मेक इन इंडिया: वादे और हक़ीक़त

2014 में लालकिले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब “मेक इन इंडिया” का नारा दिया, तो देशभर में उत्साह की लहर दौड़ गई। करोड़ों युवाओं ने सोचा कि अब भारत भी चीन की तरह “विश्व की फैक्ट्री” बनेगा। सरकार ने वादा किया कि विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) जीडीपी का 25% होगा, करोड़ों नौकरियाँ पैदा होंगी और भारत आत्मनिर्भरता की दिशा में छलांग लगाएगा।

लेकिन 11 वर्ष बाद, इस महत्वाकांक्षी योजना की स्थिति क्या है? वादे कितने पूरे हुए और हक़ीक़त क्या सामने आई?

मेक इन इंडिया के मुख्य उद्देश्य

  1. जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी को 16% से बढ़ाकर 25% करना।
  2. करोड़ों युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराना।
  3. भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाना।
  4. चीन व अन्य देशों पर निर्भरता कम करना।

11 साल बाद की हक़ीक़त

1. विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी

2014 में भारत की जीडीपी में विनिर्माण का योगदान लगभग 16% था। “मेक इन इंडिया” का सबसे बड़ा लक्ष्य इसे 25% तक ले जाना था। लेकिन 2025 में यह घटकर सिर्फ़ 13% रह गया।

👉 इसका मतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी सेवाक्षेत्र (आईटी, बैंकिंग, रिटेल) पर ही टिकी हुई है, जबकि उत्पादन आधारित उद्योग ठहराव में हैं।

2. रोजगार पर असर

2013-14 में भारत के कुल कार्यबल का 11.6% हिस्सा विनिर्माण में था, जो 2022-23 तक घटकर 10.6% रह गया।

👉 सरकार ने दावा किया था कि “मेक इन इंडिया” करोड़ों नौकरियाँ पैदा करेगा। लेकिन वास्तव में छोटे उद्योगों पर नोटबंदी और जीएसटी जैसे झटकों ने असर डाला और लाखों इकाइयाँ बंद हो गईं।

👉 नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में युवा बेरोज़गार रह गए या असंगठित गिग वर्क में चले गए।

3. विदेशी निवेश (FDI)

2024 में भारत में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) लगभग 10 बिलियन डॉलर था। लेकिन 2025 में यह घटकर सिर्फ़ 353 मिलियन डॉलर रह गया।

👉 इतनी बड़ी गिरावट से यह स्पष्ट है कि निवेशकों का भारत पर भरोसा घटा है।

👉 विदेशी कंपनियाँ नीतिगत अस्थिरता, उलझे हुए कानूनों और भ्रष्टाचार से परेशान हैं। परिणामस्वरूप, वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों ने भारत से अधिक निवेश आकर्षित कर लिया।

4. चीन पर निर्भरता

2014 में भारत-चीन व्यापार घाटा लगभग 50 बिलियन डॉलर था, जो 2025 में बढ़कर 100 बिलियन डॉलर हो गया।

👉 इसका अर्थ है कि भारत “आत्मनिर्भर” बनने के बजाय चीन पर और ज़्यादा निर्भर हो गया।

👉 स्मार्टफोन, इलेक्ट्रॉनिक्स, सोलर पैनल और फार्मा सेक्टर के कच्चे माल आज भी चीन से ही आते हैं।

👉 यानी भारत में असेंबली तो होती है, लेकिन असली उत्पादन और वैल्यू एडिशन चीन में ही रहता है।

ौऐतिहासिक संदर्भ: नया नहीं था यह विचार

  • स्वदेशी आंदोलन (1905): विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और देशज उद्योगों को बढ़ावा।
  • लाइसेंस राज (1950–1990): नियंत्रित अर्थव्यवस्था, लेकिन अक्षम उत्पादन।
  • 1991 आर्थिक सुधार: उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण (LPG) से नई दिशा।
  • 2011 राष्ट्रीय विनिर्माण नीति (यूपीए सरकार): विनिर्माण हिस्सेदारी 25% करने का लक्ष्य।

अर्थात “मेक इन इंडिया” का विचार बिल्कुल नया नहीं था, बल्कि यह स्वदेशी और विनिर्माण नीतियों की निरंतर कड़ी थी।

सफलता की कहानियाँ

  • रक्षा निर्यात: 2024-25 में 23,000 करोड़ रुपये, 10 वर्षों में 30 गुना वृद्धि।
  • इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात: 2023-24 में 15 बिलियन डॉलर के स्मार्टफोन निर्यात।
  • अर्धचालक और सौर परियोजनाएँ: शुरुआती निवेश और नीतिगत प्रयासों से गति।

गंभीर चुनौतियाँ

  1. एमएसएमई संकट: पिछले वर्ष 35,567 इकाइयाँ बंद, 5 वर्षों में 75,000 इकाइयाँ बंद।
  2. फार्मा निर्भरता: 70% सक्रिय फार्मास्यूटिकल अवयव (API) चीन से आयात।
  3. स्मार्टफोन असेंबली बनाम वास्तविक उत्पादन: iPhone में केवल 6–8% और Samsung में 25–30% वैल्यू एडिशन।
  4. नीतिगत झटके: नोटबंदी ने नकदी आधारित उद्योगों को तोड़ा, जीएसटी ने छोटे व्यापारियों को चोट पहुँचाई।
  5. संरचनात्मक समस्याएँ: Ease of Doing Business रैंकिंग सुधरी, लेकिन जमीनी निवेश नहीं बढ़ा।

नीतिगत कमियाँ

1. अवास्तविक लक्ष्य

सरकार ने दावा किया कि विनिर्माण क्षेत्र 12–14% वार्षिक दर से बढ़ेगा। लेकिन धरातल पर यह दर आधी भी नहीं रही।

👉 शुरुआत से ही लक्ष्यों को ज़्यादा ऊँचा रखा गया, जबकि वास्तविक परिस्थितियों (इन्फ्रास्ट्रक्चर, कौशल, निवेश माहौल) का आकलन कम हुआ।

2. कार्यान्वयन घाटा

योजना घोषणाओं और प्रचार पर ज़्यादा टिकी रही।

👉 भूमि सुधार, श्रम सुधार और लॉजिस्टिक्स सुधार आधे-अधूरे रहे।

👉 नतीजा यह हुआ कि निवेशकों का भरोसा नहीं बन सका और नीति कागज़ों तक सीमित रह गई।

3. फोकस की कमी

सरकार ने एक साथ 25+ क्षेत्रों में निवेश आकर्षित करने की कोशिश की।

👉 लेकिन संसाधनों के बिखराव से किसी भी क्षेत्र में निर्णायक बढ़त नहीं बन पाई।

👉 चीन की तरह 2–3 प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित होकर वैश्विक हब बनने की रणनीति भारत में नहीं दिखी।

भविष्य का रास्ता: मेक इन इंडिया 2.0

1. भ्रष्टाचार पर सख़्त कार्रवाई

बड़े कॉर्पोरेट और राजनीतिक भ्रष्टाचार मामलों पर ज़ीरो टॉलरेंस से ही निवेशकों का विश्वास लौटेगा।

2. ज़मीन पर Ease of Doing Business

काग़ज़ी रैंकिंग नहीं, बल्कि जमीन पर उद्योग खोलने की प्रक्रिया तेज़, पारदर्शी और डिजिटल बने।

3. पारिस्थितिकी तंत्र निर्माण

“Think in India, Design in India, Innovate in India” पर ध्यान। रिसर्च, स्टार्टअप और उद्योग के बीच मज़बूत नेटवर्क बने।

4. वैश्विक प्रतिभा वापसी

विदेश गए भारतीय वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को आकर्षित करने के लिए अवसर और प्रोत्साहन दिया जाए।

5. नेतृत्व का उदाहरण

नेताओं और अफसरों को पारदर्शिता और ईमानदारी से “लीड बाय एग्ज़ाम्पल” करना होगा।

6. MSME पुनर्जीवन

एमएसएमई के लिए आसान कर्ज़, टैक्स राहत और स्थानीय से वैश्विक बाज़ार तक पहुँच सुनिश्चित करनी होगी।

निष्कर्ष

मेक इन इंडिया एक महत्वाकांक्षी और आवश्यक पहल थी, लेकिन आँकड़े बताते हैं कि यह अपने मुख्य लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रही है। जीडीपी में हिस्सेदारी घटी, नौकरियाँ कम हुईं, निवेश घटा और चीन पर निर्भरता बढ़ी।

हाँ, रक्षा और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में प्रगति हुई है, लेकिन यह भारत को “विश्व की फैक्ट्री” बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है।

भारत को अगर सचमुच वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनना है, तो मेक इन इंडिया 2.0 को नई दृष्टि, पारदर्शिता और ठोस नीतिगत बदलावों के साथ लागू करना होगा। केवल तभी यह पहल युवाओं के सपनों और देश की आकांक्षाओं को पूरा कर पाएगी।

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