डॉ. बी. आर. आंबेडकर का शिक्षा-दर्शन: सामाजिक न्याय और मानव गरिमा का मार्गदर्शक सिद्धांत
प्रस्तावना: शिक्षा के स्वर में जागरण
डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर का नाम भारतीय इतिहास में एक ऐसे विशाल वटवृक्ष के रूप में अंकित है, जिसकी छाया में समस्त वंचित, शोषित और उत्पीड़ित वर्गों ने गरिमा, अधिकार और न्याय की साँस ली। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक आयाम हैं—वह एक विधिवेत्ता, संविधान निर्माता, अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ थे। किंतु इन सभी भूमिकाओं का मूल आधार था, उनका शिक्षा-प्रति अगाध विश्वास और उसकी क्रांतिकारी व्याख्या। डॉ. आंबेडकर के लिए शिक्षा केवल डिग्री, रोजगार या व्यक्तिगत उन्नति का साधन नहीं थी; वह तो ‘वैचारिक मुक्ति’ का प्राथमिक और सर्वाधिक शक्तिशाली हथियार थी। उन्होंने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन की वह कुंजी घोषित किया, जो ब्राह्मणवादी वर्चस्व की जंजीरों को तोड़कर एक समतामूलक समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकती थी। यह लेख डॉ. आंबेडकर के शिक्षा-संबंधी चिंतन की उसी बहुआयामी यात्रा को समझने का एक प्रयास है।
भाग 1: “शिक्षित बनो” – एक विचारधारा के रूप में
डॉ. आंबेडकर के प्रसिद्ध त्रिसूत्र— “शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो” —में प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान ‘शिक्षा’ ही है। यह कोई साधारण नारा नहीं, बल्कि एक सुविचारित और सशक्त विचारधारा थी।
· चेतना और आत्मज्ञान का आधार: आंबेडकर का मानना था कि बिना शिक्षा के मनुष्य अपने अधिकारों, कर्तव्यों और स्वाभिमान के प्रति सजग नहीं हो सकता। शिक्षा ही वह प्रकाशस्तंभ है जो अंधविश्वास, रूढ़ियों और हीनता की भावना के अंधकार को दूर करती है। एक शिक्षित व्यक्ति ही यह प्रश्न पूछ सकता है कि “मैं क्यों शोषित हूँ?” और “इस स्थिति को बदलने का उपाय क्या है?”
· सामाजिक रूपांतरण का माध्यम: उनके लिए शिक्षा का उद्देश्य केवल साक्षरता नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का निर्माण करना था। एक शिक्षित समाज ही अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठा सकता है और लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभा सकता है।
· व्यावहारिक पहल: उनका चिंतन केवल सैद्धांतिक नहीं था। उन्होंने दलित समुदाय के लिए छात्रावास, पुस्तकालय और छात्रवृत्ति कोष स्थापित करने जैसे ठोस कदम उठाए, ताकि शिक्षा की राह में आने वाली आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को दूर किया जा सके। बहिष्कृत हितकारिणी सभा जैसे संगठनों के माध्यम से उन्होंने शिक्षा को वंचित वर्गों तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया।
“शिक्षा शोषण का सबसे प्रभावी प्रतिरोध है।” — यह कथन उनके शिक्षा-दर्शन का सार प्रस्तुत करता है।
भाग 2: ब्राह्मणवादी वर्चस्व के प्रतिरोध में शिक्षा की भूमिका
भारत की जाति-आधारित सामाजिक संरचना ने सदियों तक ज्ञान को एक विशेष वर्ग तक सीमित रखा, जिससे बहुजन समाज सांस्कृतिक हीनता और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार बना रहा। डॉ. आंबेडकर ने इस षड्यंत्र को पहचाना और शिक्षा को उसका सबसे सशक्त प्रतिकार माना।
· वर्ण व्यवस्था बनाम तार्किक शिक्षा: ब्राह्मणवाद ने शास्त्रों और परंपराओं के माध्यम से ज्ञान को जन्मजात विशेषाधिकार बना दिया था। आंबेडकर ने इसके विपरीत, तर्क, अनुभव और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित शिक्षा पर बल दिया, जो किसी जाति या धर्म का बंदी नहीं थी।
· ‘श्रद्धा’ से ‘प्रश्न’ की ओर: ब्राह्मणवादी व्यवस्था ‘श्रद्धा’ और ‘अंधानुकरण’ को बढ़ावा देती है, जबकि आंबेडकर का शिक्षा-दर्शन ‘प्रश्न’ और ‘विवेक’ को केंद्र में रखता है। एक शिक्षित व्यक्ति धर्म, इतिहास और सामाजिक मानदंडों की समीक्षा करने का साहस जुटा सकता है।
· सांस्कृतिक पुनर्स्वामित्व: शिक्षा के माध्यम से ही वंचित वर्ग अपने इतिहास, संस्कृति और अस्तित्व को पुनर्परिभाषित कर सकते हैं। यह उन्हें हीनता की भावना से मुक्ति दिलाकर आत्मगौरव से भर सकती है।
महाड सत्याग्रह जैसे आंदोलनों में शिक्षा एक केंद्रीय विषय थी, जहाँ उन्होंने न केवल पानी के अधिकार के लिए, बल्कि शिक्षा के अधिकार और सार्वजनिक संस्थानों में सम्मानजनक पहुँच की भी माँग की।
भाग 3: पश्चिमी शिक्षा और भारतीय आत्मचेतना का संतुलन
डॉ. आंबेडकर ने उच्च शिक्षा के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे विश्वस्तरीय संस्थानों का चयन किया। किंतु इसका उद्देश्य महज पश्चिमी ढंग की डिग्री हासिल करना नहीं था।
· तर्कशीलता और वैज्ञानिक सोच का अधिग्रहण: उन्होंने पश्चिमी शिक्षा से तर्क, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक विज्ञानों की गहन समझ हासिल की। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और कानून में उनकी विशेषज्ञता ने उन्हें भारतीय सामाजिक समस्याओं का गहन विश्लेषण करने की क्षमता प्रदान की।
· भारतीय संदर्भ में अनुप्रयोग: उन्होंने पश्चिमी ज्ञान को बिना किसी दासता के, एक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया। उनका संविधान-निर्माण केवल पश्चिमी मॉडलों की नकल नहीं, बल्कि भारत की विविधता, उसकी सामाजिक विषमताओं और न्याय की आकांक्षा को ध्यान में रखकर किया गया एक सृजनात्मक कार्य था।
· बौद्ध दर्शन का समन्वय: उनकी शिक्षा ने उन्हें भारतीय मूल्यों—विशेषकर बुद्ध के करुणा, समानता और विवेक के दर्शन—को आधुनिक संदर्भ में पुनर्जीवित करने की प्रेरणा दी। इस प्रकार, उन्होंने ज्ञान के वैश्वीकरण और सांस्कृतिक आत्मस्वामित्व के बीच एक सुंदर संतुलन स्थापित किया।
भाग 4: नीतिगत निर्माण में शिक्षा की भूमिका
डॉ. आंबेडकर की शिक्षा ने उन्हें न केवल एक विचारक बनाया, बल्कि भारत के भावी ढाँचे का वास्तुकार भी बनाया।
· संविधान निर्माण में विवेक: भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार, राज्य के नीति-निर्देशक तत्व, और सामाजिक न्याय की अवधारणा उनकी गहन शिक्षा और सामाजिक दृष्टि का ही परिणाम हैं। उन्होंने शिक्षा को लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त माना।
· शिक्षित समाज = उत्तरदायी नागरिक: उनका दृढ़ मत था कि एक अशिक्षित समाज न तो अपने अधिकारों का सदुपयोग कर सकता है और न ही सरकार को जवाबदेह ठहरा सकता है। इसीलिए उन्होंने आरक्षण जैसी नीति को केवल एक राहत उपाय नहीं, बल्कि शैक्षिक और राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने का एक साधन देखा।
· तर्क-आधारित नीति निर्माण: उनकी शिक्षा ने उन्हें सिखाया कि नीतियाँ भावना या पूर्वाग्रह पर नहीं, बल्कि तथ्य, आंकड़ों और तार्किक विश्लेषण पर आधारित होनी चाहिए।
भाग 5: वर्तमान संदर्भ में आंबेडकर के शिक्षा-दर्शन की प्रासंगिकता
आज की शिक्षा प्रणाली अनेक चुनौतियों से घिरी हुई है, जिसमें आंबेडकर का दृष्टिकोण और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
· बाजारीकरण का दबाव: शिक्षा एक ‘उत्पाद’ बनती जा रही है, जहाँ सामाजिक चेतना के स्थान पर प्रतिस्पर्धा और रोजगारोन्मुखी दबाव हावी हैं। आंबेडकर की दृष्टि में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘अच्छा इंसान’ और ‘जिम्मेदार नागरिक’ बनाना था, न कि केवल ‘कुशल कर्मचारी’।
· सामाजिक न्याय से दूरी: वंचित वर्गों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की पहुँच आज भी एक बड़ी चुनौती है। आरक्षण जैसे उपाय अक्सर राजनीतिक बहसों में उलझ जाते हैं, जबकि उनका मूल उद्देश्य—सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व—धूमिल हो जाता है।
· आलोचनात्मक सोच का अभाव: वर्तमान शिक्षा प्रणाली अक्सर ‘उत्तर रटने’ को प्रोत्साहित करती है, ‘प्रश्न पूछने’ को नहीं। आंबेडकर के लिए तो शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य ही विवेकशीलता और आलोचनात्मक चिंतन को विकसित करना था।
निष्कर्ष: शिक्षा के दीप से न्याय की ओर
डॉ. बी. आर. आंबेडकर का शिक्षा-दर्शन कोई जड़ सिद्धांत नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति के लिए एक जीवंत रोड मैप है। उन्होंने “शिक्षित बनो” के आह्वान के माध्यम से वंचितों को केवल साक्षर होने का नहीं, बल्कि विचार करने, संदेह करने और न्याय माँगने का साहस दिया। आज, जब शिक्षा नए संकटों और विसंगतियों से घिरी है, आंबेडकर की यह दृष्टि हमें याद दिलाती है कि शिक्षा का अंतिम लक्ष्य केवल डिग्रीधारी व्यक्ति उत्पन्न करना नहीं, बल्कि एक ऐसा विवेकशील, न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज रचना है, जहाँ हर व्यक्ति की गरिमा को मान्यता प्राप्त हो। उनका जीवन और चिंतन हमें सिखाता है कि शिक्षा वह दीपस्तंभ है जो अंधकार में भटके समाज को न्याय के तट तक ले जाता है। यह केवल अतीत का दस्तावेज नहीं, बल्कि भविष्य के भारत के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाश-स्तंभ है।

