रामस्वरूप वर्मा: राजनीति के कबीर और सामाजिक क्रांति के सूत्रधार
भारतीय राजनीति और सामाजिक न्याय के इतिहास में अनेकों ऐसे नक्षत्र हुए हैं जिनकी चमक समय के साथ फीकी पड़ गई, लेकिन कुछ ऐसे भी ध्रुवतारे हैं जिनका प्रकाश मार्गदर्शन करता रहता है। रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त 1923 – 19 अगस्त 1998) ऐसे ही एक दृढ़चेता, सिद्धांतप्रिय और क्रांतिकारी चिंतक थे, जिन्हें ‘राजनीति का कबीर’ कहा जाता है। वे केवल एक राजनेता ही नहीं, बल्कि एक दार्शनिक, समाज सुधारक, मौलिक लेखक और अथक योद्धा थे, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ब्राह्मणवाद, जातिवाद, अंधविश्वास और आर्थिक शोषण के विरुद्ध एक सशक्त आंदोलन खड़ा करने में लगा दिया। उनका जीवन और विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे।
प्रारंभिक जीवन: एक किसान के मेधावी पुत्र का उदय
रामस्वरूप वर्मा का जन्म 22 अगस्त 1923 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के गाँव गौरीकरन में एक किसान (कुर्मी) परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री वंशगोपाल साधारण किसान थे। रामस्वरूप अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे। जहाँ उनके बाकी भाई गाँव में खेती-किसानी में लगे रहे, वहीं सभी बड़े भाइयों ने अपने इस सबसे छोटे भाई की शिक्षा-दीक्षा पर विशेष ध्यान दिया और उन्हें अपनी रुचि के अनुसार कैरियर चुनने के लिए प्रोत्साहित किया। परिवार का यह सहयोग और प्रोत्साहन ही था कि पढ़ाई के बाद सीधे राजनीति में आने पर भी उन्हें कभी आपत्ति का सामना नहीं करना पड़ा।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई, जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। वे स्वभाव से अत्यंत सौम्य, विनम्र और मिलनसार थे, लेकिन इस सौम्यता के पीछे आत्मसम्मान और स्वाभिमान का एक अडिग पहाड़ छिपा था। 1949 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया और इसके बाद कानून की डिग्री प्राप्त की। उनकी मेधा का परिचय इस तथ्य से मिलता है कि उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) की परीक्षा उत्तीर्ण की और इतिहास (जो उनका मुख्य विषय भी नहीं था) में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। लेकिन एक सरकारी अधिकारी बनकर व्यवस्था का हिस्सा बनने के बजाय, उन्होंने साक्षात्कार में शामिल ही नहीं होने का दृढ़ निश्चय किया। उनका लक्ष्य स्पष्ट था – सरकारी नौकरी का रुतबा और प्रोफेसरी के पद को ठुकराकर सीधे जनता की सेवा और समाज के शोषित वर्गों के उत्थान के लिए राजनीति को अपना माध्यम चुनना।
राजनीतिक सफर: एक सिद्धांतवादी विद्रोही का उदय
रामस्वरूप वर्मा का राजनीतिक सफर समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर शुरू हुआ। वे डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। डॉ. लोहिया को अपनी पार्टी को एक युवा, विचारशील और मौलिक चिंतन वाला नेता मिल गया, जिसकी उन्हें तलाश थी। लोहिया को वर्मा जी का जीवन के प्रति फकीराना नजरिया, निस्वार्थ भाव, ईमानदारी और विचारों की मौलिकता बहुत भाई। इस प्रकार वे लोहिया के सबसे विश्वसनीय वैचारिक मित्र बन गए।
उन्होंने 1952 में पहली बार भोगनीपुर विधानसभा क्षेत्र से एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता रामस्वरूप गुप्ता के विरुद्ध चुनाव लड़ा और महज चार हजार मतों से हार गए। लेकिन 1957 में उन्होंने उसी रामस्वरूप गुप्ता को पराजित करके उत्तर प्रदेश विधानसभा में प्रवेश किया। उस समय उनकी उम्र मात्र 34 वर्ष थी। इसके बाद वे 1967 (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से), 1969 (निर्दलीय), 1980, 1989 और 1991 (शोषित समाज दल से) में विधायक चुने गए। जन आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें 1955, 1957, 1958, 1960, 1964, 1969 और 1976 में कानपुर, बांदा, उन्नाव, लखनऊ और दिल्ली की तिहाड़ जेल में राजनीतिक बंदी के रूप में कारावास की सजाएं भोगनी पड़ीं।
वित्त मंत्री के रूप में ऐतिहासिक भूमिका:
1967-68 में उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में रामस्वरूप वर्मा वित्त मंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने एक ऐतिहासिक कार्य करते हुए 20 करोड़ रुपये के लाभ का बजट पेश किया, जिसने पूरे आर्थिक जगत को अचंभे में डाल दिया। उस समय आम धारणा थी कि सरकारी खजाना एक बार घाटे में चला जाए तो उसे फायदे में नहीं लाया जा सकता, अधिक से अधिक घाटे को कम किया जा सकता है। लेकिन वर्मा जी ने यह धारणा तोड़ दी। दुनिया के आर्थिक इतिहास में यह एक अद्भुत घटना थी, जिसके रहस्य को जानने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने उनसे साक्षात्कार करना चाहा। संक्षिप्त उत्तर में उन्होंने कहा, **”किसान से अच्छा अर्थशास्त्री और कुशल प्रशासक कोई नहीं हो सकता, क्योंकि लाभ-हानि के नाम पर लोग अपना व्यवसाय बदलते रहते हैं, पर किसान सूखा-बाढ़ झेलते हुए भी किसानी करना नहीं छोड़ता।”** यह उनके किसान पुत्र होने के गौरव और जमीनी समझ का प्रमाण था। उल्लेखनीय है कि उन्होंने कृषि, सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा जैसे विभागों का बजट पिछले वर्ष से डेढ़ गुना अधिक किए जाने और कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में वृद्धि करने के बावजूद यह लाभ का बजट पेश किया।
वित्त मंत्री रहते हुए उन्होंने दो और ऐतिहासिक कार्य किए। पहला, उन्होंने सचिवालय से अंग्रेजी टाइपराइटरों को हटवा दिया और पहली बार हिंदी में बजट पेश किया, जो एक स्थायी परंपरा बन गई। दूसरा, उन्होंने बजट में ‘खंड-6’ का समावेश किया, जिसमें प्रदेश के कर्मचारियों/अधिकारियों का लेखा-जोखा होता था। इससे पहले सरकारें बिना किसी लेखे-जोखे के कर्मचारियों को वेतन देती थीं।
लोहिया से मतभेद और एक नए पथ का निर्माण
आगे चलकर रामस्वरूप वर्मा और डॉ. लोहिया के बीच गहरे वैचारिक मतभेद उभरे। ये मतभेद मुख्यतः ब्राह्मणवाद, हिन्दुत्व और सांस्कृतिक क्रांति को लेकर थे। डॉ. लोहिया रामचरितमानस और मनुस्मृति में समन्वयवादी भावना ढूंढते थे, जबकि वर्मा जी का मानना था कि इन ग्रंथों ने ही सामाजिक विषमता और शोषण को वैचारिक आधार दिया है। मुद्राराक्षस के अनुसार, एक बार दिल्ली में लोहिया के आवास पर वर्मा जी ने रामचरितमानस को लेकर उनसे बेहद उत्तेजक बहस की थी। वर्मा जी भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए हिन्दुत्व से मुक्ति को जरूरी मानते थे, जबकि लोहिया हिन्दुत्व में सुधार के पक्षधर थे। यही वैचारिक विरोध उनके अलगाव का कारण बना और वर्मा जी ने सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी।
उनकी समझ थी कि बिना सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति के सामाजिक-आर्थिक समानता प्राप्त नहीं की जा सकती। इसी सोच के तहत 1 जून, 1968 को उन्होंने ‘अर्जक संघ’ की स्थापना की। अर्जक संघ का उद्देश्य मानववादी संस्कृति का विकास करना, समता की भावना को बढ़ावा देना, ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना था। अर्जक संघ ने ब्राह्मणवाद की नींव की ईंटों – पुनर्जन्म और भाग्यवाद – को नकारा। इस संघ के माध्यम से उत्तर भारत में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तर्ज पर एक सशक्त सामाजिक न्याय आंदोलन का बिगुल फूंका गया, जिसके कारण उन्हें ‘उत्तर भारत का आंबेडकर’ कहा जाने लगा।
1 जून, 1969 को उन्होंने ‘अर्जक’ साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन शुरू किया, जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक शक्तिशाली वैचारिक मंच बना। मंगलदेव विशारद और महाराज सिंह भारती जैसे तमाम समाजवादी बुद्धिजीवी इस आंदोलन से जुड़े और अर्जक में क्रांतिकारी लेख प्रकाशित हुए।
शोषित समाज दल का गठन: 1972 में उन्होंने ‘समाज दल’ का गठन किया। इसी दौरान बिहार में जगदेव प्रसाद ने ‘शोषित दल’ बनाया था। दोनों नेताओं के सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण समान थे, अतः दोनों दलों का विलय हो गया और नया नाम ‘शोषित समाज दल’ रखा गया। रामस्वरूप वर्मा इसके अध्यक्ष और जगदेव बाबू महामंत्री बने। बाद में समता दल और रिपब्लिकन पार्टी का भी इसमें विलय हो गया।
अर्जक संघ: एक सांस्कृतिक क्रांति का घोषणापत्र
अर्जक संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विप्लव था। इसने सामाजिक जीवन के हर पहलू में ब्राह्मणवादी रूढ़ियों को चुनौती दी और वैकल्पिक मानवतावादी प्रथाएं प्रस्तावित कीं।
विवाह पद्धति:
अर्जक संघ ने ब्राह्मणवादी विवाह के स्थान पर ‘अर्जक विवाह’ को बढ़ावा दिया। इसमें कोई जटिल धार्मिक रस्में नहीं होती थीं। लड़का-लड़की संघ की पहले से तय प्रतिज्ञा को दोहराते थे और एक-दूसरे को वरमाला पहनाकर विवाह बंधन में बंध जाते थे। इस प्रकार विवाह को एक सामाजिक समझौता माना गया, न कि एक धार्मिक संस्कार।
अंतिम संस्कार:
मृत्यु के बाद होने वाले ब्रह्मभोज और जटिल कर्मकांडों के स्थान पर अर्जक संघ ने सादगीपूर्ण अंतिम संस्कार (मुखाग्नि या दफनाना) और उसके 5 या 7 दिन बाद केवल एक शोकसभा आयोजित करने का प्रावधान किया।
त्योहार:
ब्राह्मणवादी तीज-त्योहारों के स्थान पर अर्जक संघ 14 मानवतावादी पर्व मनाता था, जिनमें शामिल हैं: गणतंत्र दिवस (26 जनवरी), उल्लास दिवस (1 मार्च), चेतना दिवस (डॉ. आंबेडकर जयंती, 14 अप्रैल), मानवता दिवस (बुद्ध जयंती), समता दिवस (अर्जक संघ स्थापना दिवस, 1 जून), स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त), शहीद दिवस (जगदेव बाबू की शहादत, 5 सितंबर), लाभ दिवस (फसल आने की खुशी में, 1 अक्टूबर), एकता दिवस (सरदार पटेल जयंती, 13 अक्टूबर), शक्ति दिवस (ज्योतिबा फुले जयंती, 25 नवंबर), और विवेक दिवस (पेरियार रामास्वामी की पुण्यतिथि, 25 दिसंबर)।
अर्जक संघ की सभाओं में “मारेंगे-मर जाएंगे, हिन्दू नहीं कहलायेंगे” जैसे जोरदार नारे लगते थे। वर्मा जी की सभा में कोई कंठी पहने, हाथ में रक्षासूत्र बंधवाए या तिलक लगाए दिख जाता था, तो वे तुरंत उसे ललकारते थे कि इन हिन्दू निशानियों को त्याग दो।
वैचारिक लेखन: ब्राह्मणवाद के विरुद्ध तलवार
रामस्वरूप वर्मा ने अपने विचारों को प्रसारित करने और शोषित समाज में चेतना जगाने के लिए कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की। उनकी रचनाएँ बाबासाहेब आंबेडकर, कार्ल मार्क्स, गौतम बुद्ध और चार्वाक के विचारों से प्रभावित थीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं:
मानववादी प्रश्नोत्तरी (1984): यह ग्रंथ स्वामी दयानन्द के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की शैली में लिखा गया है, जिसमें प्रश्न-उत्तर के माध्यम से ब्राह्मणवादी मान्यताओं का खंडन किया गया है। इसमें आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, भाग्य, ईश्वर की सत्ता जैसे मुद्दों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है।
क्रांति क्यों और कैसे (1989): इस पुस्तक में उन्होंने क्रांति की अपनी परिभाषा दी – “जीवन के पूर्व निर्धारित मूल्यों का जनहित में पुनर्निर्धारण करना ही क्रांति है।” उन्होंने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक – इन चारों क्षेत्रों में एक साथ क्रांति की आवश्यकता पर बल दिया।
मनुस्मृति: राष्ट्र का कलंक (1990): इस पुस्तक में उन्होंने मनुस्मृति को राष्ट्र के लिए कलंक बताया, जिसने जातिगत भेदभाव और शोषण को वैधता प्रदान की।
ब्राह्मण-महिमा: क्यों और कैसे: 1974 में रामचरितमानस की चतुष्शती के आयोजन के विरोध में लिखी गई इस पुस्तक में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति वी.वी. गिरि को लिखे गए पत्र शामिल हैं। उन्होंने तर्क दिया कि रामचरितमानस एक संविधान-विरोधी ग्रंथ है, जो शूद्रों, अन्त्यजों और स्त्रियों का अपमान करता है और इसे सरकारी संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए।
अन्य रचनाएँ: ‘निरादर कैसे मिटे?’, ‘अछूतों की समस्या और समाधान’, ‘आंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’ आदि।
उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा डॉ. आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति भेद का उच्छेद’ और ‘अछूत कौन’ पर लगाए प्रतिबंध के खिलाफ भी आंदोलन किया और अर्जक संघ के नेता ललई सिंह यादव के माध्यम से इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दायर करवाया। अंततः कोर्ट में जीत हुई और सरकार को आंबेडकर साहित्य को सभी राजकीय पुस्तकालयों में रखने की मंजूरी देनी पड़ी।
सिद्धांतों की अटूट निष्ठा: व्यक्तित्व के कुछ अमर प्रसंग
रामस्वरूप वर्मा का पूरा जीवन सादगी, ईमानदारी और सिद्धांतों के प्रति अगाध निष्ठा की मिसाल है।
1. विधायक वेतन में वृद्धि का विरोध: उन्होंने विधानसभा में हमेशा विधायकों के वेतन बढ़ाए जाने का विरोध किया और स्वयं उसे कभी स्वीकार नहीं किया।
2. रेलवे कूपन का दुरुपयोग न करना: एक बार कन्नौज स्टेशन पर यात्रा के दौरान, विधायक होने के नाते मिलने वाले रेलवे कूपन का उपयोग केवल अपने और एक सहायक के लिए किया। साथ यात्रा कर रहे अन्य साथियों के लिए उन्होंने टिकट खरीदने पर जोर दिया, यह कहते हुए कि वह कूपन का दुरुपयोग नहीं कर सकते।
3. अजीत सिंह का चेक लौटाना: 1980 के चुनाव के बाद, जब वे विधायक बने, तो श्री अजीत सिंह ने उन्हें 20,000 रुपये का चेक भेजा। वर्मा जी ने सहयोगियों से विचार-विमर्श के बाद यह चेक वापस कर दिया और लिखा कि उनका चुनाव जनता ने लड़ा है और उन्हें इस पैसे की आवश्यकता नहीं है।
4. चुनाव जमानत जनता से लेना: एक बार चुनाव नामांकन के दौरान जब उनसे जमानत की राशि जमा करने के लिए कहा गया, तो उन्होंने कहा कि उनके पास पैसे नहीं हैं। यदि जनता उन्हें चुनाव लड़वाना चाहती है तो जमानत जमा करे, नहीं तो वे वापस लखनऊ चले जाएंगे। कार्यकर्ताओं ने तुरंत पैसा जमा करके उनका नामांकन कराया।
5. हमीरपुर का साहसिक प्रसंग: सत्तर के दशक में बुंदेलखंड के हमीरपुर में उनका एक कार्यक्रम था। स्थानीय ब्राह्मण-ठाकुरों ने धमकी दी कि यदि सभा हुई तो गोली चल जाएगी। प्रशासन ने उनसे सभा रद्द करने का अनुरोध किया, लेकिन वर्मा जी ने साफ मना कर दिया और कहा कि शांति बनाए रखना प्रशासन का काम है। उन्होंने निडर होकर सभा की और ब्राह्मणवाद पर जोरदार प्रहार किया। सभा के बाद विरोधियों ने उनकी हत्या की योजना बनाई, लेकिन भाग्यवश वे बच गए। इस घटना ने उनके साहस और दृढ़ता को रेखांकित किया।
विरासत और चिरस्थायी प्रासंगिकता
रामस्वरूप वर्मा का निधन 19 अगस्त 1998 को लखनऊ में हुआ। वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस ने ठीक ही कहा था कि यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतना मौलिक विचारक अधिक दिन जीवित नहीं रह सका, और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उत्तर भारत में उन्हें लगभग भुला दिया गया।
आज जब अंधविश्वास, सांप्रदायिकता और जातिवाद का जहर एक बार फिर समाज में फैल रहा है, और नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे जैसे तर्कवादी लेखकों की हत्या की जा रही है, रामस्वरूप वर्मा के विचार और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं। उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कयुक्त चिंतन, पाखंड विरोधी जीवनशैली और सामाजिक न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता आज के सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है।
उन्होंने एक ऐसे समाज का सपना देखा था, जिसमें “जिसमें समता की चाह नहीं, वह बढ़िया इंसान नहीं, समता बिना समाज नहीं, बिन समाज जनराज नहीं।” रामस्वरूप वर्मा का सम्पूर्ण जीवन और संघर्ष इसी समतामूलक समाज की स्थापना के लिए एक अमर प्रेरणा है। वे सच्चे अर्थों में राजनीति के कबीर थे, जिन्होंने सांसारिक लोभ-लालच को ठुकराकर सिद्धांतों और जनहित की राजनीति को अपना मार्ग चुना।

