भारतीय लोकतंत्र: सत्ता, संस्थानों और सामाजिक असंतोष के बीच तनाव

वर्तमान भारत में एक गहन प्रश्न यह उभर रहा है कि क्या राजनीतिक सत्ता की ताकत लोकतंत्र पर भारी पड़ रही है, या फिर लोकतंत्र संवैधानिक संस्थानों के तले दबता जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रम एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गए हैं जहाँ राजनीतिक दलों की महत्ता वर्तमान सत्ता के सामने कमजोर साबित हो रही है। साथ ही, देश के भीतर सामाजिक संघर्ष की स्थितियाँ भी पनप रही हैं।

मुद्दों का अंबार और सत्ता का सामर्थ्य

भारत में सैकड़ों मुद्दे मौजूद हैं। अतीत की राजनीति को परखें तो प्रत्येक मुद्दा सत्ता को डिगाने के लिए पर्याप्त हो सकता है। लेकिन वर्तमान सत्ता का सामर्थ्य इतना बढ़ गया प्रतीत होता है कि संविधान, लोकतंत्र, न्यायपालिका और मीडिया जैसे मूलभूत आधार स्वयं ही विवाद के केंद्र बन गए हैं। पिछले तीन वर्षों से, विशेष रूप से राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद, हाशिए के समुदाय—दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्ग—के मुद्दों को मुख्यधारा में उभारा गया है। इन प्रयासों ने इस आशंका को बल दिया है कि सत्ता के आगे संविधान कमजोर पड़ रहा है।

आर्थिक संकट और युवाओं में असंतोष

इस पृष्ठभूमि में आर्थिक हालात डगमगाए हैं, जिससे बेरोजगारी में भारी वृद्धि हुई है। देश के युवाओं के सामने कोई स्पष्ट लक्ष्य या भविष्य दृष्टि न तो सत्ता द्वारा पेश की गई है और न ही किसी राजनीतिक विचारधारा द्वारा। ऐसे में, छात्रों और युवाओं का आक्रोश स्वाभाविक है। प्रश्न यह है कि क्या लोकतंत्र की रक्षा करते हुए देश को आगे बढ़ाने का मॉडल विफल हो चुका है?

पड़ोस से उठती लहर और ‘जंजी’ का डर

यह प्रश्न इसलिए और प्रासंगिक हो गया है क्योंकि पड़ोसी देश नेपाल में हुए हालिया राजनीतिक परिवर्तन में ‘जंजी’ (युवा) की भूमिका प्रमुख रही, जिसमें हिंसक घटनाएँ भी शामिल थीं। इसने भारत में भी एक नई बहस छेड़ दी है। हालाँकि, भारत का लोकतांत्रिक इतिहास और संघर्ष हिंसा को कभी स्वीकार नहीं करता रहा है। महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से लेकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन (1974) तक, परिवर्तन का मार्ग अहिंसक रहा है, भले ही सत्ता ने हिंसक दमन किया हो।

व्यवस्थागत समस्याएँ और युवाओं का गुस्सा

वर्तमान युवा पीढ़ी (जन्म 1997-2010 के बीच) के सामने मूलभूत सवाल हैं: बेरोजगारी क्यों है? परीक्षा पेपर लीक क्यों होते हैं? विनिर्माण क्षेत्र मंदा क्यों है? शिक्षा और आर्थिक नीतियाँ कॉर्पोरेट-केंद्रित क्यों प्रतीत होती हैं? नौकरियों से लेकर विश्वविद्यालयों में पदों तक, सब कुछ एक ‘बिजनेस’ में तब्दील हो गया लगता है। यह गुस्सा देश के विभिन्न हिस्सों—लेह (लद्दाख) में राज्य के दर्जे की मांग से लेकर उत्तराखंड में भर्ती घोटालों के विरोध तक—में साफ देखा जा सकता है। युवा ‘पेपर चोर, गद्दी छोड़’ जैसे नारे लगा रहे हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष के ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ के नारे से मेल खाते हैं।

सत्ता की संरचना और हाशिए का समाज

मूल समस्या यह है कि देश को चलाने वाले तंत्र—कॉर्पोरेट, नौकरशाही, न्यायपालिका, मीडिया—पर एक विशिष्ट सत्ताधारी वर्ग का वर्चस्व है। समाज का बहुसंख्यक हिस्सा (लगभग 90%) स्वयं को हाशिए पर पाता है, जिसकी भागीदारी इन संस्थानों में नगण्य है। संविधान प्रदत्त अधिकार दिलाने में सत्ता की अक्षमता ने इस खाई को और गहरा किया है।

चुनावी जनादेश बनाम जमीनी हकीकत

लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रोटोकॉल चुनाव है, जो जनादेश तय करता है। लेकिन जब लगातार कई चुनावों में मुद्दों के बावजूद सत्ता में परिवर्तन नहीं होता, तो यह सवाल खड़ा होता है कि क्या चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी और निष्पक्ष है? बेरोजगारी, नोटबंदी के बाद की मंदी, जीएसटी के प्रभाव, कोविड काल में एमएसएमई का पतन जैसे मुद्दे चुनावी नतीजों में परिलक्षित नहीं होते। इससे लोकतंत्र के प्रति विश्वास डगमगाता है।

निष्कर्ष: एक अनिश्चित भविष्य की ओर

इस प्रकार, भारत एक ऐसे जटिल दौर से गुजर रहा है जहाँ सामाजिक संघर्ष, युवाओं की हताशा, संस्थानों का कमजोर होना और राजनीतिक सत्ता का दबदबा एक साथ मौजूद है। पड़ोसी देशों की घटनाएँ एक चेतावनी के रूप में काम कर रही हैं। सवाल यह है कि क्या यह सब एक बड़े राजनीतिक परिवर्तन का संकेत है, या फिर यह सिर्फ एक अस्थायी असंतोष है? अंततः, भारत को एक ऐसे राजनेता की तलाश है जो देश के लिए एक स्पष्ट और समावेशी दृष्टि पेश कर सके, न कि सिर्फ संकट के समय में हाशिए के समुदायों को उभारकर फिर से उन्हीं राजनीतिक समीकरणों में साधने का प्रयास करे। भारत का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि यह लोकतांत्रिक मार्ग से इन चुनौतियों का समाधान ढूँढ पाता है या नहीं।

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