प्यार : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

उसने कहा―”नहीं”
मैंने कहा―”वाह!”
उसने कहा―”वाह”
मैंने कहा―”हूँ-ऊँ”
उसने कहा―”उहुँक”
मैंने हँस दिया,
उसने भी हँस दिया।

अँधेरा था, पर चलचित्रों की भाँति सब दीख पड़ता था। मैं उसीको देख रहा था। जो दीखता था उसे बताना असम्भव है। रक्त की एक एक बूंद नाच रही थी और प्रत्येक क्षण में सौ सौ चक्कर खाती थी। हृदय में पूर्णचन्द्र का ज्वार आ रहा था, वह हिलोरों में डूब रहा था; प्रत्येक क्षण में उसकी प्रत्येक तरंग पत्थर की चट्टान बनती थी, और किसी अज्ञात बल से पानी २ हो जाती थी। आत्मा की तन्त्री के सारे तार मिले धरे थे, उंगली छुआते ही सब झनझना उठते थे। वायुमण्डल विहाग की मस्ती में झूम रहा था। रात का आँचल खिसक कर अस्तव्यस्त हो गया था। पर्वत नंगे खड़े थे और वृक्ष इशारे कर रहे थे। तारिकायें हँस रही थीं। चन्द्रमा बादलों में मुँह छिपा कर कहता था–“भई! हम तो कुछ देखते भालते हैं नहीं।” चमेली के वृक्षों पर चमेली के फूल—अंधेरे में मुँह भींचे गुप-चुप हँस रहे थे। उन्होंने कहा “जरा इधर तो आओ।” मैंने कहा-“अभी ठहरो।” वायु ने कहा “हैं! हैं! यह क्या करते हो?” मैंने कहा-“दूर हो, भीतर किसके हुक्म से घुस आये तुम?” खटसे द्वार बन्द कर लिया। अब कोई न था। मैंने अघा कर साँस ली। वह साँस छाती में छिप रही। छाती फूल गई। हृदय धड़कने लगा। अब क्या होगा? मैंने हिम्मत की। पसीना आ गया था। मैंने उसकी पर्वा न की।

आगे बढ़कर मैंने कहा―”जरा इधर आना।”
उसने कहा-“नहीं,”
मैंने कहा-“वाह!”
उसने कहा-“वाह”
मैंने कहा-“हूं-ऊँ”
उसने कहा- “उहुँक्”
मैंने हँस दिया।
उसने भी हँस दिया।

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