मौर्यकाल के बाद भारत में बौद्ध धम्म की स्थिति
मौर्य काल के बाद भारत में बौद्ध धम्म की क्या स्थिति थी, इस संबंध में अक्सर दी जाने वाली जानकारी असत्य है। कहा जाता है कि ब्रहदृथ की हत्या के बाद बौद्ध धम्म समाप्त हो गया था, ये कथन ग़लत है। मौर्य काल के बाद भी कई शताब्दियों तक भारत में बौद्ध धम्म अपने चर्मोत्कर्ष पर था, खूब फला-फूला और फैला।
प्रथम से तीसरी शताब्दी ईस्वी (1st to 3rd Century CE) का काल
भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गतिशील दौर था। यह युग मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद का है और इसमें कई नए राजवंशों का उदय हुआ, जिन्होंने बौद्ध धर्म को नया रूप और दिशा दी।
इस काल की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1. शक्तिशाली राजकीय संरक्षण (Powerful Royal Patronage)
मौर्यों के बाद के शासक वंशों ने बौद्ध धर्म को प्रभावशाली समर्थन दिया।
· शुंग वंश (लगभग 185-73 ईसा पूर्व): शुंग के काल में भरहुत और साँची के स्तूप का विस्तार और सजावट हुई। इससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म लोकप्रिय बना रहा और इसे सम्राट अशोक जैसा राजकीय संरक्षण न मिलने के बावजूद जनसमर्थन प्राप्त था।
· इंडो-ग्रीक (यवन) और इंडो-सिथियन शासक: उत्तर-पश्चिमी भारत के इन शासकों, जैसे मेनांडर (मिलिंद), ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन दिया। मिलिंद और बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच हुए philosophical dialogue ‘मिलिंदपन्हो’ की रचना इसी काल में हुई, जो बौद्ध धर्म की बौद्धिक शक्ति को दर्शाती है।
· सातवाहन वंश (लगभग 1st शताब्दी ईसा पूर्व – 3rd शताब्दी सीई): दक्कन (मध्य भारत) के इस शक्तिशाली वंश ने बौद्ध धर्म को भारी संरक्षण दिया। इसी काल में अमरावती और नागार्जुनकोंडा जैसे महान स्तूपों और चैत्यों का निर्माण हुआ। सातवाहन शासकों ने बौद्ध विहारों और विश्वविद्यालयों (जैसे कि प्रसिद्ध नालंदा की नींव इसी युग में पड़ी) को दान दिया।
2. कला और स्थापत्य का स्वर्ण युग (Golden Age of Art and Architecture)
यह काल बौद्ध कला के इतिहास में एक महान उत्कर्ष का समय था।
· स्तूप वास्तुकला का विकास: साँची, भरहुत, अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूपों को उनकी जटिल नक्काशी और विस्तृत तोरणद्वारों (gateways) के लिए जाना जाता है। ये नक्काशियाँ बुद्ध के जीवन, पूर्व जन्मों की कथाओं (जातक कथाओं) और समकालीन सामाजिक जीवन को दर्शाती हैं।
· बुद्ध की मूर्ति का आविर्भाव (Most Significant Development): इसी युग में, पहली बार बुद्ध की मानव रूप में मूर्तियाँ बनाई गईं। यह विकास दो प्रमुख कला शैलियों में हुआ:
1. गांधार शैली (उत्तर-पश्चिम भारत, अफगानिस्तान): यहाँ यूनानी (ग्रीक) कला का प्रभाव था। इन मूर्तियों में बुद्ध के चेहरे की विशेषताएँ यूनानी देवताओं जैसी, और वस्त्र गुथरे हुए (drapery) दिखाई देते हैं।
2. मथुरा शैली (मध्य भारत): यह शुद्ध भारतीय शैली थी। इन मूर्तियों में बुद्ध को एक स्थानीय योद्धा (यक्ष) की तरह दिखाया गया है, जो चोगा पहने हुए हैं और उनके चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान है।
· इस आविष्कार ने बौद्ध धर्म में भक्ति (उपासना) को बहुत बढ़ावा दिया।
3. बौद्ध धर्म के नए रूपों का उदय (Rise of New Buddhist Schools)
· महायान बौद्ध धर्म का उदय: यह इस युग की सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक घटना थी। महायान (“महान वाहन”) नामक एक नई विचारधारा का विकास हुआ, जिसने पारंपरिक बौद्ध धर्म (जिसे उन्होंने “हीनयान” या “छोटा वाहन” कहा) से अलग अपनी पहचान बनाई। महायान के मुख्य नए विचार थे:
· बोधिसत्व का आदर्श: एक ऐसा व्यक्ति जो स्वयं के निर्वाण के बजाय सभी प्राणियों के कल्याण के लिए काम करता है।
· शून्यता का दर्शन: नागार्जुन जैसे दार्शनिकों ने इस profound concept को विकसित किया।
· सर्वज्ञ बुद्ध और बोधिसत्वों की एक विशाल मंडली।
· संस्कृत का प्रयोग: महायान साहित्य की रचना संस्कृत में हुई, जिससे यह उच्च शिक्षित वर्ग के बीच अधिक व्यापक रूप से फैल सका।
4. व्यापार और विस्तार (Trade and Expansion)
· व्यापार मार्गों के जरिए प्रसार: रेशम मार्ग (Silk Road) जैसे व्यापार मार्गों के माध्यम से बौद्ध धर्म मध्य एशिया, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया में फैलना शुरू हुआ। बौद्ध भिक्षु और व्यापारी इन मार्गों पर यात्रा करते थे।
· दक्षिण-पूर्व एशिया: ऐसा माना जाता है कि इसी काल में बौद्ध धर्म श्रीलंका से आगे बढ़कर बर्मा (म्यांमार), थाईलैंड और इंडोनेशिया जैसे क्षेत्रों में पहुँचा।
प्रथम से तीसरी शताब्दी ईस्वी का काल भारत में बौद्ध धर्म के लिए एक रचनात्मक और विस्तार का दौर था। यह युग निम्नलिखित कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है:
1. कलात्मक क्रांति: बुद्ध की पहली मानवीय मूर्तियों का निर्माण।
2. धार्मिक नवाचार: महायान बौद्ध धर्म का उद्भव और विकास।
3. स्थापत्य वैभव: साँची और अमरावती जैसे महान स्तूपों का निर्माण।
4. वैश्विक पहुँच: बौद्ध धर्म का भारत के बाहर एशिया में व्यापक प्रसार शुरू होना।
इस प्रकार, मौर्य काल के बाद का यह समय बौद्ध धर्म के इतिहास में एक “स्वर्ण युग” (Golden Age) साबित हुआ, जिसने भारत में आने वाली शताब्दियों के लिए इसकी नींव मजबूत की।
4वीं से 6वीं शताब्दी ईस्वी (CE) का काल
भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास में एक निर्णायक संक्रमण और समृद्धि का दौर था। यह युग गुप्त साम्राज्य (लगभग 320-550 CE) के उत्कर्ष और उसके बाद के काल को कवर करता है। इस अवधि की स्थिति को समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करना महत्वपूर्ण है:
1. राजकीय संरक्षण और समर्थन (Royal Patronage)
गुप्त साम्राज्य आधिकारिक तौर पर एक परम्परावादी राजवंश था, गुप्तवंश के शासक सहिष्णु थे। उन्होंने बौद्ध धम्म को भरपूर संरक्षण दिया।
· समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय जैसे शक्तिशाली सम्राटों ने बौद्ध विद्वानों को सम्मानित किया और मठों (विहारों) के निर्माण के लिए दान दिया।
· कुमारगुप्त प्रथम (लगभग 415-455 CE) के शासनकाल में नालंदा महाविहार की स्थापना हुई, जो जल्द ही दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध विश्वविद्यालयों में से एक बन गया।
· गुप्तोत्तर काल में, मैत्रक वंश (वल्लभी, गुजरात) और वर्धन वंश (थानेश्वर/कन्नौज) जैसे स्थानीय शासकों ने भी बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन दिया। विशेष रूप से, हर्षवर्धन (606-647 CE) ने बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, हालाँकि वह स्वयं एक शैव थे।
2. बौद्ध दर्शन का स्वर्ण युग (Golden Age of Buddhist Philosophy)
यह काल बौद्ध दार्शनिक चिंतन की परिपक्वता और शिखर का समय था। दो प्रमुख विचारधाराएँ फल-फूल रही थीं:
· मध्यमिका (Madhyamaka/Shunyavada): नागार्जुन (द्वितीय शताब्दी CE) द्वारा स्थापित इस दर्शन को चंद्रकीर्ति (6वीं शताब्दी CE) जैसे विद्वानों ने और विकसित किया। इसने ‘शून्यता’ (सभी घटनाओं की सापेक्ष और स्वतंत्र सत्ता का अभाव) के सिद्धांत पर जोर दिया।
· योगाचार (Yogacara/Vijnanavada): असंग और वसुबंधु (चौथी-पाँचवीं शताब्दी CE) जैसे भाइयों ने इस विचारधारा की नींव रखी, जो ‘केवल-चेतना’ (विज्ञप्तिमात्रता) के सिद्धांत पर केंद्रित है, अर्थात बाह्य जगत की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, वह चेतना का ही प्रक्षेपण है।
· नालंदा महाविहार और वल्लभी विश्वविद्यालय ऐसे ज्ञान-केंद्र बन गए जहाँ दूर-दूर (जैसे चीन, कोरिया, तिब्बत) से विद्यार्थी अध्ययन के लिए आते थे।
3. कला और स्थापत्य में उत्कर्ष (Flourishing of Art and Architecture)
गुप्त काल को भारतीय कला का “शास्त्रीय युग” माना जाता है, और बौद्ध कला ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया।
· मूर्तिकला (Sculpture): इस युग में बुद्ध की मानवीय रूप में अत्यंत सौम्य, आदर्श और आध्यात्मिक प्रतिमाएँ बनाई गईं। यह “गुप्त शैली” के नाम से प्रसिद्ध है, जिसकी विशेषता थी सूक्ष्म मुस्कान, आध्यात्मिक शांति और पारदर्शी वस्त्रों का अंकन। सारनाथ की बुद्ध प्रतिमा इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
· चित्रकला (Painting): अजंता की गुफाओं (विशेषकर गुफा संख्या 1, 2, 16, 17) में बनी अधिकांश भित्तिचित्रों को इसी काल में चित्रित किया गया। ये चित्र बुद्ध के जीवन, जातक कथाओं और समकालीन सामाजिक जीवन के जीवंत दस्तावेज हैं।
· स्थापत्य (Architecture): विहारों (मठों) और चैत्यों (प्रार्थना-कक्ष) का निर्माण जारी रहा। नालंदा जैसे विशाल परिसरों का विकास हुआ।
4. तांत्रिक बौद्ध धर्म का उदय (Rise of Tantric Buddhism)
छठी शताब्दी CE के आसपास, बौद्ध धर्म के भीतर एक नए स्वरूप का उदय हुआ, जिसे वज्रयान (वज्र का मार्ग) या तांत्रिक बुद्धिज्म कहा जाता है। इसने योग, मंत्र, मुद्रा और जटिल दृश्य-साधना पर जोर दिया। यह विकास बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने और तत्कालीन प्रचलित भक्ति एवं तांत्रिक हिंदू मतों से प्रतिस्पर्धा करने का एक तरीका था।
5. चुनौतियाँ और परिवर्तन के संकेत (Challenges and Signs of Change)
भले ही यह काल समृद्धि का था, लेकिन कुछ ऐसे कारक सक्रिय हो रहे थे जिन्होंने भविष्य में बौद्ध धर्म के पतन की नींव रखी:
· ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान (Brahmanical Revival): गुप्त शासकों के ब्राह्मणवादी होने के कारण हिंदू धर्म को बहुत बल मिला। पुराणों का व्यवस्थित रचना-काल इसी युग में माना जाता है, जिसमें (जैसा कि पिछले प्रश्न में बताया गया है) बुद्ध को विष्णु का अवतार बताकर बौद्ध धर्म को अवशोषित करने की कोशिश की गई।
· भक्ति आंदोलन (Bhakti Movement): तमिल क्षेत्र में अलवार और नयनार संतों द्वारा शुरू किया गया भक्ति आंदोलन धीरे-धीरे उत्तर की ओर फैल रहा था, जिसने व्यक्तिगत देवता के प्रति भक्ति पर जोर देकर जनसाधारण को आकर्षित किया।
· स्थानीयकरण (Localization): बौद्ध धर्म अब मुख्य रूप से बड़े मठों और शहरी केंद्रों (जैसे नालंदा, वल्लभी) तक सीमित होता जा रहा था। आम जनता के बीच इसकी पकड़ हिंदू धर्म की तुलना में कमजोर पड़ने लगी थी।
4वीं से 6वीं शताब्दी CE में बौद्ध धर्म बौद्धिक, कलात्मक और संस्थागत रूप से अत्यंत समृद्ध और प्रभावशाली था। यह दार्शनिक विमर्श का केंद्र बना हुआ था और इसने शानदार कलात्मक उपलब्धियाँ हासिल कीं। हालाँकि, इसी दौरान ब्राह्मणवादी (हिंदू) धर्म का शक्तिशाली पुनरुत्थान शुरू हो गया था। इस प्रकार, यह काल एक जटिल संतुलन का था: एक ओर बौद्ध धर्म की चरम ऊँचाइयाँ थीं, तो दूसरी ओर वे सामाजिक-धार्मिक परिवर्तनों के बीज पड़ चुके थे, जिनके कारण अगली कुछ शताब्दियों में भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में इसका प्रभाव कम हो गया।
6वीं से 9वीं शताब्दी ईस्वी का काल
भारत में बौद्ध धर्म के लिए एक गहन परिवर्तन और गिरावट का दौर था। पिछली शताब्दियों की बौद्धिक चमक के बावजूद, इस अवधि में वे कारक परिपक्व हो गए जिनके कारण अंततः भारत में बौद्ध धर्म का पतन हुआ। इस युग को समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करना महत्वपूर्ण है:
1. राजनीतिक परिदृश्य: अनिश्चितता और परिवर्तन (Political Landscape: Uncertainty and Change)
· साम्राज्यों का पतन: गुप्त साम्राज्य के पतन (लगभग 550 CE) के बाद भारत में राजनीतिक एकता टूट गई। छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ, जिनके समर्थन का स्वरूप बदलता रहता था।
· हर्षवर्धन का अंतिम प्रमुख समर्थन: हर्षवर्धन (606-647 CE) ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया और कन्नौज में एक बड़ी सभा का आयोजन किया। हालाँकि, उनकी मृत्यु के बाद कोई केंद्रीय शक्तिशाली बौद्ध-समर्थक साम्राज्य नहीं रहा।
· नए राजवंशों की वरीयताएँ: इस अवधि में उभरने वाले अधिकांश राजवंश—जैसे पाल वंश (बंगाल, 8वीं-12वीं शताब्दी) के अपवाद को छोड़कर—जैसे पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट और प्रारंभिक प्रतिहार—अपने आधिकारिक धर्म के रूप में शैव या वैष्णव हिंदू धर्म को प्राथमिकता देते थे। उन्होंने मंदिर निर्माण और ब्राह्मणों को दान पर जोर दिया।
2. बौद्ध धर्म का संकुचन और सांप्रदायिक परिवर्तन (Contraction and Sectarian Shifts)
· भौगोलिक संकुचन: बौद्ध धर्म का प्रभाव मुख्य रूप से पूर्वी भारत (बंगाल, बिहार, ओडिशा) और कुछ दक्षिणी क्षेत्रों (जैसे नागपट्टनम) तक सीमित होता चला गया। उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में इसकी उपस्थिति कमजोर पड़ने लगी।
· वज्रयान/तांत्रिक बौद्ध धर्म का प्रभुत्व: इस काल में वज्रयान और इसके और अगले चरण कालचक्रयान का बोलबाला हो गया। इसके प्रमुख लक्षण थे:
· तांत्रिक साधनाएँ: मंत्र, मुद्रा, मंडल, और जटिल दृश्य-साधना पर बल।
· बोधिसत्वों और देवियों की विशाल मंडली: तारा, भैरव जैसे दैवीय स्वरूपों की पूजा का उदय।
· सिद्धों का युग: इसी दौर में 84 महासिद्धों (जैसे सरहपा, लुइपा, तिलोपा) की परंपरा फली-फूली, जो योगिक साधना और सीधे अनुभव पर जोर देती थी।
· महायान का ह्रास: शून्यवाद और योगाचार जैसी जटिल दार्शनिक प्रणालियों का प्रभाव कम होने लगा और वे तांत्रिक प्रथाओं में विलीन हो गईं।
3. संस्थागत शक्ति: महाविहारों का अंतिम उत्कर्ष (Institutional Strength: The Final Flourishing of Mahaviharas)
इस गिरावट के बीच एक चमकदार पहलू था महाविहारों (विश्वविद्यालयों) की निरंतर समृद्धि। ये संस्थान बौद्ध जीवन के अंतिम गढ़ बन गए।
· नालंदा महाविहार: इसकी प्रतिष्ठा चरम पर थी। 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री जुआनजांग (ह्वेनसांग) ने यहाँ अध्ययन किया और इसके भव्यता, 10,000 छात्रों और विशाल पुस्तकालय (“धर्मगंज”) का विस्तृत विवरण दिया।
· विक्रमशिला महाविहार: पाल राजा धर्मपाल (8वीं शताब्दी) द्वारा स्थापित, यह नालंदा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बन गया और विशेष रूप से तांत्रिक बौद्ध धर्म का केंद्र था।
· ओदंतपुरी और जगद्दल: पाल शासकों द्वारा स्थापित अन्य प्रमुख विहार।
· अंतर्राष्ट्रीय ख्याति: ये विश्वविद्यालय पूरे एशिया में प्रसिद्ध थे, और तिब्बत, चीन, कोरिया और दक्षिण-पूर्व एशिया से विद्यार्थी यहाँ अध्ययन के लिए आते थे।
4. बौद्ध-ब्राह्मणवाद संबंध: बढ़ता तनाव और अवशोषण (Buddhist-Brahmanical Relations: Increasing Tension and Absorption)
· दार्शनिक बहसें: बौद्ध और ब्राह्मणवादी विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ जारी रहे। कुमारिल भट्ट (8वीं शताब्दी) और आदि शंकराचार्य (लगभग 788-820 CE) जैसे हिंदू दार्शनिकों ने बौद्ध दर्शन (विशेषकर शून्यवाद) की कठोर आलोचना की और अद्वैत वेदांत का प्रचार किया। शंकराचार्य के तर्कों को बौद्ध धर्म के लिए एक गंभीर चुनौती माना जाता है।
· सामाजिक अलगाव: बौद्ध संघ अभी भी मुख्य रूप से भिक्षुओं तक केंद्रित था, जबकि हिंदू धर्म ने जनसाधारण के लिए भक्ति आंदोलन के माध्यम से एक मजबूत सामाजिक आधार विकसित कर लिया था।
· अवशोषण की प्रक्रिया: पुराणों के माध्यम से बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी। इसने बौद्ध धर्म को एक “अन्य” के बजाय हिंदू धर्म की एक शाखा के रूप में देखे जाने की मानसिकता को बढ़ावा दिया।
5. अंतर्राष्ट्रीय प्रसार: भारत से बाहर विस्तार (International Spread: Expansion Beyond India)
विडंबना यह है कि जब भारत में बौद्ध धर्म का पतन शुरू हुआ, तो उसका विस्तार अन्य देशों में अपने चरम पर था।
· तिब्बत: इसी काल में बौद्ध धर्म तिब्बत में दृढ़ता से स्थापित हुआ। पद्मसंभव (8वीं शताब्दी) जैसे भारतीय आचार्यों ने वज्रयान बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
· पूर्वी एशिया: चीन और कोरिया में बौद्ध धर्म पहले से ही फल-फूल रहा था, और भारतीय विद्वान वहाँ जाते रहे।
· दक्षिण-पूर्व एशिया: श्रीविजय साम्राज्य (सुमात्रा) और कंबोडिया के ख्मेर साम्राज्य जैसे राज्यों ने महायान और वज्रयान बौद्ध धर्म को अपनाया।
6वीं से 9वीं शताब्दी ईस्वी में भारत में बौद्ध धर्म एक विरोधाभासी स्थिति में था।
· एक ओर, यह बौद्धिक रूप से नालंदा और विक्रमशिला जैसे महान विश्वविद्यालयों में चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुका था और वज्रयान के रूप में इसने एक नवीन और गतिशील रूप विकसित किया था। इसका वैश्विक प्रभाव अभूतपूर्व था।
· दूसरी ओर, भारत में इसकी सामाजिक और राजनीतिक नींव कमजोर हो रही थी। हिंदू भक्ति आंदोलन और शक्तिशाली वेदांत दर्शन ने इसे सामान्य जनता और बौद्धिक वर्ग दोनों से दूर कर दिया।
इस प्रकार, यह काल संक्रमण का काल था, जहाँ बौद्ध धर्म ने भारत में अपनी चरम सीमा छूने के बाद एक अवरोही मार्ग पर चलना शुरू कर दिया, जबकि एक ही समय में एशिया के अन्य भागों में उसकी जड़ें मजबूत हो रही थीं। 9वीं शताब्दी के अंत तक, बौद्ध धर्म मुख्य रूप से पूर्वी भारत के महाविहारों तक सीमित एक महत्वपूर्ण लेकिन घटती हुई शक्ति बनकर रह गया था।


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