से कार्रवाई हो; सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कंटेंट moderation की व्यवस्था मजबूत हो।
- न्यायालय और सरकार द्वारा सार्वजनिक बयान देने पर जोर हो, जहाँ घटनाएँ सामने आई हों; मीडिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष रिपोर्टिंग पर प्रोत्साहन हो।
- अर्थ-साहायता और आर्थिक न्याय
- आर्थिक अवसरों की सुनिश्चितता: शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशिक्षण, स्वरोज़गार योजनाएँ जो सीधे पिछड़े वर्गों तक पहुँचती हों।
- सरकारी नौकरियों, अनुदानों और सब्सिडी-स्कीमों में पारदर्शिता; आरक्षण प्रावधानों का सही अनुपालन हो; आरक्षित पद खाली न रहने पाएं।
संस्थागत सुधार, निगरानी और पारदर्शिता
- स्वतंत्र निगरानी आयोग और पारदर्शी रिपोर्टिंग
- SC/ST आयोगों, मानवाधिकार आयोगों, सामाजिक न्याय विभागों की भूमिका सशक्त करना।
- राज्य-स्तर और केंद्र-स्तर पर सार्वजनिक रिपोर्ट जारी हों कि कितने मामलों में FIR हुई, कितने मुकदमे चले, कितने दोषी पाए गए, सज़ा हुई या नहीं।
- कार्यस्थल और सरकारी संस्थानों में नीति सुधार
- सरकारी सेवाओं में जाति-आधारित भेदभाव को रोकने के लिए कार्यस्थल पर स्पष्ट नीति हो।
- शिकायत करने वालों के लिए सुरक्षा एवं गोपनीयता हो।
- पुलिस, न्यायपालिका और सरकारी विभागों में जातिगत समग्रता बढ़ाने की कोशिश हो; प्रशिक्षण और परख मिलती हो।
- निरंतर सामाजिक आंदोलन और नागरिक जागरूकता
- गैर-सरकारी संगठन, सामाजिक न्याय के संगठन, छात्रों, युवाओं को इस विषय पर सक्रिय बने रहना चाहिए।
- सार्वजनिक मंचों, प्रेस, लेखों, भाषणों से इन मुद्दों को लगातार उठाया जाए; यह दबाव बनाएगा कि सरकार नज़रअंदाज़ न कर सके।
निष्कर्ष
- एनसीआरबी के ताज़े आँकड़े प्रमाण देते हैं कि जाति-आधारित अपराध और अत्याचारों में भारी वृद्धि हुई है, विशेषकर दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध।
- यह असान्य है कि उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों तक को जातीय उत्पीड़न झेलना पड़े। ये घटनाएँ संस्थागत असमानता की जड़ें खोल कर सामने रखती हैं।
- लेकिन केवल आँकड़े और सवाल नहीं; व्यवहारिक उपाय संभव हैं, यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, न्याय व्यवस्था स्वतंत्र हो, और समाज की जागरूकता गहरी हो।
यदि ये उपाय लागू हों — कड़ी कानूनी कार्रवाई हो, न्याय त्वरित हो, व्यक्तिगत और संस्थागत स्तर पर भेदभाव पर जीरो-टॉलरेंस नीति हो, आर्थिक-शिक्षात्मक अवसर सुनिश्चित हों — तो ये अत्याचार कम हो सकते हैं, और संविधान द्वारा प्रदत्त समान अधिकारों की रक्षा संभव हो सकती है।

