बुद्ध से संबंधित लघु कथाएं
मृत्यु के उपरान्त क्या?
एक बार बुद्ध से मलुक्यपुत्र ने पूछा, भगवन आपने आज तक यह नहीं बताया कि मृत्यु के उपरान्त क्या होता है? उसकी बात सुनकर बुद्ध मुस्कुराये, फिर उन्होंने उससे पूछा, पहले मेरी एक बात का जबाव दो । अगर कोई व्यक्ति कहीं जा रहा हो और अचानक कहीं से आकर उसके शरीर में एक विषबुझा बाण घुस जाये तो उसे क्या करना चाहिए ? पहले शरीर में घुसे बाण को हटाना ठीक रहेगा या फिर देखना कि बाण किधर से आया है और किसे लक्ष्य कर मारा गया है !
मलुक्यपुत्र ने कहा, पहले तो शरीर में घुसे बाण को तुरंत निकालना चाहिए, अन्यथा विष पूरे शरीर में फ़ैल जायेगा ।
बुद्ध ने कहा, बिल्कुल ठीक कहा तुमने, अब यह बताओ कि पहले इस जीवन के दुखों के निवारण का उपाय किया जाये या मृत्यु की बाद की बातों के बारे में सोचा जाये ।…मलुक्यपुत्र अब समझ चुका था और उसकी जिज्ञासा शांत हो गई।
बुद्ध ने कहा–सबका हित करो
एक दिन एक व्यक्ति बुद्ध के पास पहुँचा। वह बहुत अधिक तनाव में था। अनेक प्रश्न उसके दिमाग में घूम-घूमकर उसे परेशान कर रहे थे–जैसे आत्मा क्या है? आदमी मृत्यु के बाद कहाँ जाता है? सृष्टि का निर्माता कौन है? स्वर्ग-नरक की अवधारणा कहाँ तक सच है और ईश्वर है या नहीं? उसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे थे।
जब वह बुद्ध के पास पहुँचा तो उसने देखा कि बुद्ध को कई लोग घेरकर बैठे हैं। बुद्ध उन सभी के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान अत्यंत सहज भाव से कर रहे हैं। काफी देर तक यह क्रम चलता रहा, किंतु बुद्ध धर्यपूर्वक हर एक को संतुष्ट करते रहे। बेचारा व्यक्ति वहाँ का हाल देखकर परेशान हो गया।
उसने सोचा कि इन्हें दुनियादारी के मामलों में पड़ने से क्या लाभ? अपना भगवद् भजन करें और बुनियादी समस्याओं से ग्रस्त इन लोगों को भगाएँ, किंतु बुद्ध का व्यवहार देखकर तो ऐसा लग रहा था मानो इन लोगों का दुःख उनका अपना दुःख है।
आखिर उस व्यक्ति ने पूछ ही लिया, “महाराज आपको इन सांसारिक बातों से क्या लेना-देना?”
बुद्ध बोले, “मैं ज्ञानी नहीं हूँ, और इनसान हूँ। वैसे भी वह ज्ञान किस काम का, जो इतना घमंडी और आत्मकेंद्रित हो कि अपने अतिरिक्त दूसरे की चिंता ही न कर सके? ऐसा ज्ञान तो अज्ञान से भी बुरा है।” बुद्ध की बातें सुनकर व्यक्ति की उलझन दूर हो गई। उस दिन से उसकी सोच व आचरण दोनों बदल गए। कथा का सार यह है कि ज्ञान तभी सार्थक होता है, जब वह लोक कल्याण में संलग्न हो।
बुद्ध ने युवक को सत्संग का महत्व समझाया
महात्मा बुद्ध एक गाँव में ठहरे हुए थे। वे प्रतिदिन शाम को वहाँ पर सत्संग करते थे। भक्तों की भीड़ होती थी, क्योंकि उनके प्रवचनों से जीवन को सही दिशा बोध प्राप्त होता था। बुद्ध की वाणी में गजब का जादू था। उनके शब्द श्रोता के दिल में उतर जाते थे।
एक युवक प्रतिदिन बुद्ध का प्रवचन सुनता था। एक दिन जब प्रवचन समाप्त हो गए, तो वह बुद्ध के पास गया और बोला, ‘महाराज! मैं काफी दिनों से आपके प्रवचन सुन रहा हूँ, किंतु यहाँ से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहाँ से सुनकर जाता हूँ। इससे सत्संग के महत्त्व पर शंका भी होने लगती है। बताइए, मैं क्या करूँ?’
बुद्ध ने युवक को बाँस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा। युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा। बुद्ध ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा। युवक प्रतिदिन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद बुद्ध ने उससे पूछा, “इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई फर्क नजर आया? ”
युवक बोला, “एक फर्क जरूर नजर आया है। पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, अब वह साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती है और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।”
तब बुद्ध ने उसे समझाया, “यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे तो कुछ ही दिनों में ये छेद फूलकर बंद हो जाएँगे और टोकरी में पानी भर पाओगे। इसी प्रकार जो निरंतर सत्संग करते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और गुणों का जल भरने लगता है।’”
युवक ने बुद्ध से अपनी समस्या का समाधान पा लिया। निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं, क्योंकि महापुरुषों की पवित्र वाणी उनके मानसिक विकारों को दूर कर उनमें सद्विचारों का आलोक प्रसारित कर देती है।
बुद्ध की शिक्षा से मेहनत सफल हुई
एक आदमी को बुद्ध ने सुझाव दिया कि दूर से पानी लाते हो, क्यों नहीं अपने घर के पास एक कुआँ खोद लेते? हमेशा के लिए पानी की समस्या से छुटकारा मिल जाएगा। सलाह मानकर उस आदमी ने कुआँ खोदना शुरू किया, लेकिन सात-आठ फीट खोदने के बाद उसे पानी तो क्या, गीली मिट्टी का भी चिह्न नहीं मिला। उसने वह जगह छोड़कर दूसरी जगह खुदाई शुरू की, लेकिन दस फीट खोदने के बाद भी उसमें पानी नहीं निकला। उसने फिर तीसरी जगह कुआँ खोदना शुरू किया, लेकिन यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। इस क्रम में उसने आठ-दस फीट के दस कुएँ खोद डाले, लेकिन पानी कहीं नहीं मिला।
वह निराश होकर बुद्ध के पास गया, उसने बुद्ध को बताया कि मैंने दस कुएँ खोद डाले, मगर पानी एक में भी नहीं निकला। बुद्ध को आश्चर्य हुआ। वे स्वयं चलकर उस स्थान पर आए, जहाँ उसने दस गड्ढे खोदे हुए थे। बुद्ध ने उन गड्ढों की गहराई देखी और सारा माजरा समझ गए।
फिर वे बोले, ”दस कुएँ खोदने की बजाय एक कुएँ में ही तुम अपना सारा परिश्रम लगाते तो पानी कब का मिल गया होता। तुम सब गड्ढों को बंद कर दो, केवल एक को गहरा करते जाओ, पानी निकल आएगा। उसने बुद्ध की बात मानकर ऐसा ही किया, परिणामस्वरूप कुआँ पूर्ण होते ही पानी निकल आया। सबने भगवान बुद्ध की जय-जयकार की।
बुद्ध के ज्ञान से सेठ ने पाया सुख
धन्ना सेठ के पास सात पुश्तों के पालन-पोषण जितना धन था। उसका व्यापार चारों तरफ फैला हुआ था, किंतु फिर भी उसका मन अशांत रहता था। कभी धन की सुरक्षा की चिंता, तो कभी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने का तनाव। चिंता और तनाव के कारण वह अस्वस्थ रहने लगा। उसके मित्र ने उसकी गिरती दशा देखी, तो उसे बुद्ध के पास जाने की सलाह दी।
सेठ बुद्ध के पास पहुँचा और अपनी समस्या बताई। बुद्ध ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “तुम घबराओ मत। तुम्हारा कष्ट अवश्य दूर होगा। बस, तुम यहाँ कुछ दिन रहकर ध्यान किया करो।’” बुद्ध के कहे अनुसार सेठ ने रोज ध्यान करना शुरू कर दिया, किंतु सेठ का मन ध्यान में नहीं लगा। वह जैसे ही ध्यान करने बैठता, उसका मन फिर अपनी दुनिया में चला जाता। उसने बुद्ध को यह बात बताई, किंतु बुद्ध ने कोई उपाय नहीं बताया। थोड़ी देर बाद जब सेठ बुद्ध के साथ वन में सायंकालीन भ्रमण कर रहा था, तो उसके पैर में एक काँटा चुभ गया। वह दर्द के मारे कराहने लगा।
बुद्ध ने कहा, “बेहतर होगा कि तुम जी कड़ा कर काँटे को निकाल दो, तब इस दर्द से मुक्ति मिल जाएगी।” सेठ ने मन कड़ा कर काँटा निकाल दिया। उसे चैन मिल गया।
तब बुद्ध ने उसे समझाया, ”ऐसे ही लोभ, मोह, क्रोध, घमंड व द्वेष के काँटे तुम्हारे मन में गड़े हैं। जब तक अपने मन की संकल्प शक्ति से उन्हें नहीं निकालोगे, अशांत ही रहोगे।” सेठ का अज्ञान बुद्ध के इन शब्दों से दूर हो गया और उसने निर्मल हृदय की राह पकड़ ली। अपनी कुप्रवृत्तियों से मुक्ति के लिए संकल्पबद्धता अनिवार्य है। जब तक व्यक्ति दृढ़-निश्चय न कर ले, वह अपनी गलत आदतों से मुक्त नहीं हो सकता।
बुद्ध की शिक्षा से गाँव का उद्धार हुआ
एक युवक ने बुद्ध से आकर कहा, ““मेरा गाँव अशिक्षित है। मैं अपने परिवार से झगड़कर थोड़ा-बहुत पढ़ पाया हूँ। आगे और पढ़ना चाहता हूँ, किंतु सभी रोक रहे हैं। घर के लोग सोचते हैं कि खेती में खूब पैसा है और उसके लिए किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है। यही सोच गाँववालों की भी है। कृपया आप मेरे गाँव चलकर वहाँ शिक्षा का प्रसार करवाइए।”
बुद्ध युवक की बात मानकर गाँव आ गए। धर्म भीरु ग्रामीणों ने बुद्ध का सत्कार किया और रोज उनके प्रवचन सुनने आने लगे। बुद्ध जब भी शिक्षा का महत्त्व बताते, ग्रामीण विरोधी मत रखते। एक दिन एक महिला अपने पाँच साल के बच्चे के लिए पूछने लगी कि उसे किस उम्र से शिक्षा दिलवाएँ? तब बुद्ध ने समझाया कि तुम्हें तो पाँच वर्ष पूर्व उसकी शिक्षा शुरू कर देनी थी। उसे क्या खाना है, कया नहीं, कैसे व क्या बोलना है आदि बातें शुरू से सिखाओगी, तभी तो वह अपना उचित खयाल रख सकेगा। बुद्ध की यह बात महिला सहित सभी ग्रामीणों को समझ में आ गई। उन्होंने अपने बच्चों को विद्यालय भेजना शुरू किया।
यह समय वर्षा का था। युवक ने लोगों को जल संग्रहण की तकनीक बताई। अधिकांश ने उपहास किया, किंतु युवक अपना काम करता रहा। बुद्ध का सहयोग प्राप्त था, इसलिए किसी ने उसका खुलकर विरोध नहीं किया। जब गरमी में भीषण जलसंकट के कारण फसलें सूखने लगीं, तो युवक ने कुएँ खुदवाए, जिनमें जल संग्रहण की तकनीक के कारण खूब पानी निकला। ग्रामीण अब शिक्षा का महत्त्व समझ चुके थे। धीरे-धीरे संपूर्ण गाँव शिक्षित हो गया। ज्ञान हर उम्र में अर्जित किया जा सकता है। यही ज्ञान हमें जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान की राह सुझाता है।
बुद्ध, आम और बच्चे
गौतम बुद्ध किसी उपवन में विश्राम कर रहे थे। तभी बच्चों का एक झुंड आया और पेड़ पर पत्थर मारकर आम गिराने लगा। एक पत्थर बुद्ध के सर पर लगा और उस से खून बहने लगा। बुद्ध की आँखों में आंसू आ गये। बच्चों ने देखा तो भयभीत हो गये। उन्हें लगा कि अब बुद्ध उन्हें भला बुरा कहेंगे। बच्चों ने उनके चरण पकड़ लिए और उनसे क्षमा याचना करने लगे। उनमे से एक बच्चे ने कहा,
‘हमसे बड़ी भूल हो गई है। मेरी वजह से आपको पत्थर लगा और आपके आंसू आ गये।
इस पर बुद्ध ने कहा, ‘बच्चों, मैं इसलिए दुखी हूँ की तुमने आम के पेड़ पर पत्थर मारा तो पेड़ ने बदले में तुम्हे मीठे फल दिए, लेकिन मुझे मारने पर मै तुम्हे सिर्फ भय दे सका।
परिश्रम के साथ धैर्य भी
एक बार भगवानबुद्ध अपने अनुयायियों के साथ किसी गांव में उपदेश देने जा रहे थे। उस गांव सें पूर्व ही मार्ग मे उनलोगों को जगह-जगह बहुत सारे गड्ढे खुदे हुए मिले। बुद्ध के एक शिष्य ने उन गड्ढो को देखकर जिज्ञासा प्रकट की, आखिर इस तरह गढे का खुदे होने का तात्पर्य कया है?
बुद्ध बोले,पानी की तलाश में किसी वयक्ति ने इतनें गड्ढे खोदे है। यदि वह धैर्यपूर्वक एक ही स्थान पर गड्ढा खोदता तो उसे पानी अवश्य मिल जाता।
पर वह थोडी देर गड्ढा खोदता और पानी न मिलने पर दूसरा गड्ढा खोदना शुरू कर देता ।
व्यक्ति को परिश्रम करने के साथ धैर्य भी रखना चाहिए।
अमृत की खेती
एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिऐ एक किसान के यहां पहुंचे । तथागत को भिक्षा के लिये आया देखकर किसान उपेक्षा से बोला श्रमण मैं हल जोतता हूं और तब खाता हूं तुम्हें भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए और तब खाना खाना चाहिऐ
बुद्ध ने कहा महाराज मैं भी खेती ही करता हूं इस पर किसान को जिज्ञासा हुयी बोले गौतम मैं न तुम्हारा हल देखता हूं ना न बैल और नही खेती के स्थल। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती ही करते हैं। आप कृपया अपनी खेती के संबंध में समझाएँ।
बुद्ध ने कहा महाराज मेरे पास श्रद्धा का बीज तपस्या रूपी वर्षा प्रजा रूपी जोत और हल है पापभीरूता का दंड है विचार रूपी रस्सी है स्मृति और जागरूकता रूपी हल की फाल और पेनी है मैं बचन और कर्म में संयत रहता हूं । में अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूं और आनंद की फसल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूं अप्रमाद मेरा बैल हे जो बाधाऐं देखकर भी पीछे मुंह नहीं मोडता है । वह मुझे सीधा शान्ति धाम तक ले जाता है । इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूं।
बलि मश्किलों का हल नहीं।
राजा अजातशत्रु का राज्य बहुत अच्छा चल रहा था, किंतु कहते हैं न कि समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। ऐसा ही अजातशत्रु के साथ हुआ। राजा कई मुश्किलों से घिर गए और उन मुश्किलों से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। उन्होंने कई युक्तियाँ अपनाई, लेकिन असफल रहे। एक दिन उनकी मुलाकात एक तांत्रिक से हुई। राजा ने तांत्रिक को अपनी मुश्किलें बताईं।
तांत्रिक ने राजा की बातों को ध्यान से सुना, फिर उसने एक उपाय बताया। तांत्रिक ने कहा, ‘आपको पशु बलि देनी पड़ेगी, तभी आपकी मुश्किलों का समाधान होगा।’
पहले तो राजा काफी सोच-विचार में पड़ गया, लेकिन उन्हें जब कोई भी रास्ता न दिखा तो उन्होंने तांत्रिक की बात मान ली।
तांत्रिक के कहे एक बड़ा अनुष्ठान किया गया। पशुओं को मैदान में बलि देने के लिए बाँध दिया गया। संयोगवश उस समय महात्मा बुद्ध राजा के नगर में पहुँचे। वे उसी स्थान से गुजर रहे थे, जहाँ पर राजा ने अनुष्ठान कराया था।
महात्मा बुद्ध ने जब देखा कि निर्दोष पशुओं की बलि दी जानेवाली है तो वे राजा के पास गए और बोले, ‘राजन, आप इन निर्दोष पशुओं को क्यों मारने जा रहे हैं?’
राजा बोले, ‘महात्माजी, मैं इन्हें मारने नहीं अपितु राज्य के कल्याण के लिए इनकी बलि देने जा रहा हूँ, जिससे सारे राज्य का कल्याण होगा।’
महात्मा बुद्ध बोले, ‘क्या किसी निर्दोष जीव की बलि देने से किसी का भला भी हो सकता है?’
थोड़ा सा रुककर महात्मा बुद्ध ने जमीन से एक तिनका उठाया और राजा को देते हुए बोले, ‘इसे तोड़कर दिखाएँ।’
राजा ने तिनके के दो टुकड़े कर दिए।
बुद्ध बोले, ‘इसे अब पुनः जोड़ दें।’
राजा बोले, ‘महात्माजी यह आप कैसी बातें कर रहे हैं, इसे तो अब कोई भी नहीं जोड़ सकता।!
तब बुद्ध राजा को समझाते हुए बोले, ‘राजन, जिस प्रकार इस तिनके के टूट जाने के बाद आप इसे नहीं जोड़ सकते, ठीक उसी प्रकार जब आप इन पशुओं की बलि देंगे तो यह निर्दोष जीव आपके कारण मृत्यु को प्राप्त होंगे और इन्हें आप दुबारा जिंदा नहीं कर सकते, बल्कि इनके मरने के बाद आपको जीवहत्या का दोष लगेगा और आपकी मुश्किलें कम होने के बजाय और भी कही अधिक बढ़ जाएँगी, क्योंकि किसी भी निर्दोष जीव को मारकर कोई भी व्यक्ति खुशी नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी समस्या का हल निर्दोष जीवों को मारने से कैसे हो सकता है? आप राजा हैं, आपको सोच-विचारकर निर्णय लेना चाहिए। अगर आप सच में अपनी मुश्किलों का हल चाहते हैं तो दिमाग से काम लीजिए, मुश्किलें तो आती-जाती रहती हैं। यही जिंदगी का सच है। किसी निर्दोष जीव को मारने से समस्याएँ नहीं समाप्त होंगी, बल्कि उसका हल आपको बुद्धि से ही निकालना होगा।’
बुद्ध की बात सुनकर अजातशत्रु उनके चरणों में गिर पड़े और अपनी भूल की क्षमा माँगने लगे। अजातशत्रु ने ऐलान करा दिया कि अब से उनके राज्य में किसी निर्दोष जीव की हत्या नहीं की जाएगी।
मौत की दवा
श्रावस्ती नगरी में कृशागौतमी नाम की एक कन्या रहती थी। गौतमी उसका असली नाम था। काम करते-करते वह जल्दी थक जाती थी, अतएव लोग उसे कृशागौतमी के नाम से पुकारते थे। गौतमी ने जवानी में प्रवेश किया, और उसका विवाह हो गया।
गौतमी गरीब घराने की थी, अतएव उसकी ससुराल के लोग उसका यथोचित आदर न करते थे।
कुछ समय बाद गौतमी के एक पुत्र हुआ। अब घर में उसका आदर होने लगा। लेकिन होनहार कुछ दूसरा ही था। गौतमी का शिशु जब कुछ बड़ा हुआ, और इधर-उधर खेलने लायक हुआ तो विधाता ने उसे उठा लिया।
गौतमी ने सोचा – पुत्र-जन्म से पहले मेरा इस घर में अनादर होता था। पुत्र-जन्म के बाद लोग मेरा आदर करने लगे। लेकिन अब ये लोग मेरे प्रिय शिशु को न जाने कहाँ छोड़ देंगे?
गौतमी अपने मृत पुत्र को गोद में ले उसके लिए घर-घर दवा माँगती फिरने लगी।
लोग ताली बजाकर हँसी-ठट्ठा करते और कहते, “पगली! कहीं मरे हुए की भी दवा होती है।”
किसी भले आदमी को गौतमी पर बहुत दया आयी। उसने सोचा, इसमें इस बेचारी का दोष नहीं। यह पुत्र-शोक से पागल हो गयी है। इसकी दवा बुद्ध भगवान् को छोड़कर और किसी के पास नहीं।
उसने कहा, “माँ! तुम बुद्ध भगवान् के पास जाकर उनसे पूछो।”
गौतमी अपने शिशु को गोद में ले, जहाँ बुद्ध पालथी मारे बैठे थे, पहुँची और अभिवादन करके बोली, “महाराज! मेरे पुत्र को दवा दीजिए।”
तथागत ने कहा, “तूने अच्छा किया जो यहाँ चली आयी। देख, तू इस नगर में से, जिस घर में किसी की मौत न हुई हो, सरसों के दाने माँग ला। फिर मैं तुझे दवा दूँगा।”
भगवान् की बात सुनकर गौतमी बहुत प्रसन्न हुई, और सरसों के दाने लेने के लिए चल दी।
पहले घर में जाकर उसने निवेदन किया, “देखिए, बुद्ध भगवान् ने मुझे आप लोगों के घर से सरसों माँगकर लाने को कहा है, आप लोग सरसों देने की कृपा करें।” गौतमी के ये शब्द सुनकर एक आदमी झट से घर में से सरसों के दाने ले आया और गौतमी को देने लगा।
गौतमी ने पूछा, “पहले यह बताइए कि इस घर में किसी की मौत तो नहीं हुई?”
यह सुनकर घर के लोग आश्चर्य से कहने लगे, “गौतमी!
यह तू क्या कह रही है? यहाँ कितने आदमी मर चुके हैं, इसका कोई हिसाब है?”
गौतमी – “तो मैं आपके घर से सरसों न लूँगी।”
गौतमी दूसरे घर गयी। सब जगह उसे वही जवाब मिला। उसने समझा, शायद सारे नगर में यही बात हो।
उसे एकदम ध्यान आया कि बुद्ध भगवान् ने शायद जान-बूझकर ही मुझे सरसों माँगने के लिए भेजा है।
वह शीघ्र ही अपने मृत पुत्र को नगर के बाहर श्मशान में ले गयी। उसे अपने हाथ में लेकर बोली, “प्रिय पुत्र! मैंने समझा था शायद तुम्हीं अकेले मरने के लिए पैदा हुए हो। लेकिन अब मुझे मालूम हुआ कि मौत सबके लिए है। जो पैदा हुआ है, उसे एक न एक दिन अवश्य मरना है।”
इतना कहकर अपने पुत्र को श्मशान में रख, वहाँ से लौट आयी।
लौटकर गौतमी बुद्ध के पास गयी।
बुद्ध ने पूछा, “गौतमी! सरसों के दाने मिल गये?”
गौतमी, “भगवन्! सरसों नहीं चाहिए। उनका काम हो गया है!”
मौन का महत्व
एक व्यक्ति, कोई जिज्ञासु, एक दिन आया। उसका नाम मौलुंकपुत्र था, एक बड़ा ब्राह्मण विद्वान्; पाँच सौ शिष्यों के साथ बुद्ध के पास आया था। निश्चित ही उसके पास बहुत सारे प्रश्न थे। एक बड़े विद्वान् के पास ढेर सारे प्रश्न होते ही हैं, समस्याएँ ही समस्याएँ। बुद्ध ने उसके चेहरे की तरफ देखा और कहा, ‘मौलुंकपुत्र, एक शर्त है । यदि तुम शर्त पूरी करो, केवल तभी मैं उत्तर दे सकता हूँ। मैं तुम्हारे सिर में भनभनाते प्रश्नों को देख सकता हूँ। एक वर्ष तक प्रतीक्षा करो। ध्यान करो, मौन रहो। जब तुम्हारे भीतर का शोरगुल समाप्त हो जाए, जब तुम्हारी भी की बातचीत रुक जाए, तब तुम कुछ भी पूछना और मैं उत्तर दूँगा। यह मैं वचन देता हूँ।”
मौलुंकपुत्र कुछ चिंतित हुआ-एक वर्ष, केवल मौन रहना, और तब यह व्यक्ति उत्तर देगा। और कौन जाने कि वे उत्तर सही भी हैं या नहीं ? तो हो सकता है एक वर्ष बिलकुल ही बेकार जाए। इसके उत्तर बिलकुल व्यर्थ भी हो सकते हैं। क्या करना चाहिए ? वह दुविधा में पड़ गया। वह थोड़ा झिझक भी रहा था। ऐसी शर्त मानने में; इसमें खतरा था। और तभी बुद्ध का एक दूसरा शिष्य, सारिपुत्र, जोर से हँसने लगा। वह वहीं पास में ही बैठा था–एकदम खिलखिलाकर हँसने लगा। मौलुंकपुत्र और भी परेशान हो गया; उसने कहा, “बात क्या है? तुम क्यों हँस रहे हो ?”
सारिपुत्र ने कहा, ‘“इनकी मत सुनना। ये बहुत धोखेबाज हैं । इन्होंने मुझे भी धोखा दिया । जब मैं आया था। तुम्हारे तो केवल पाँच सौ शिष्य हैं । पेरे पाँच हजार थे । मैं बड़ा ब्राह्मण था, देश भी में मेरी ख्याति थी। इन्होंने मुझे फुसला लिया; इन्होंने कहा, साल भर प्रतीक्षा करो। मौन रहो। ध्यान करो। और फिर पूछना और मैं उत्तर दूँगा। और साल भर बाद कोई प्रश्न ही नहीं बचा। तो मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं और इन्होंने कोई उत्तर दिया ही नहीं । यदि तुम पूछना चाहते हो तो अभी पूछ लो, मैं इसी चक्कर में पड़ गया। मुझे इसी तरह इन्होंने धोखा दिया।”
बुद्ध ने कहा, “मैं अपने बचन पर पक्का रहूँगा। यदि तुम पूछते हो, तो मैं उत्तर दूँगा। यदि तुम पूछो ही नहीं, तो मैं क्या कर सकता हूँ ?”
एक वर्ष बीता, मौलुंकपुत्र ध्यान में उतर गया। और- और मौन होता गया–भीतर की बातचीत समाप्त हो गई। भीतर का कोलाहल रुक गया। वह बिलकुल भूल गया कि कब एक वर्ष बीत गया। कौन फिक्र करता है ? जब प्रश्न ही न रहें, तो कौन उत्तरों की फिक्र करता है ? एक दिन अचानक बुद्ध ने पूछा, “यह वर्ष का अंतिम दिन है। इसी दिन तुम एक वर्ष पहले यहाँ आए थे। और मैंने तुम्हें वचन दिया था कि एक बर्ष बाद तुम जो पूछोगे, मैं उत्तर दूँगा, मैं उत्तर देने को तैयार हूँ। अब तुम प्रश्न पूछो ।”
मौलुंकपुत्र हँसने लगा, और उसने कहा, “आपने मुझे भी धोखा दिया। वह सारिपुत्र ठीक कहता था। अब कोई प्रश्न ही पूछने के लिए नहीं रहा। तो मैं क्या पूछूँ ? मेरे पास पूछने के लिए कुछ भी नहीं है।”
असल में यदि तुम सत्य नहीं हो तो समस्याएँ होती हैं । और प्रश्न होते हैं। वे तुम्हारे झूठ से पैदा होते हैं -तुम्हारे स्वप्न, तुम्हारी नींद से वे पैदा होते हैं। जब तुम सत्य, प्रामाणिक मौन समग्र होता हो–वे तिरोहित हो जाते हैं ।
मेरी समझ ऐसी है कि मन की एक अवस्था है, जहाँ केवल प्रश्न होते हैं; और मन की एक अवस्था है, जहाँ केवल उत्तर होते हैं। और वे कभी साथ- साथ नहीं होते । यदि तुम अभी भी पूछ रहे हो, तो तुम उत्तर नहीं ग्रहण कर सकते। मैं उत्तर दे सकता हूँ लेकिन तुम उसे ले नहीं सकते । यदि तुम्हारे भीतर प्रश्न उठने बंद हो गए हैं, तो मुझे उत्तर देने की कोई जरूरत नहीं है : तुम्हें उत्तर मिल जाता है। किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है । मन की एक ऐसी अवस्था उपलब्ध करनी होती है जहाँ कोई प्रश्न नहीं उठते। मन की प्रश्नरहित अवस्था ही एकमात्र उत्तर है।
यही तो ध्यान की पूरी प्रक्रिया है : प्रश्नों को गिरा देना, भीतर चलती बातचीत को गिरा देना। जब भीतर की बातचीत रुक जाती है, तो ऐसा असीम मौन छा जाता है। उस मौन में हर चीज का उत्तर मिल जाता है । हर चीज सुलझ जाती है–शाब्दिक रूप से नहीं, अस्तित्वगत रूप में सुलझ जाती है। कहीं कोई समस्या नहीं रह जाती है।
गाँठ
एक दिन बुद्ध प्रातः भिक्षुओं की सभा में पधारे। सभा में प्रतीक्षारत उनके शिष्य यह देख चकित हुए कि बुद्ध पहली बार अपने हाथ में कुछ लेकर आये थे। उनके हाथ में एक रूमाल था। बुद्ध के हाथ में रूमाल देखकर सभी समझ गए कि इसका कुछ विशेष प्रयोजन होगा।
बुद्ध अपने आसन पर विराजे। उन्होंने किसी से कुछ न कहा और रूमाल में कुछ दूरी पर पांच गांठें लगा दीं।
सब उपस्थित यह देख मन में सोच रहे थे कि अब बुद्ध क्या करेंगे, क्या कहेंगे। बुद्ध ने उनसे पूछा, “कोई मुझे यह बता सकता है कि क्या यह वही रूमाल है जो गांठें लगने के पहले था?”
शारिपुत्र ने कहा, “इसका उत्तर देना कुछ कठिन है। एक तरह से देखें तो रूमाल वही है क्योंकि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। दूसरी दृष्टि से देखें तो पहले इसमें पांच गांठ नहीं लगीं थीं अतः यह रूमाल पहले जैसा नहीं रहा। और जहाँ तक इसकी मूल प्रकृति का प्रश्न है, वह अपरिवर्तित है। इस रूमाल का केवल बाह्य रूप ही बदला है, इसका पदार्थ और इसकी मात्रा वही है।”
“तुम सही कहते हो, शारिपुत्र”, बुद्ध ने कहा, “अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ”, यह कहकर बुद्ध रूमाल के दोनों सिरों को एक दूसरे से दूर खींचने लगे। “तुम्हें क्या लगता है, शारिपुत्र, इस प्रकार खींचने पर क्या मैं इन गांठों को खोल पाऊंगा?”
“नहीं, तथागत। इस प्रकार तो आप इन गांठों को और अधिक सघन और सूक्ष्म बना देंगे और ये कभी नहीं खुलेंगीं”, शारिपुत्र ने कहा।
“ठीक है”, बुद्ध बोले, “अब तुम मेरे अंतिम प्रश्न का उत्तर दो कि इन गांठों को खोलने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?”
शारिपुत्र ने कहा, “तथागत, इसके लिए मुझे सर्वप्रथम निकटता से यह देखना होगा कि ये गांठें कैसे लगाई गयीं हैं। इसका ज्ञान किये बिना मैं इन्हें खोलने का उपाय नहीं बता सकता”।
“तुम सत्य कहते हो, शारिपुत्र। तुम धन्य हो, क्योंकि यही जानना सबसे आवश्यक है। आधारभूत प्रश्न यही है। जिस समस्या में तुम पड़े हो उससे बाहर निकलने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि तुम उससे ग्रस्त क्योंकर हुए। यदि तुम यह बुनियादी व मौलिक परीक्षण नहीं करोगे तो संकट अधिक ही गहराएगा”।
“लेकिन विश्व में सभी ऐसा ही कर रहे हैं। वे पूछते हैं, “हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, परिग्रह, आदि-आदि वृत्तियों से बाहर कैसे निकलें”, लेकिन वे यह नहीं पूछते कि “हम इन वृत्तियों में कैसे पड़े?”
सबसे बड़ा दान
कई दिनों के विहार के बाद भगवान् बुद्ध मगध की राजधानी राजगृह से प्रस्थान करने वाले थे। लोगों को जब यह पता चला तो वे उनके लिए भेंट आदि लेकर उनके दर्शनों के लिए आने लगे। अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए बुद्ध लोगों की भेंट स्वीकार कर रहे थे। सम्राट बिम्बसार ने उन्हें भूमि, खाद्य, वस्त्र, वाहन आदि प्रदान किए। नगर सेठों ने भी धन-धान्य और सुवर्ण आभूषण उनके चरणों में अर्पित कर दिए। सभी के दान को स्वीकार करने के लिए बुद्ध अपना दायां हाथ उठा कर स्वीकृति इंगित कर देते थे।
भीड़ में एक वृद्धा भी थी। वह बुद्ध से बोली – “भगवन, मैं बहुत निर्धन हूँ। मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है। आज मुझे पेड़ से एक आम गिरा हुआ मिल गया। मैं उसे खा रही थी तभी मैंने आपके प्रस्थान करने का समाचार सुना। उस समय तक मैं आधा आम खा चुकी थी। मैं भी आपको कुछ अर्पित करना चाहती हूँ लेकिन मेरे पास इस आधे खाए हुए आम के सिवा कुछ भी नहीं है। इसे ही मैं आपको भेंट करना चाहती हूँ। कृपया मेरी भेंट स्वीकार करें।”
वहां उपस्थित अपार जनसमुदाय, राजा-महाराजाओं और सेठों ने देखा कि भगवान बुद्ध अपने आसन से उठकर नीचे आए और उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर वृद्धा का आधा आम स्वीकार किया।
सम्राट बिम्बसार ने चकित होकर बुद्ध से पूछा – “भगवन, एक से बढ़कर एक अनुपम और बहुमूल्य उपहार तो आपने केवल हाथ हिलाकर ही स्वीकार कर लिए लेकिन इस बुढ़िया के जूठे आम को लेने के लिए आप आसन से नीचे उतरकर आ गए! इसमें ऐसी कौन सी विशेषता है?”
बुद्ध मुस्कुराकर बोले – “इस वृद्धा ने मुझे अपनी समस्त पूँजी दे दी है। आप लोगों ने मुझे जो कुछ भी दिया है वह तो आपकी संपत्ति का कुछ अंश ही है और उसके बदले में आपने दान करने का अंहकार भी अपने मन में रखा है। इस वृद्धा ने मेरे प्रति अपार प्रेम और श्रद्धा रखते हुए मुझे सर्वस्व अर्पित कर दिया है फ़िर भी उसके मुख पर कितनी नम्रता और करुणा है।”

