ब्रांड मोदी का निर्माण: एक आलोचनात्मक विश्लेषण
प्रारंभिक प्रतिष्ठा और विवाद का द्वंद्व
फासीवादी नेता के निर्माण का मनोविज्ञान
दुनिया के हर तानाशाह और फासीवादी के पीछे एक विचारधारा और संगठन होता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण होता है एक ऐसा घृणा से भरा चेहरा जो आपको एक समुदाय से डराए, मुद्दों से भटकाए और खुद सत्ता पर काबिज हो जाए। फासीवाद के लिए एक ऐसे ‘मसीहा’ की जरूरत होती है जो जीवन से भी बड़ा हो—एक ‘गैर-जैविक’ व्यक्ति जो जन्मा नहीं, बल्कि भेजा गया है। “शायद ईश्वर ने ही मुझे किसी काम के लिए भेजा है,” “परमात्मा ने मुझे भेजा है,” “यह ऊर्जा जैविक शरीर से नहीं मिली है,” जैसे बयान इसी नैरेटिव को मजबूत करते हैं। ऐसा मसीहा आपको एक ऐसे खतरे से बचाता है जो वास्तव में होता ही नहीं है, जैसे कि भारतीय मुसलमान, जो उतना ही खतरा हैं जितना कि एक “गोभी या संतरा”। यह मसीहा अचानक नहीं आता, उसे सुनियोजित तरीके से बनाया जाता है।
2002 के बाद का दौर: कलंक से लोकप्रियता तक का सफर
कुछ लोग हैरान थे कि इस तरह के कलंक के बाद मोदी एक बड़े राष्ट्रीय नेता कैसे बन गए। लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि मोदी इस कलंक के बावजूद नहीं, बल्कि इसकी वजह से लोकप्रिय हुए। जब मीडिया ने चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें “गुजरात का कसाई” करार दिया, तो देश के कट्टर हिंदूवादी तत्वों ने कहा, “हाँ, तो यही तो हमें चाहिए।”
हालांकि, 2014 से पहले सिर्फ मुस्लिम-विरोधी होना पर्याप्त नहीं था। एक विशाल जनसमर्थन जुटाने के लिए एक और चीज चाहिए थी: एक ध्रुवीकरण करने वाले बाहरी व्यक्ति को बाजार का सर्वश्रेष्ठ नायक बना देना। राजनीति विज्ञान में इसे ‘ब्रांड पॉपुलिज्म’ कहते हैं। यहाँ उपभोक्ता मार्केटिंग की तरकीबों के साथ नफरत का कॉकटेल तैयार किया जाता है।
जब एक नेता खुद ही एक ‘ब्रांड’ बन जाता है, तो नीतियाँ और प्रदर्शन मतदाताओं के लिए गौण हो जाते हैं, जैसे कि जब एक अभिनेता स्टार बन जाता है तो फिल्म की कहानी मायने नहीं रखती, बस उसकी एंट्री और डांस मायने रखता है। यहाँ ‘प्रतिष्ठा की धुलाई’ (Reputation Laundering) का काम होता है। मिथक गढ़ने के जरिए राजनीति एक ऐसी सामग्री बन जाती है जिसे लोग सिर्फ उपभोग करते हैं, उस पर कोई कार्रवाई नहीं कर पाते। मतदाता निर्णयकर्ता नहीं, बल्कि महज दर्शक बनकर रह जाते हैं।
छवि निर्माण अभियान: गुजरात मॉडल और कॉर्पोरेट बैकिंग
यह छवि परिवर्तन ‘वाइब्रेंट गुजरात’ को बढ़ावा देने से शुरू हुआ। हमें बताया गया कि गुजरात देश का सबसे विकसित राज्य है। इस बड़े पैमाने के पीआर अभियान के कारण मोदी पर लगा विदेश यात्रा का प्रतिबंध भी हट गया और तथाकथित ‘गुजरात मॉडल’ को पूरे देश में बेचा गया। संदेश स्पष्ट था: मोदी को एक सुधारवादी, बाजार-समर्थक, निर्णायक शासक के रूप में पेश करो जो सभी समस्याएं हल कर देगा—पेट्रोल सस्ता कर देगा, रुपया मजबूत करेगा, नौकरियां लाएगा।
यह वह दौर था जब कॉर्पोरेट मीडिया में ‘पेड न्यूज’ और भ्रष्ट प्रथाएं आम हो चुकी थीं। वरिष्ठ पत्रकार प्रलय भूषण के अनुसार, एक ही लेख, एक ही फोटो और हेडलाइन के साथ, अलग-अलग लेखकों के नाम से अलग-अलग अखबारों में छपता था। शिकायतों के बावजूद, स्थिति और खराब होने वाली थी।
2014 का चुनाव और ‘नीतिगत पक्षाघात’ का नैरेटिव
कॉर्पोरेट्स का इशारा साफ था: एक तेज दौड़ने वाले घोड़े पर दांव लगाने का वक्त आ गया है। व्हाट्सएप पर ऐसे फॉरवर्ड आने लगे कि “मोदी पहले निर्णय लेते हैं, फिर उसे सही साबित करते हैं।” यह गुण वास्तव में नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन जैसे जल्दबाजी के फैसलों में साफ दिखाई दिया। इन फैसलों से लोगों को भारी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन 2019 में मोदी को और बड़े बहुमत से फिर से जिताया गया। मीडिया ने हर चीज को एक ‘जंग’ के तौर पर पेश किया, और यह संदेश दिया कि एक मजबूत, स्वतंत्र और विकसित देश के लिए थोड़ा बलिदान देना पड़ता है। मोदी को एक ऐसे योद्धा के रूप में चित्रित किया गया जो हमेशा देश के लिए लड़ रहे हैं। युद्धकाल में तो चर्चिल जैसे नेता भी उचित ठहराए जाते हैं।
गुजरात मॉडल: राष्ट्रीय नीति का प्रारूप और एक पंथ का उदय
‘गुजरात मॉडल’ बाद में पूरे देश में लागू किया गया। राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जेफरेलॉट के अनुसार, इसमें शासन प्रणाली और संस्थानों (जैसे पुलिस, नौकरशाही) को कमजोर करके उन पर अपना राजनीतिक नियंत्रण मजबूत करना, और एक व्यक्तित्व पंथ का निर्माण शामिल था। साथ ही, एक ‘क्रोनी इकॉनमी’ (Crony Economy) विकसित की गई, जहाँ चुनिंदा औद्योगिक घरानों (जैसे अडानी, रिलायंस) को लाभ पहुँचाया गया और बदले में उन्होंने सत्ता बनाए रखने में मदद की। इस मॉडल में मोदी को ‘विकास पुरुष’ के रूप में प्रोजेक्ट किया गया, भले ही यह विकास सिर्फ कुछ कॉर्पोरेट्स तक सीमित रहा। गुजरात व्यवसाय करने में आसानी में पहले स्थान पर रहा, लेकिन बच्चों में एनीमिया के मामले में भी वह पहले स्थान पर रहा। अमीर और अमीर बनते गए, और गरीब और गरीब।
मीडिया पर कब्जा: स्वतंत्र आवाजों का सफाया
सबसे बड़ा मीडिया अधिग्रहण 2014 में नेटवर्क 18 का रिलायंस द्वारा किया गया। इसके पीछे रिलायंस के दो मकसद थे: गैस प्राइसिंग जैसे मुद्दों पर अपने खिलाफ होने वाली बुरी प्रेस को रोकना, और अपने 4G लॉन्च के लिए एक विशाल कंटेंट फैक्ट्री बनाना। इस अधिग्रहण ने भारतीय मीडिया में विविधता को गंभीर रूप से प्रभावित किया। पी. साईनाथ जैसे पत्रकारों ने चेतावनी दी थी कि इससे केजी बेसिन गैस डील जैसे मुद्दों पर सच्चाई की रिपोर्टिंग मुश्किल हो जाएगी।
अगला बड़ा झटका 2022 में NDTV का अडानी समूह द्वारा अधिग्रहण था। इसके बाद, वरिष्ठ पत्रकारों के एक समूह ने NDTV छोड़ दिया। इस पूरे प्रक्रिया का मतलब साफ था: मीडिया में बची-खुची स्वतंत्रता और विविधता भी समाप्त हो गई। रवीश कुमार ने कहा कि अडानी कभी भी सरकार पर सवाल नहीं उठाएगा। अब 99.9% भारतीय मीडिया मोदी सरकार की तारीफ करता है।
इस व्यक्तित्व पंथ में मोदी पीड़ित भी हैं और नायक भी। कोई नकारात्मक खबर ‘विदेशी ताकतों’ (जैसे जॉर्ज सोरोस) की साजिश बन जाती है, और कोई सकारात्मक खबर ‘विश्व गुरु’ के नैरेटिव से जुड़ जाती है। यह एक ऐसा जादू है जहाँ मोदी की ‘चित’ (सिर) भी है और ‘पट’ (पांव) भी। जो बचे-खुचे मीडिया हाउस सवाल उठाते भी हैं, उन पर ED/JIT के छापे पड़ते हैं और सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए जाते हैं।
अन्ना आंदोलन: एक ‘फर्जी गांधी’ और सत्ता परिवर्तन का मार्ग
इसी दौर में बाबा रामदेव ने भी काले धन के खिलाफ ‘धर्म युद्ध’ छेड़ा और वही ’15 लाख’ का वादा किया जो बाद में एक ‘जुमला’ साबित हुआ। अन्ना हजारे ने बाद में खुद माना कि 2014 में भाजपा ने उनके आंदोलन का फायदा उठाया और सत्ता में आ गई। जिस कॉर्पोरेट मीडिया ने अन्ना आंदोलन को खड़ा किया था, वह आज न तो अन्ना में दिलचस्पी रखता है, न भ्रष्टाचार विरोध में, न काले धन में और न ही लोकपाल में।
कोविड-19 महामारी: मसीहा की परीक्षा और मीडिया का ध्यान भटकाना
लॉकडाउन के दौरान, जब लोगों को उम्मीद थी कि मोदी कोई राहत की घोषणा करेंगे, उन्होंने ‘सोने की चिड़िया’ और कच्छ के भूकंप की कहानियाँ सुनाईं। इसी दौरान, मीडिया ने तब्लीगी जमात को कोरोना का कारण बताकर एक समुदाय को निशाना बनाया, जबकि वास्तविक प्रबंधन की विफलताओं से ध्यान हटाया।
निष्कर्ष: अनब्रांडिंग और वास्तविक जीवन के गंभीर परिणाम
लेकिन इस प्रचार के वास्तविक जीवन में गंभीर और खतरनाक परिणाम सामने आ रहे हैं। फासीवाद के लिए एक मसीहा बनाना जरूरी होता है, लेकिन उस मसीहा की जरूरत को स्थापित करने के लिए एक ‘विलेन’ भी बनाया जाता है। यही कारण है कि मोदी भक्ति के साथ-साथ, मीडिया चैनलों ने पिछले ग्यारह सालों में लगातार खतरनाक मुस्लिम-विरोधी घृणा भाषण फैलाया है, जिसके कारण भीड़ द्वारा हिंसा (मॉब लिंचिंग) की घटनाएं बढ़ती रही हैं।
अगस्त 2023 में एक आरपीएफ कांस्टेबल द्वारा ट्रेन में तीन मुसलमानों की हत्या और उसके “मोदी-योगी का नाम लेते हुए” वायरल वीडियो इसका ज्वलंत और दुखद उदाहरण है। मसीहा और विलेन भले ही गढ़े हुए हों, लेकिन नफरत की यह राजनीति असली जानें ले रही है। “नफरत फर्क नहीं करती। सबके बच्चों को खा जाती है।” यह प्रक्रिया दर्शाती है कि कैसे एक लोकतंत्र में संस्थानों के क्षरण, मीडिया के कॉर्पोरेटीकरण और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माध्यम से एक शक्तिशाली ब्रांड का निर्माण किया जा सकता है, जिसके सामाजिक परिणाम गहन और दीर्घकालिक हैं।
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