मेरी कहानी: एक मुलाकात, हजार सपने

झाँसी की एक ठंडी शाम थी। जनवरी का महीना, हवा में हल्की-हल्की नमी घुली हुई थी। सड़कों पर पीली रोशनी बिखेरती स्ट्रीट लाइटें, जिनके नीचे लोग तेज़-तेज़ कदमों से गुज़र रहे थे। कहीं चाय के खोमचे से भाप उठ रही थी, कहीं मूँगफली बेचने वाले की पुकार गूँज रही थी। इन्हीं हलचल भरी सड़कों के बीच, एक कैफ़े के दरवाज़े पर वह खड़ी थी—प्रिया।

उसके चेहरे पर हल्की घबराहट थी। हाथों की उँगलियाँ बैग की स्ट्रैप से खेल रही थीं। यह उसकी ज़िंदगी की पहली मुलाक़ात थी—मुझसे।

हमारी पहचान ऑनलाइन हुई थी। पहले कुछ संदेश, फिर लंबी चैट्स और धीरे-धीरे घंटों चलने वाली कॉल्स। और अब, हक़ीक़त की दुनिया में आमने-सामने मिलने का वक़्त आ चुका था।

दरवाज़ा खोलते ही कॉफ़ी की खुशबू ने जैसे उसका स्वागत किया। अंदर हल्की पीली रोशनी फैली थी। कोने की टेबल पर मैं बैठा था—पीली शर्ट और ग्रे ब्लेज़र पहने। मैंने जैसे ही उसे देखा, उठ खड़ा हुआ।

“हाय, प्रिया।”

“हाय, लकी।”

दोनों की आवाज़ों में हल्का कंपन था, मगर आँखों की चमक बहुत कुछ कह रही थी। जैसे बरसों से जानते हों, बस अभी पहली बार देख रहे हों।

वह सामने बैठी। पहले औपचारिक बातें—

“तो, तुम्हें कॉफ़ी कितनी पसंद है?” मैंने पूछा।

वह मुस्कुराई, “कॉफ़ी तो बहाना है, पसंद तो साथ है।”

मैं हँस पड़ा। “तो मुझे बहाने ढूँढ़ते रहना होगा, ताकि ये मुलाक़ातें होती रहें।”

धीरे-धीरे झिझक पिघलने लगी। बातचीत पढ़ाई, काम, पसंदीदा किताबों और फ़िल्मों तक पहुँची।

कॉफ़ी की चुस्कियों के बीच कई बार खामोशी भी आई। लेकिन वह खामोशी अजीब नहीं थी। जैसे उस खामोशी में भी बातें छिपी हों।

खिड़की के बाहर ठंडी हवा शीशे से टकरा रही थी। प्रिया ने बाहर झाँकते हुए धीमे से कहा,

“ये मौसम… कितना अधूरा लगता अगर तुम न आते।”

मैंने हल्की हँसी के साथ जवाब दिया,

“और मैं सोच रहा था, अधूरा तो मैं हूँ, पूरा तो तुम करती हो।”

उस पल ने मानो हमें और क़रीब ला दिया।

पहली मुलाक़ात के बाद मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हुआ। कभी लक्ष्मीबाई पार्क की धूप में मूँगफली खाते हुए, कभी नारायण बाग की बेंच पर बैठकर हँसते-हँसते वक़्त भूल जाते।

एक दिन सदर बाज़ार में किताबों की दुकान पर हम ठहरे। प्रिया ने एक कविता संग्रह उठाया और मुझे थमाया।

“ये पढ़ो, इसमें लिखा है— ‘तुम्हारी आँखों में जो चमक है, वही मेरी कविता का संगीत है।’”

मैंने मुस्कुराकर कहा, “तो अब से मेरी फ़ोटोग्राफ़ी और तुम्हारी कविताएँ साथ चलेंगी।”

बारिश का मौसम आया तो हमारी मुलाक़ातें और भी जादुई हो गईं। एक दिन अचानक तेज़ बारिश में भीगते हुए हम पास के शेड तक भागे। कपड़े भीग चुके थे। प्रिया ने हँसते हुए कहा,

“लगता है बारिश भी हमारी कहानी का हिस्सा बनना चाहती है।”

मैंने उत्तर दिया,

“हाँ, और यह कहानी अब कभी अधूरी नहीं रह सकती।”

 

दिन बीतते गए और रिश्ता गहराता गया। अब हम सिर्फ़ वर्तमान नहीं जी रहे थे, बल्कि भविष्य के लिए भी सपने बुन रहे थे।

एक शाम, मानिक चौक के रेस्टॉरेंट में हम आमने-सामने बैठे थे। रोशनी का सुनहरा झूमर टेबल पर हल्की परछाइयाँ बना रहा था।

मैंने धीरे से कहा—
“प्रिया, क्या तुमने कभी सोचा है… शादी के बाद हमारी ज़िंदगी कैसी होगी?”

वह थोड़ी देर चुप रही, फिर मुस्कुराई।

“हाँ, मैंने सोचा है। सुबह तुम ऑफिस जाने से पहले मैं तुम्हारे लिए कॉफ़ी बनाऊँगी। और तुम जाते-जाते मेरे माथे पर एक किस दोगे। वीकेंड्स पर हम लंबी ड्राइव्स पर निकलेंगे—ओरछा, माताटीला डैम। और जब बच्चे होंगे, तो उन्हें वही सिखाएँगे, जो हमें कभी सीखने का मौक़ा नहीं मिला।”

मैं हर शब्द को जैसे दिल में उतार रहा था।

“मैं भी यही सोचता हूँ,” मैंने कहा।

“एक छोटा-सा घर, बालकनी में ढेर सारे पौधे, दीवारों पर तुम्हारी कविताएँ, और एक लाइब्रेरी जिसमें तुम्हारी किताबें और मेरी तस्वीरें साथ हों।”

प्रिया ने मुस्कुराकर मेरा हाथ थामा।
“और तुम्हारा सपना?”

“हर साल हमारी एनिवर्सरी पर मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊँगा, जहाँ तुम्हें सबसे ज़्यादा खुशी मिलती है।”

सपनों की कोई सीमा नहीं थी।
यूरोप की गलियों में हाथों में हाथ डाले घूमना, स्विट्ज़रलैंड की बर्फ़ में साथ चलना, पेरिस के एफिल टॉवर के नीचे लंबी बातें करना।

प्रिया का सपना था उसकी कविताओं की किताब छपे और मेरी तस्वीरें उसमें हों। मेरा सपना था कि मेरी प्रदर्शनी का उद्घाटन वह करे।

कभी-कभी हम भविष्य को इतना साफ़ देख लेते थे कि लगता था जैसे पहले से जी लिया हो।

एक शाम, उसी कैफ़े में जहाँ पहली बार मिले थे, मैंने प्रिया का हाथ थामा और कहा,

“प्रिया, इस सफ़र में चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, मैं तुम्हारा हाथ कभी नहीं छोड़ूँगा। तुम मेरी कहानी नहीं, मेरी पूरी ज़िंदगी हो।”

उसकी आँखें भर आईं। उसने धीमे स्वर में कहा,

“लकी, मैंने भी तय कर लिया है—अब हर सपना हम साथ देखेंगे और साथ पूरा करेंगे। तुम्हारे बिना न तो कविता अधूरी होगी, न ही ज़िंदगी।”

उस शाम हमारी हँसी, आँसू और वादे कैफ़े की दीवारों में जैसे कैद हो गए।

और कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। असली कहानी तो हमारी ज़िंदगी है—जिसमें हर दिन एक नया पन्ना जुड़ता है, हर पल एक नई कविता लिखी जाती है, और हर साँस एक नया सपना सँजोती है।

 

समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था। हमारी मुलाक़ातें अब पहले से भी गहरी हो चुकी थीं। सपनों का संसार इतना साफ़ था कि हमें लगता था—बस कुछ ही दिनों में सब सच हो जाएगा।

लेकिन यथार्थ ने एक दिन दस्तक दी।

एक शाम प्रिया का चेहरा उतरा हुआ था। हमने कैफ़े में मुलाक़ात की, वही कैफ़े जिसने हमारी पहली मुलाक़ात को देखा था।

मैंने पूछा,

“क्या हुआ, प्रिया? आज तुम बहुत चुप हो।”

उसने कॉफ़ी का कप उठाया, पर होंठों तक नहीं ले जा सकी। उसकी आँखों में बेचैनी थी।

“लकी… मैंने माँ को हमारे बारे में बताया।”

मेरे हाथ काँप गए। मैंने गहरी साँस ली।

“फिर?”

प्रिया की आवाज़ टूट रही थी।

“माँ चुप रहीं… लेकिन पापा को जैसे ही पता चला कि तुम अनुसूचित जाति से हो, उनका चेहरा बदल गया। उन्होंने कहा— ‘एक क्षत्रिय की बेटी किसी नीची जाति के लड़के से शादी करेगी? ये कभी नहीं हो सकता।’”

मेरे भीतर कुछ चटक गया। फिर भी मैंने धीमे स्वर में पूछा,

“और तुमने क्या कहा?”

प्रिया ने मेरी ओर देखा। उसकी आँखें भीग चुकी थीं।

“मैंने कहा— ‘पापा, मैं लकी से ही शादी करूँगी। चाहे आप मानें या न मानें।’”

उस पल मेरी आत्मा कांप उठी। मैंने उसका हाथ थामा और कहा,

“प्रिया, तुम्हारे पापा का गुस्सा मैं समझता हूँ। मगर मैं सिर्फ़ जाति का हिस्सा नहीं, एक इंसान भी हूँ। और अगर प्यार जाति से बड़ा नहीं हो सकता, तो फिर और क्या हो सकता है?”

 

दिन बीतते गए। प्रिया का घर तनाव से भर गया। पापा ने उसके फ़ोन तक पर पाबंदी लगाने की कोशिश की। पर प्रिया किसी तरह मुझसे मिलती रही।

एक दिन मैंने साहस किया और उसके घर के बाहर गया।

दरवाज़े पर खड़े उसके पापा से कहा—

“अंकल, मैं आपसे मिलने आया हूँ। मैं जानता हूँ, मैं अनुसूचित जाति से हूँ। लेकिन मैं आपकी बेटी से सच्चा प्यार करता हूँ। मैं उसे खुश रख सकता हूँ। कृपया हमें समझने की कोशिश कीजिए।”

उन्होंने मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा,

“लड़के, तुम जैसे लोग हमारे बराबर नहीं हो सकते। तुम चाहे कितनी भी बातें कर लो, पर जाति की दीवार कभी नहीं टूट सकती।”

मेरे शब्द गले में अटक गए। मैं कुछ और कहना चाहता था, पर उन्होंने दरवाज़ा मेरे मुँह पर बंद कर दिया।

 

उस रात प्रिया चुपचाप मुझसे मिलने आई। ठंडी हवाओं में उसकी साड़ी का पल्लू उड़ रहा था, और आँखों में आँसू चमक रहे थे।

“लकी,” उसने कहा, “पापा ने साफ़ कह दिया है—या तो मैं उनकी इज़्ज़त रखूँ, या फिर इस घर से हमेशा के लिए निकल जाऊँ।”

मैंने उसकी आँखों में गहराई से देखा।

“तो निकल चलो, प्रिया। इस समाज से लड़ेंगे। तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूँ।”

वह रो पड़ी।

“काश, इतना आसान होता। माँ का चेहरा देखती हूँ तो कदम रुक जाते हैं। उनकी आँखों में आँसू देखकर मैं टूट जाती हूँ।”

मैंने उसकी हथेली पर अपनी उँगलियाँ रखीं।

“प्रिया, प्यार की लड़ाई आसान नहीं होती। लेकिन अगर हम साथ हैं तो जीत सकते हैं।”

वह चुप रही। फिर धीमे स्वर में बोली,

“लकी… अगर कभी हम एक न हो पाएँ, तो क्या तुम मेरी कविताओं के साथ अपनी तस्वीरें जोड़ते रहोगे? ताकि हमारी कहानी कहीं अधूरी न रहे।”

मैंने गले लगाकर कहा,

“हाँ, प्रिया। मेरी हर तस्वीर तुम्हारे नाम होगी। तुम्हारी हर कविता मेरे दिल की आवाज़ होगी।”

 

कुछ दिनों बाद ख़बर आई कि प्रिया की शादी परिवार वालों ने कहीं और तय कर दी है। बिना उसकी मरज़ी के।

उस शाम मैं उसी कैफ़े में अकेला बैठा था। सामने वाली कुर्सी ख़ाली थी। कॉफ़ी की खुशबू वही थी, रोशनी वही थी, खिड़की के बाहर वही ठंडी हवा बह रही थी।

बस, वह नहीं थी।

मैंने डायरी खोली और उसकी लिखी आख़िरी पंक्ति पढ़ी—

“तुम्हारे बिना न तो कविता अधूरी होगी, न ही ज़िंदगी।”

आँखों से आँसू बहे और पन्ने पर गिर पड़े।

 

प्रिया की हँसी, उसकी आँखों की चमक, उसके सपने—सब मेरे कैमरे और दिल की गहराई में कैद रह गए।

अब मेरी दुनिया तस्वीरों और उसकी कविताओं में बसती है। लोग कहते हैं—हमारी कहानी ख़त्म हो गई।

लेकिन मुझे पता है—यह कहानी अभी भी जी रही है, हर शब्द, हर तस्वीर और हर साँस में।

👉 इस तरह तीसरे एपिसोड का अंत सामाजिक और पारिवारिक विरोध के कारण अधूरेपन और करुणा से भरा रहेगा। इसमें जातिवाद का दर्द भी झलकता है और प्रेम की सच्चाई भी।

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