1. भूमिका
भारतीय परंपरा में “सनातन” शब्द का अर्थ है – जो शाश्वत है, जो अनादि-अनंत है और कभी समाप्त नहीं होता। इसी कारण मौजूदा “हिन्दू धर्म” को अक्सर “सनातन धर्म” कहकर प्रस्तुत किया जाता है, मानो यह धर्म लाखों वर्षों से अपरिवर्तित रूप में विद्यमान हो। धार्मिक ग्रंथों, पुराणों और पौराणिक कथाओं में कल्पों और युगों की जो विशाल काल-गणना दी गई है, उसे अक्सर ऐतिहासिक सत्य मानकर प्रचारित किया जाता है। इस प्रचार का असर इतना गहरा है कि बहुत-से लोग मान लेते हैं कि भारत का तथाकथित वैदिक या हिन्दू धर्म वास्तव में दसियों हजार, बल्कि लाखों वर्षों पुराना है।
लेकिन जब हम इस दावे को वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टि से परखते हैं, तो पूरी तस्वीर बदल जाती है। पुरातत्व, भाषाविज्ञान और ग्रंथों के आंतरिक अध्ययन से जो साक्ष्य सामने आते हैं, वे यह बताते हैं कि भारत में वैदिक धर्म का उद्भव लगभग 800 ई. के आसपास हुआ और इसका वर्तमान स्वरूप, जिसे हम आज “हिन्दू धर्म” कहते हैं, बहुत बाद की रचना है। इसका सीधा अर्थ यह है कि “सनातन धर्म” का प्राचीन और शाश्वत होने का दावा एक आस्थाजन्य धारणा है, कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं।
इतिहास और मिथक में फर्क करना आसान नहीं होता, खासकर तब जब धार्मिक भावनाएँ बीच में हों। भारत में यह समस्या और गहरी हो जाती है क्योंकि यहाँ राजनीति, धर्म और संस्कृति आपस में इतनी गुँथी हुई हैं कि धार्मिक मिथकों को अक्सर “राष्ट्रीय गौरव” के नाम पर ऐतिहासिक सत्य की तरह प्रस्तुत किया जाता है। इसीलिए यह ज़रूरी है कि हम तथ्यों और कल्पनाओं के बीच स्पष्ट भेद करें।
यही कारण है कि यह लेख यह दिखाने का प्रयास करेगा कि वैदिक धर्म, ब्राह्मण धर्म और आज का हिन्दू धर्म वास्तव में कितने पुराने हैं। हम देखेंगे कि कैसे इनके विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे और ऐतिहासिक परिस्थितियों में हुई, और कैसे इनके लाखों वर्षों पुराने होने का दावा वास्तविकता में सिर्फ मिथक और मनगढ़ंत कल्पना है।
2. पुरातत्व का साक्ष्य
भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता-साक्ष्य हमें सिंधु घाटी/हड़प्पा सभ्यता (2600–1900 ई.पू.) से मिलता है। इस सभ्यता की खुदाई में विशाल नगर, पक्की ईंटों से बने मकान, जलनिकासी की जटिल व्यवस्था और व्यापारिक मुहरें मिली हैं। लेकिन इनमें कहीं भी ऋग्वैदिक देवताओं — इन्द्र, अग्नि, वरुण, सोम — का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यहाँ तक कि यज्ञ वेदियाँ या अग्निहोत्र से जुड़ी सामग्री भी नहीं मिली। इससे यह साफ होता है कि इस सभ्यता की धार्मिक परंपरा वैदिक परंपरा से भिन्न थी।
इसके बजाय पुरातत्वविदों ने हड़प्पा से मातृदेवी (Mother Goddess) की मूर्तियाँ, बैल जैसी आकृतियाँ और उर्वरता-प्रतीक प्राप्त किए हैं। इनसे यह आभास होता है कि हड़प्पावासी जीवन, प्रजनन और कृषि-समृद्धि के प्रतीकों की पूजा करते थे। इस परंपरा का वैदिक धर्म में कोई ज़िक्र नहीं मिलता। इसका अर्थ है कि हड़प्पा की धार्मिक मान्यताएँ और वैदिक यज्ञ परंपरा के पूर्व विकसित हुईं, न कि एक-दूसरे की प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी थीं।
पुरातात्विक दृष्टि से देखा जाए तो भारत में वैदिक यज्ञकर्म के ठोस प्रमाण नहीं मिलते हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वैदिक परंपरा धीरे-धीरे गंगा-घाटी के मैदानों में फैली थी। परंतु यह विस्तार सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद हुआ, जिसका अर्थ यह है कि “वैदिक धर्म” भारतीय इतिहास की सबसे पहली धार्मिक परंपरा नहीं थी।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वैदिक ग्रंथों में गंगा का लगभग कोई उल्लेख नहीं है, जबकि सरस्वती और सिंधु नदियों का बार-बार ज़िक्र है। इसके विपरीत, गंगा-घाटी के पुरातात्विक स्थलों में वैदिक धर्म के प्रमाण धीरे-धीरे बढ़ते हैं। यह इस बात का संकेत है कि वैदिक संस्कृति पश्चिम से भारत में आई और धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैल गई। अगर वैदिक धर्म लाखों वर्षों से भारत में होता, तो उसका सबसे प्राचीन साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता में अवश्य मिलता, जो कि अनुपस्थित है।
इस तरह पुरातत्व हमें एक स्पष्ट निष्कर्ष तक पहुँचाता है। सिंधु घाटी की सबसे प्राचीन और शहरी सभ्यता “वैदिक” नहीं थी। वैदिक धर्म तो गौतम बुद्ध के बाद आया और भारत की अन्य परंपराओं के साथ मिलकर विकसित हुआ। इसलिए जब कोई यह दावा करता है कि हिन्दू या वैदिक धर्म लाखों वर्ष पुराना है, तो वह सीधे-सीधे पुरातात्विक प्रमाणों की अनदेखी करता है। इतिहास हमें बताता है कि यह परंपरा अधिकतम एक हज़ार साल पुरानी है, न कि लाखों साल।
3. भाषाविज्ञान और ऋग्वेद
वैदिक धर्म की वास्तविक आयु को समझने के लिए भाषाविज्ञान सबसे महत्वपूर्ण साधन है। ऋग्वेद की भाषा को वैदिक संस्कृत कहा जाता है, जो आज की शास्त्रीय संस्कृत से भी पुरानी और अलग है। भाषाविदों का मानना है कि ऋग्वेद की रचना का भारत में पहला प्रमाण 1470 ई. का मिलता है। इससे पहले की किसी भी भारतीय सभ्यता में वैदिक संस्कृत जैसी भाषा का कोई निशान नहीं मिलता। इसका अर्थ है कि वैदिक संस्कृति का उद्भव एक ऐतिहासिक काल में हुआ, न कि लाखों वर्ष पहले।
ऋग्वेद की भाषा का गहरा साम्य हमें अवेस्टा (ईरानी धर्मग्रंथ) की भाषा से मिलता है। दोनों भाषाओं में शब्दावली, व्याकरण और देवताओं के नामों तक में समानता पाई जाती है। जैसे ऋग्वेद का देवता“मित्र” अवेस्टा में भी “मिथ्र” के रूप में मिलता है। इसी तरह संस्कृत का “असुर” अवेस्ता में “अहुर” है, जिसका अर्थ देवता होता है। यह साम्य इस ओर इशारा करता है कि वैदिक और ईरानी परंपराओं की जड़ें एक साझा भाषाई और सांस्कृतिक धारा में थीं। यह साझा धारा भारत में जन्मी नहीं थी, बल्कि मध्य एशिया और ईरान क्षेत्र में विकसित हुई और फिर भारत में पहुँची।
भाषावैज्ञानिक शोध यह भी दिखाता है कि वैदिक संस्कृत का रिश्ता इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से है। इसका अर्थ है कि संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, जर्मन, अंग्रेज़ी और फ़ारसी—सबकी जड़ें एक ही भाषा परिवार से जुड़ी हैं। यदि “सनातन धर्म” सचमुच भारत में लाखों वर्ष पुराना होता, तो संस्कृत का इस वैश्विक भाषा परिवार से कोई संबंध नहीं होना चाहिए था। लेकिन वास्तविकता यह है कि संस्कृत और ऋग्वेद की भाषा एक व्यापक प्रवासी परंपरा का हिस्सा हैं।
ऋग्वेद का भौगोलिक संदर्भ भी इसकी आयु और उद्गम को स्पष्ट करता है। इसमें सरस्वती और सिंधु नदियों का बार-बार उल्लेख है, जबकि गंगा का नाम मुश्किल से आता है। यह इस बात का संकेत है कि ऋग्वेद का रचनाकाल उत्तर-पश्चिम भारत था, जहाँ से वैदिक संस्कृति का प्रसार हुआ। यदि यह परंपरा लाखों वर्षों से भारत में होती, तो गंगा जैसी विशाल और ऐतिहासिक नदी का उल्लेख ऋग्वेद में प्रमुखता से अवश्य मिलता।
भाषाविज्ञान और ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद की रचना सीमित काल में और विशेष भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में हुई। यह कोई शाश्वत, अनादि-अनंत ग्रंथ नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। इसी से यह भी सिद्ध होता है कि भारत में वैदिक धर्म का वास्तविक इतिहास एक हज़ार वर्ष से अधिक पुराना नहीं है। “लाखों वर्षों पुराना” कहना न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से गलत है, बल्कि यह भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों का भी सीधा खंडन है।
4. वैदिक धर्म बनाम हिन्दू धर्म
जब हम “वैदिक धर्म” और “हिन्दू धर्म” की तुलना करते हैं, तो पाते हैं कि ये दोनों बिल्कुल समान नहीं हैं। वैदिक धर्म का आधार था यज्ञ परंपरा और अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम जैसे देवताओं की स्तुति। ऋग्वेद और अन्य संहिताओं में इन देवताओं के लिए अनगिनत सूक्त रचे गए, लेकिन वहाँ हमें शिव, विष्णु, दुर्गा, गणेश जैसे लोकप्रिय देवताओं का नाम लगभग नहीं मिलता। इसका सीधा अर्थ है कि वैदिक धर्म का देव-तंत्र और हिन्दू धर्म का देव-तंत्र एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं।
वैदिक धर्म में धार्मिक कर्म का केंद्र था अग्निहोत्र और यज्ञ। घी, जौ और सोमरस अग्नि में अर्पित किए जाते थे, ताकि देवता प्रसन्न हों और वर्षा, संतान, पशु और समृद्धि प्रदान करें। यज्ञ की सफलता ही धर्म की सफलता थी। इसके विपरीत, आज के हिन्दू धर्म में धार्मिक कर्म का केंद्र है मूर्ति पूजा, भक्ति, मंदिर दर्शन और तीर्थयात्रा। गंगा-स्नान, व्रत, पूजा और आरती जैसी परंपराएँ वैदिक साहित्य में अनुपस्थित हैं। यह अंतर यह दिखाता है कि हिन्दू धर्म वैदिक धर्म का सीधा विस्तार नहीं, बल्कि एक नया सांस्कृतिक संश्लेषण है।
एक और महत्वपूर्ण अंतर है दैवीय अवधारणा में। वैदिक देवता प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण थे — इन्द्र बिजली और वज्र के देवता, वरुण जल और नियम के देवता, अग्नि यज्ञ की अग्नि, और सोम नशे और अमरत्व का प्रतीक। हिन्दू धर्म के देवता कहीं अधिक मानवीय रूप और पौराणिक कथा-चरित्र से युक्त हैं — जैसे राम और कृष्ण अवतार कथा से जुड़े हैं, शिव नटराज और संहारक के रूप में पूजे जाते हैं, और विष्णु जगतपालक के रूप में। यह दर्शाता है कि देवताओं की अवधारणा में गहरा ऐतिहासिक परिवर्तन आया।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि शूद्र और स्त्रियों की धार्मिक स्थिति वैदिक धर्म और हिन्दू धर्म में अलग-अलग थी। वैदिक काल में यज्ञ और वेदपाठ पर ब्राह्मणों का विशेषाधिकार था, और शूद्रों को धर्मकर्म से वंचित रखा गया। हिन्दू धर्म में भी जाति-आधारित भेदभाव जारी रहा, लेकिन भक्ति आंदोलन ने बाद में इसे चुनौती दी और ईश्वर-भक्ति को सबके लिए उपलब्ध बताया। यह बदलाव यह दर्शाता है कि हिन्दू धर्म स्थिर और सनातन नहीं, बल्कि परिवर्तनशील और ऐतिहासिक रूप से विकसित हुआ है।
इसलिए जब हिन्दू धर्म के समर्थक यह दावा करते हैं कि वह “वैदिक धर्म” का सीधा उत्तराधिकारी और लाखों वर्षों पुराना है, तो यह दावा तथ्यों से मेल नहीं खाता। वास्तव में, हिन्दू धर्म में वैदिक धर्म के तत्व अवश्य हैं, लेकिन यह केवल एक अंश है। बाकी संरचना स्थानीय, द्रविड़, आदिवासी और बौद्ध-जैन परंपराओं के मिश्रण से बनी है। इसलिए हिन्दू धर्म को समझना है तो उसे “सनातन और अपरिवर्तनीय” न मानकर “विकासमान और मिश्रित” परंपरा के रूप में देखना होगा।
5. ऐतिहासिक काल-क्रम
वैदिक, ब्राह्मण और हिन्दू धर्म की वास्तविक आयु और विकास-यात्रा को समझने के लिए हमें एक स्पष्ट काल-क्रम पर नज़र डालनी होगी। धर्म और संस्कृति अचानक नहीं जन्म लेते, वे धीरे-धीरे विकसित होते हैं। भारत के धार्मिक इतिहास में भी यही प्रक्रिया दिखाई देती है। नीचे दिए गए चरण हमें यह समझने में मदद करते हैं कि वैदिक धर्म से लेकर हिन्दू धर्म तक की परंपरा किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों से गुज़री।
(क) समण सभ्यता (2000 से 700 ईसा पूर्व)
- अहिंसा, तपस्या, संयम, त्याग और ध्यान को महत्व।
- जैन परंपरा (महावीर) और अन्य तपस्वी साधना पद्धतियाँ इसी धारा से।
- लोकधर्म और वैकल्पिक सामाजिक-आध्यात्मिक रास्ता
(ख) बौद्ध काल (7वीं शताब्दी ईसा पूर्व से आगे)
- गौतम बुद्ध (563–483 ईसा पूर्व) ने मध्यम मार्ग प्रस्तुत किया।
- संघ और विहारों के माध्यम से व्यापक जनसमर्थन।
- नैतिकता (शील), ध्यान (समाधि), और प्रज्ञा (बुद्धि) पर आधारित जीवन-दर्शन।
(ग) उत्तर-बौद्ध काल और हिन्दू धर्म का पुनर्गठन (ईसा पूर्व 2वीं शताब्दी से ईस्वी 4वीं शताब्दी तक)
• गुप्तकाल में पुराणों, भक्ति और देवता-केंद्रित हिन्दू धर्म का रूप लेना।
• विष्णु, शिव, शक्ति आदि की पूजा-परंपराएँ लोकप्रिय होना।
• जाति व्यवस्था और वर्णाश्रम धर्म को फिर से सुदृढ़ किया गया।
(घ) गुप्तकाल और मूर्तिपूजा (चौथी–पाँचवीं सदी ई.)
गुप्त साम्राज्य के समय हिन्दू धर्म को राजनीतिक और सांस्कृतिक संरक्षण मिला। इस युग में मंदिर निर्माण शुरू हुआ, मूर्तियों की पूजा संस्थागत रूप से स्थापित हुई और पुराणों को अंतिम रूप दिया गया। विष्णु और शिव की उपासना मुख्यधारा में आ गई। गुप्त राजाओं ने स्वयं को इन देवताओं के अवतार घोषित करके धर्म और राजनीति को जोड़ा। यही वह समय था जब हिन्दू धर्म अपने वर्तमान स्वरूप में आकार लेने लगा।
(च) मध्यकाल और भक्ति आंदोलन (8वीं–16वीं सदी)
आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को स्थापित किया और शैव-वैष्णव परंपराओं को दार्शनिक आधार दिया। दक्षिण भारत में आलवार और नयनार संतों ने भक्ति को जन-आंदोलन बनाया। उत्तर भारत में कबीर, तुलसी और सूर जैसे संतों ने जाति और कर्मकांड के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इस काल में हिन्दू धर्म और भी विविध और जनोन्मुख हो गया। यह सब दिखाता है कि हिन्दू धर्म की संरचना धीरे-धीरे कई सदियों में बनी।
(छ) ऋग्वेद (1600 ई.)
ऋग्वेद भारतीय इतिहास का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। इसकी रचना उत्तर-पश्चिम भारत में हुई, जहाँ सरस्वती और सिंधु नदियों का बार-बार उल्लेख मिलता है। इस समय धर्म का आधार प्राकृतिक शक्तियों की पूजा और यज्ञ परंपरा था। समाज मुख्यतः जनजातीय और पशुपालन पर आधारित था। ऋग्वेद में गंगा का लगभग उल्लेख न होना इस बात का प्रमाण है कि वैदिक संस्कृति उस समय गंगा-घाटी तक नहीं पहुँची थी। इस काल में “हिन्दू धर्म” जैसा कोई रूप मौजूद नहीं था।
(ज) उपनिषद (1600 ई.)
वैदिक धर्म के भीतर ही समय के साथ गहरे दार्शनिक प्रश्न उठने लगे। यज्ञ और देवताओं से आगे बढ़कर ऋषियों ने आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष जैसे सिद्धांतों पर विचार करना शुरू किया। उपनिषदों में कर्मकांड की आलोचना और ध्यान-ज्ञान पर बल मिलता है। यह परिवर्तन दिखाता है कि वैदिक परंपरा स्थिर नहीं थी, बल्कि उसके भीतर ही नए विचार जन्म ले रहे थे। यही उपनिषद बाद में हिन्दू दर्शन की नींव बने। लेकिन ध्यान देने योग्य है कि उस समय भी “हिन्दू धर्म” जैसी कोई संगठित धार्मिक पहचान अस्तित्व में नहीं थी।
(झ) महाकाव्य और पुराण (1600 ई.)
रामायण और महाभारत की रचना तथा पुराणों का लेखन इस अवधि में हुआ। इन ग्रंथों में हमें शिव, विष्णु, कृष्ण और दुर्गा जैसे देवताओं का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह वैदिक परंपरा से बिल्कुल अलग धार्मिक रूप था। यहाँ मूर्तिपूजा, अवतारवाद और भक्ति की अवधारणा प्रमुख हो गई। यह वही चरण है जब हिन्दू धर्म की नींव वास्तव में रखी जा रही थी।
(ट) औपनिवेशिक काल और “हिन्दू धर्म” की परिभाषा (19वीं–20वीं सदी)
ब्रिटिश काल में “हिन्दू धर्म” शब्द का इस्तेमाल एक व्यापक पहचान के रूप में हुआ। पहले भारत में लोग खुद को शैव, वैष्णव, शाक्त या किसी स्थानीय परंपरा का अनुयायी मानते थे। लेकिन औपनिवेशिक प्रशासन ने जनगणना और क़ानून के लिए “हिन्दू” श्रेणी बना दी। इसके बाद सामाजिक सुधार आंदोलनों (आर्य समाज, ब्रह्म समाज) और राष्ट्रवादी नेताओं ने भी “हिन्दू धर्म” को एक एकीकृत धर्म की तरह प्रस्तुत करना शुरू किया। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का राजनीतिक स्वरूप सामने आया।
अब तक हमने देखा कि वैदिक धर्म (600 ई.) से लेकर आधुनिक हिन्दू धर्म (19वीं सदी) तक की यात्रा एक सतत प्रक्रिया है। कहीं भी ऐसा नहीं दिखता कि यह धर्म “लाखों वर्षों पुराना” है।
6. राजनीति और धर्म का निर्माण
धर्म का स्वरूप केवल आस्था और आध्यात्मिकता से नहीं बनता, बल्कि राजनीति हमेशा उसे गढ़ने और दिशा देने में भूमिका निभाती है। वैदिक धर्म भी इससे अलग नहीं था। यज्ञ परंपरा केवल धार्मिक कर्म नहीं था, बल्कि राजनीतिक शक्ति का साधन भी था। राजा अश्वमेध और राजसूय जैसे यज्ञ करके अपनी प्रभुता और क्षेत्रीय सत्ता को वैध ठहराते थे। ब्राह्मण पुरोहित वर्ग इस पूरी प्रक्रिया का केंद्र था, जिसने धर्म को सत्ता से जोड़कर अपने सामाजिक वर्चस्व को स्थापित किया।
मध्यकाल में भी हिन्दू धर्म का विकास राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित हुआ। मुस्लिम शासकों के आगमन के बाद भक्ति आंदोलन ने धर्म को जनता से जोड़ा और उसे कर्मकांड से बाहर निकाला। यह परिवर्तन केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि उस समय की सामाजिक-राजनीतिक चुनौती का उत्तर भी था। संतों ने जाति और पंडिताई के वर्चस्व के खिलाफ बोलकर धर्म को अधिक जनतांत्रिक रूप देने की कोशिश की। इसका असर यह हुआ कि हिन्दू धर्म और भी विविध और लचीला बन गया।
औपनिवेशिक काल में धर्म और राजनीति का गठजोड़ और गहरा हो गया। ब्रिटिश सरकार ने जनगणना, शिक्षा और क़ानून के माध्यम से “हिन्दू” और “मुसलमान” जैसी बड़ी धार्मिक पहचानें गढ़ीं। इससे पहले लोग खुद को जाति, क्षेत्र और पंथ के आधार पर पहचानते थे। लेकिन औपनिवेशिक राज्य ने हिन्दू धर्म को एक संगठित श्रेणी बना दिया। इसने भारतीय राजनीति को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने की ज़मीन तैयार की।
19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी आंदोलन ने भी हिन्दू धर्म की राजनीतिक परिभाषा को आगे बढ़ाया। आर्य समाज और हिंदू महासभा जैसे संगठनों ने “सनातन” या “वैदिक” धर्म को भारतीय राष्ट्र की आत्मा घोषित किया। इसने हिन्दू धर्म को केवल एक आस्था नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद की राजनीतिक धारा के रूप में प्रस्तुत किया। यही वह बिंदु है जहाँ से “सनातन धर्म लाखों वर्षों पुराना है” जैसी बातें केवल धार्मिक दावा नहीं रहीं, बल्कि राजनीतिक नारे बन गईं।
आज भी राजनीति धर्म के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाती है। सत्ता की होड़ में “हिन्दू पहचान” को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार बना दिया गया है। प्राचीनता और शाश्वतता के दावे इसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा हैं, ताकि धर्म को प्राकृतिक, अपरिवर्तनीय और सर्वोच्च दिखाया जा सके। इस तरह धर्म केवल पूजा-पाठ का मामला नहीं, बल्कि सत्ता संघर्ष और वर्चस्व का औजार भी है।
7. “लाखों वर्ष पुराना” दावा — एक विश्लेषण
भारत में धर्म के प्राचीन होने का दावा केवल परंपरा और आस्था का हिस्सा नहीं, बल्कि एक सुनियोजित सांस्कृतिक रणनीति भी है। जब कोई धर्म यह कहता है कि वह लाखों वर्षों से चला आ रहा है, तो उसका उद्देश्य केवल श्रद्धालुओं को आश्वस्त करना नहीं होता, बल्कि अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ और शाश्वत सिद्ध करना भी होता है। हिन्दू धर्म में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से पुराणों और पौराणिक कालगणना के आधार पर विकसित हुई।
(क) पुराणों की कालगणना
पुराणों और धर्मग्रंथों में “कल्प” और “युग” जैसी समय-इकाइयाँ दी गई हैं। एक कल्प को अरबों वर्षों के बराबर बताया गया है और एक महायुग को लाखों वर्षों का। इन गणनाओं के आधार पर यह प्रचारित किया गया कि हिन्दू धर्म अनादि-अनंत है और पृथ्वी के साथ ही इसका अस्तित्व है। लेकिन यह गणना प्रतीकात्मक और पौराणिक है, न कि ऐतिहासिक। आधुनिक पुरातत्व और विज्ञान यह साबित कर चुके हैं कि मानव सभ्यता केवल दस-बारह हजार वर्षों से संगठित रूप में विद्यमान है। इसलिए लाखों वर्षों का दावा तथ्य के बजाय मिथक है।
(ख) मिथक और इतिहास का मिश्रण
धार्मिक मिथकों को इतिहास की तरह प्रचारित करने की प्रवृत्ति केवल हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं, लेकिन यहाँ यह विशेष रूप से मजबूत रही है। उदाहरण के लिए, राम और कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति मानकर उनके युग को लाखों वर्ष पुराना बताया जाता है। लेकिन अब तक किसी भी पुरातात्विक खुदाई में ऐसा प्रमाण नहीं मिला जो इन पात्रों को ऐतिहासिक रूप से स्थापित कर सके। जब कोई समाज मिथक और इतिहास का फर्क मिटा देता है, तो उसकी ऐतिहासिक समझ कमजोर हो जाती है और वह भावनाओं के आधार पर राजनीति के लिए अधिक संवेदनशील हो जाता है।
(ग) वैज्ञानिक प्रमाणों की अनदेखी
इतिहास और पुरातत्व यह दिखाते हैं कि भारत की सभ्यता-संस्कृति तीन-चार हजार वर्ष पुरानी है। सिंधु घाटी सभ्यता, वैदिक संस्कृति और उसके बाद के कालक्रम को हम पुरातात्विक और भाषावैज्ञानिक प्रमाणों से अच्छी तरह समझ सकते हैं। लेकिन “लाखों वर्ष पुराना” कहने वाले लोग इन सब वैज्ञानिक प्रमाणों की अनदेखी कर देते हैं। उनकी रणनीति यही होती है कि जनता में भावनात्मक गर्व पैदा किया जाए, ताकि कोई तथ्यात्मक प्रश्न ही न उठे।
(घ) राजनीतिक प्रयोजन
“लाखों वर्ष पुराना” वाला दावा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक भी है। जब यह कहा जाता है कि हिन्दू धर्म अनादि और शाश्वत है, तो इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि भारत भूमि स्वाभाविक रूप से “हिन्दू राष्ट्र” है। इससे अन्य धर्मों — जैसे बौद्ध, जैन, इस्लाम और ईसाई धर्म — को बाहरी या अस्थायी सिद्ध करने की कोशिश होती है। इस प्रकार प्राचीनता का दावा केवल धार्मिक पहचान नहीं, बल्कि राजनीतिक बहिष्करण का औजार भी बन जाता है।
सच यह है कि “लाखों वर्ष पुराना” कहना केवल एक पौराणिक अतिशयोक्ति है। ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से वैदिक धर्म/ हिन्दू धर्म एक हजार वर्ष से अधिक पुराना नहीं। पुराणों की कालगणना को इतिहास मान लेना उतना ही अवैज्ञानिक है जितना यह मान लेना कि पृथ्वी सपाट है। इसलिए हमें मिथक और इतिहास का अंतर समझकर ही धर्म की वास्तविक उम्र और स्वरूप को देखना चाहिए।
8. निष्कर्ष
इतिहास, पुरातत्व और भाषाविज्ञान हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि तथाकथित “वैदिक धर्म” और आज का “हिन्दू धर्म” लाखों वर्षों पुराना नहीं है। वैदिक धर्म का वास्तविक उद्भव भारत में लगभग 800 ई. के आसपास हुआ और इसका स्वरूप मुख्यतः यज्ञ, अग्नि-पूजा और प्राकृतिक शक्तियों की स्तुति पर आधारित था। इसके विपरीत, आज का हिन्दू धर्म मूर्तिपूजा, भक्ति और अवतारवाद पर आधारित है, जो गुप्तकाल से लेकर मध्यकाल तक धीरे-धीरे विकसित हुआ। इसका अर्थ यह हुआ कि “सनातन धर्म” शाश्वत और अपरिवर्तनीय परंपरा नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक रूप से निर्मित और निरंतर बदलती हुई संस्कृति है।
लाखों वर्षों पुराने होने का दावा केवल पौराणिक कालगणना और धार्मिक मिथकों से उपजा है। पुराणों और ग्रंथों में कल्पों और युगों की जो अवधारणाएँ दी गई हैं, वे प्रतीकात्मक हैं, ऐतिहासिक नहीं। जब इन्हें इतिहास के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो यह जनता की ऐतिहासिक समझ को धुंधला कर देता है। विज्ञान और पुरातत्व हमें बताते हैं कि मानव सभ्यता संगठित रूप में दस-बारह हज़ार वर्षों से अधिक पुरानी नहीं है। इसलिए यह मान लेना कि हिन्दू धर्म लाखों वर्षों पुराना है, तथ्य और प्रमाण दोनों के विरुद्ध है।
राजनीतिक रूप से देखें तो प्राचीनता और शाश्वतता का दावा सत्ता और वर्चस्व का औजार बन जाता है। जब कहा जाता है कि हिन्दू धर्म अनादि और सनातन है, तो इसके पीछे यह छिपा होता है कि भारत की भूमि पर केवल हिन्दू धर्म को ही “स्वाभाविक” और “वैध” धर्म माना जाए। यह विचार अन्य धर्मों और परंपराओं को बाहरी और अस्थायी ठहराने का प्रयास है। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम ऐसे दावों को केवल धार्मिक आस्था न मानें, बल्कि उनके राजनीतिक प्रयोजनों को भी समझें।
इस पूरी चर्चा से स्पष्ट होता है कि भारत का धार्मिक इतिहास विविध, जटिल और परिवर्तनशील है। यहाँ द्रविड़, मुंडा, बौद्ध, जैन और कई स्थानीय परंपराओं ने मिलकर सांस्कृतिक धारा को गढ़ा है। हिन्दू धर्म का आज का स्वरूप इन्हीं सबका मिश्रण है। इसे “सनातन” कहकर शाश्वत और अपरिवर्तनीय बताना ऐतिहासिक सत्य का अपमान है। वास्तविकता यही है कि हिन्दू धर्म की उम्र अधिकतम एक हज़ार वर्ष है, और उसका वैदिक आधार डेढ़ हज़ार वर्ष से अधिक पुराना नहीं।
इसलिए हमें इतिहास और मिथक के बीच स्पष्ट अंतर करना होगा। धार्मिक आस्था अपने स्थान पर ठीक है, लेकिन जब उसे इतिहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है, तो यह समाज को गुमराह करता है। भारतीय समाज को यदि सचमुच अपने अतीत पर गर्व करना है, तो उसे मिथ्या और मनगढ़ंत दावों से नहीं, बल्कि प्रमाण और तर्क से करना होगा। तभी हम अपने अतीत को ईमानदारी से समझ पाएँगे और भविष्य के लिए अधिक न्यायपूर्ण और तर्कसंगत समाज बना पाएँगे।
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