तथागत बुद्ध का दर्शन: एक विश्लेषण और बौद्ध धर्म के भारत में पतन के ऐतिहासिक कारण
प्रस्तावना: एक क्रांतिकारी दार्शनिक का उदय
भगवान बुद्ध का व्यक्तित्व मानव इतिहास में एक ऐसी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक क्रांति का प्रतीक है, जिसने जाति, यज्ञ, बलि और अंधविश्वासों में जकड़े एक समाज को समता, करुणा और विवेक का मार्ग दिखाया। उनकी शिक्षाओं ने एक ऐसे धर्म की नींव रखी, जो कर्मकांड के स्थान पर आत्म-अनुशासन, और ईश्वर के स्थान पर मानवीय विवेक को केंद्र में रखता था। किंतु यह एक ऐतिहासिक विडंबना ही है कि जिस भारत भूमि पर इस महान दर्शन ने जन्म लिया और विश्व को प्रकाशित किया, वहीं से यह धीरे-धीरे विस्थापित हो गया। यह लेख बुद्ध के मूल दर्शन की गहन पड़ताल करते हुए, भारत में बौद्ध धर्म के पतन और ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना के जटिल ऐतिहासिक कारणों का विश्लेषण प्रस्तुत करेगा।
भाग 1: बुद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत: विवेक की विजय
बुद्ध का दर्शन किसी दैवीय आदेश पर नहीं, बल्कि मानवीय अनुभव और तर्क पर आधारित है। इसकी आधारशिला निम्नलिखित सिद्धांतों पर टिकी है:
1. प्रतित्यसमुत्पाद (परस्पर निर्भर सह-उत्पत्ति):
यह बौद्ध दर्शन का हृदय है। इसका सूत्र “इसके होने से वह होता है, इसके न होने से वह नहीं होता” संसार की प्रत्येक वस्तु और घटना की अनित्यता और परस्पर निर्भरता को दर्शाता है। इस सिद्धांत ने ‘शाश्वत आत्मा’ और ‘सृष्टिकर्ता ईश्वर’ की अवधारणाओं का मूलोच्छेदन किया। यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण था, जो बताता था कि दुःख के उत्पन्न होने के कारण हैं और उन कारणों के समाप्त होने पर दुःख का भी अंत संभव है।
2. मध्यम मार्ग:
जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति का सूत्र
जीवन में हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में दुःख का अनुभव करता है और इससे मुक्ति की कामना करता है। तथागत बुद्ध ने मानव जीवन की इसी गहरी आकांक्षा को समझा और इसके समाधान के लिए “मध्यम मार्ग” की शिक्षा दी। उनका यह मार्ग संतुलन और विवेक पर आधारित है, जो हर अति से बचने की प्रेरणा देता है।
तथागत का मानना था कि जीवन में संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन को अत्यधिक कठोरता से जीता है, तो वह तनाव और असंतोष का शिकार हो सकता है। वहीं, पूर्ण निष्क्रियता या आलस्य जीवन को दिशाहीन और असफल बना देती है। दोनों ही स्थितियाँ मनुष्य के लिए हानिकारक हैं। इस संदर्भ में, बुद्ध ने वीणा के तारों का उदाहरण दिया। जैसे वीणा के तारों को बहुत अधिक कसने पर वे स्वर में नहीं आते और ढीला छोड़ने पर भी उनसे सही संगीत उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार जीवन को संतुलित रखना ही उचित है।
मध्यम मार्ग केवल एक दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि इसे दैनिक जीवन में भी लागू किया जा सकता है। यह मार्ग सिखाता है कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए न तो कठोर अनुशासन में अपनी सीमाओं को तोड़ना चाहिए और न ही निष्क्रियता में बहकर प्रयास छोड़ देना चाहिए। जीवन में जो कुछ भी करना है, उसे विवेक और संतुलन के साथ करना चाहिए।
यह संतुलन केवल भौतिक जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक विकास में भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति ध्यान का अभ्यास करता है, तो उसे अपने प्रयासों में अनुशासन बनाए रखना चाहिए, लेकिन आवश्यकता से अधिक कठोरता से अपने मन और शरीर को थकाना अनुचित होगा। इसी प्रकार, जीवन की कठिनाइयों में धैर्य और समझदारी से काम लेना मध्यम मार्ग का सार है।
तथागत की शिक्षा हमें यह भी सिखाती है कि संतुलन केवल बाहरी जीवन में ही नहीं, बल्कि हमारी आंतरिक सोच और भावनाओं में भी होना चाहिए। कठोरता से भरी आलोचना या अधिक मोह और आसक्ति, दोनों ही हमें मानसिक शांति से दूर कर देते हैं। इसलिए, यदि हम जीवन में सच्ची सुख-शांति पाना चाहते हैं, तो हमें अतिरेक से बचते हुए समता और संतुलन को अपनाना होगा।
मध्यम मार्ग हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में हार या सफलता दोनों ही स्थितियों में संतुलन बनाए रखना चाहिए। संघर्ष के समय में धैर्य और सफलता के समय में विनम्रता ही व्यक्ति को सच्चे अर्थों में महान बनाती है। यह मार्ग न केवल दुःख से मुक्ति का माध्यम है, बल्कि आत्मविकास और आत्मसंतुष्टि का आधार भी है।
अतः जो कोई भी दुःख-मुक्त जीवन की ओर बढ़ना चाहता है, उसे तथागत की इस शिक्षा को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। मध्यम मार्ग न केवल अतिरेक से बचने का मार्ग है, बल्कि एक ऐसा जीवनदर्शन है, जो हमें सच्चे सुख और शांति की ओर ले जाता है।
3. अष्टांगिक मार्ग:
यह मध्यम मार्ग का व्यावहारिक स्वरूप है। यह आठ सिद्धांतों वाला एक नैतिक और मानसिक अनुशासन का मार्ग है:
· सम्यक दृष्टि:
सम्मा दिट्ठी (पाली) आष्टांगिक मार्ग का प्रथम, प्रधान अंग है. अविद्या का विनाशसम्यक दृष्टि का अंतिम उद्देश्य है. सम्यक दृष्टि मिथ्या दृष्टि की विरोधनी है. अविद्या का अर्थ है अरिय सत्यों (Noble Truths) को न समझ पाना.
सम्यक दृष्टि का अर्थ है, कर्म–कांड की प्रभाव उत्पादकता में विश्वास न रखना और शास्त्रों कीपवित्रता की मिथ्या–धारणा से मुक्त होना.
सम्यक दृष्टि का अर्थ है, अंधविश्वास तथा अलौकिकता का त्याग करना.
सम्यक दृष्टि का अर्थ है, ऐसी सभी मिथ्या धारणाओं का त्याग करना जो कल्पनामात्र हैं और जोयथार्थ पर आधारित नहीं हैं.
सम्यक दृष्टि का न होना, सभी बुराइयों की जड़ है. सम्यक दृष्टि अन्धविश्वास तथा भ्रम से रहित यथार्थको समझने की दृष्टि है. जीवन के दुःख और सुख का सही अवलोकन, तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादितमहान सत्यों को समझाने का कार्य सम्यक दृष्टि ही करती है.
अविद्या और अंधविश्वास से मुक्ति, चार आर्य सत्यों को समझना।
· सम्यक संकल्प: कल्याणकारी और हिंसारहित इच्छाओं का निर्माण। हर आदमी के उद्देश्य, आकांक्षायें तथा महत्वाकांक्षायें होती हैं. सम्यक संकल्प यह शिक्षा देता है किहमारे उद्देश्य, आकांक्षायें तथा महत्वाकांक्षायें उच्च स्तर की हों, जनकल्याणकारी हों। जीवन मेंसंकल्पों का बहुत महत्व है. दुःख से छुटकारा पाने के लिये दृढ़ निश्चय करना सम्यक संकल्प है। दुःखके निरोध के मार्ग पर चलने के लिये उच्च तथा बुद्धियुक्त संकल्प ही सम्यक संकल्प है।
· सम्यक वाणी: सत्य, मृदु और हितकारी वचन।
सम्यक वाणी हमें सत्य बोलने, असत्य न बोलने, पर–निंदा से दूर रहने, गाली–गलौच वाली भाषा नबोलने, सभी से विनम्र वाणी बोलने की शिक्षा देती है। जीवन में वाणी की सत्यता और विनम्रताआवश्यक है। यदि वाणी में सत्यता और विनम्रता नहीं तो दुःख निर्मित होने में ज्यादा समय नहींलगता। सम्यक वाणी का व्यवहार किसी भय या पक्षपात के कारण नहीं होना चाहिये।
· सम्यक कर्मांत: अहिंसक और नैतिक व्यवहार।
दुराचार रहित शान्तिपूर्ण, निष्ठापूर्ण कर्म ही सम्यक कर्मान्त कहा जाता है। सम्यक कर्मान्त का अर्थ हैदूसरों की भावनाओं और अधिकारों का आदर करना।
· सम्यक आजीविका: न्यायपूर्ण और अहिंसक जीविकोपार्जन।
किसी भी प्राणी को आघात या हानि पहुँचाये बिना न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन सम्यक आजीव कहलाताहै।
· सम्यक व्यायाम: कुशल मानसिक प्रवृत्तियों का विकास और अकुशल का निरोध।
आत्म–प्रशिक्षण, मंगल की उत्पत्ति और अमंगल के निरोध हेतु किया गया प्रयत्न या अभ्यास सम्यकव्यायाम कहलाता है।
सम्यक व्यायाम के चार उद्देश्य हैं :
📕– अष्टांगिक मार्ग विरोधी चित्त–प्रवृत्तियों को रोकना।
📕– ऐसी चित्त–प्रवृत्तियों को दबा देना जो पहले से उत्पन्न हो गयी हों।
📕– ऐसी चित्त–प्रवृत्तियों को उत्पन्न करना जो अष्टांगिक मार्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायकहों।
📕– ऐसी चित्त–प्रवृत्तियों का विकास करना जो अष्टांगिक मार्ग पर चलाने में सहायक हों।
· सम्यक स्मृति: शरीर, मन और भावनाओं के प्रति सजगता।
सम्यक स्मृति जागरूकता और विचारशीलता का आह्वान करती है। बुरी भावनाओं के विरूद्ध चित्त द्वारानजर रखना सम्यक स्मृति का काम है। सम्यक स्मृति से चित्त में एकाग्रता का भाव आता है, जिससेशारीरिक तथा मानसिक अनावश्यक भोग–विलास की वस्तुओं को स्वयं से दूर रखने में मदद मिलतीहै। एकाग्रता से विचार और भावनाएँ स्थिर होकर शुद्ध बनी रहती हैं।
· सम्यक समाधि: चित्त की एकाग्रता द्वारा प्रज्ञा की प्राप्ति।
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि प्राप्त करने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के मार्ग में 5 बंधन याबाधायें आती हैं. ये 5 बाधायें हैं – लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा और अनिश्चय. इसलिये इनबाधायों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। इन पर विजय प्राप्त करने का मार्ग समाधि है. लेकिन, यहाँ ये समझ लो कि समाधि, सम्यक समाधि से अलग है, भिन्न है। समाधि का मतलब है चित्त कीएकाग्रता। यह एक तरह का ध्यान है जिसमें ऊपर लिखी पाँचों बाधायें अस्थाई तौर पर स्थगित रहतीहैं। खाली समाधि एक नकारात्मक स्थिति है। समाधि से मन में स्थाई परिवर्तन नहीं आता। आवश्यकता है चित्त में स्थायी परिवर्तन लाने की। स्थायी परिवर्तन सम्यक समाधि के द्वारा ही लायाजा सकता है। सम्यक समाधि एक भावात्मक वस्तु है। यह मन को कुशल कर्मों का एकाग्रता के साथचिन्तन करने का अभ्यास डालती है और कुशल ही कुशल सोचने की आदत डाल देती है। सम्यकसमाधि मन को अपेक्षित शक्ति देती है, जिससे आदमी कल्याणरत रह सके।
4. निर्वाण:
निर्वाण का अर्थ है अपनी प्रवृत्तियों पर इतना नियंत्रण रखना कि आदमी अच्छे मार्ग पर चल सके, नैतिक मार्ग पर चल सके, धम्म के मार्ग पर चल सके। निर्दोष जीवन का दूसरा नाम निर्वाण है। निर्वाणका मतलब है राग, द्वेष, मोह का समाप्त हो जाना. निर्दोष जीवन का मूल निर्वाण में है. निर्वाण हीजीवन का उद्देश्य है, निर्वाण ही जीवन का मकसद है।
लोभ बुरा है, द्वेष बुरा है। इस लोभ और इस द्वेष से मुक्ति पाने का साधन मध्यम–मार्ग है, जो आँख देनेवाला है, जो ज्ञान देने वाला है, जो हमें शान्ति, अभिज्ञा, बोधि और निर्वाण की ओर ले जाता है।
अष्टांगिक मार्ग ही मध्यम–मार्ग है। सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि, यही मध्यम–मार्ग है।
क्रोध बुरी चीज है, द्वेष बुरी चीज है, ईर्ष्या बुरी चीज है, मात्सर्य बुरी चीज है, कंजूसपन बुरी चीज है, लालच बुरी चीज है, ढ़ोंग बुरी चीज है, ठगी बुरी चीज है, उद्धतपन बुरी चीज है, मोह बुरी चीज है तथा प्रमाद बुरी चीज है। मोह तथा प्रमाद के नाश के लिये मध्यम मार्ग है, जो आँख देने वाला है, जो ज्ञान देनेवाला है, जो हमें शान्ति, अभिज्ञा, बोधि तथा निर्वाण की ओर ले जाता है।
निर्वाण अष्टांगिक मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
निर्वाण निष्कलंकता का पथ है।
सम्पूर्ण उच्छेदवाद एक अन्त है, परिनिर्वाण दूसरा अन्त है, निर्वाण मध्यम–मार्ग है।
निर्वाण से बढ़कर सुखद कुछ नहीं।
बुद्ध की सभी शिक्षाओं में निर्वाण का स्थान प्रमुख है।
आत्मा का मोक्ष निर्वाण नहीं है।
परिनिर्वाण और निर्वाण में बहुत बड़ा अन्तर है।
मृत्यु को प्राप्त होना परिनिर्वाण कहा जाता है।
निर्वाण क्या है?
धम्म में निर्वाण का प्रमुख स्थान है. निर्वाण की परिकल्पना के मूल में तीन धारणायें हैं–
(1) प्राणी का सुख आत्मा की मुक्ति से भिन्न है।
(2) संसार में जीवित रहते समय तक ही प्राणी का सुख है। आत्मा की धारणा और मरने के बाद आत्मा की मुक्ति का विचार बुद्ध के विचारों से सर्वथा अलग धारणा हैं।
(3) राग–द्वेष पर संयम रखने का अभ्यास बुद्ध के निर्वाण की परिकल्पना का मूलाधार है। राग तथा द्वेष प्रज्वलित अग्नि के समान है।
निर्वाण इसी जीवन में दिखाई देता है। राग–द्वेष का शिकार हो जाना ही आदमी को दुखी बनाता है। राग–द्वेष को संयोजन या बंधन कहा गया है, जो आदमी को निर्वाण तक नहीं पहुचने देते। ज्यों ही आदमी राग–द्वेष से मुक्त हो जाता है, वह निर्वाण को प्राप्त करना जान जाता है और उसके लिये निर्वाण–पथ खुल जाता है।
बुद्ध के निर्वाण के संबंध में लोगों की कुछ भ्रांतियां हैं।
दूसरी बात, आलोचक निर्वाण और परिनिर्वाण में भेद करना भी भूल गये हैं। जब शरीर के महाभूत बिखर जाते हैं, तब परिनिर्वाण होता है, सभी संज्ञायें रुक जाती हैं, सभी वेदनाओं का नाश हो जाता है, सभी प्रकार की प्रतिक्रियायें बन्द हो जाती हैं और चेतना चली जाती है. इस प्रकार परिनिर्वाण का अर्थहै– पूरी तरह बुझ जाना।
निर्वाण का ये अर्थ नहीं है। निर्वाण का अर्थ है अपनी भावनाओं पर पर्याप्त संयम रखना, जिससे आदमी धम्म के मार्ग पर चलने के योग्य बन सके. सदाचरणपूर्ण जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है।
निर्वाण का अर्थ है वासनाओं से मुक्ति। जीवन का लक्ष्य निर्वाण है, निर्वाण ही ध्येय है. निर्वाण का अर्थबुझ जाना नहीं है।
लोभ और द्वेष से मुक्ति पाने का साधन मध्यम मार्ग है, जो आँख देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, जो हमें शाँति, अंतर्दृष्टि, अभिज्ञा, बोधि तथा निर्वाण की ओर ले जाता है।
मध्यम मार्ग ही आष्टांगिक मार्ग है। निर्वाण आष्टांगिक मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
सम्पूर्ण उच्छेदवाद एक अन्त है, परिनिर्वाण दूसरा अन्त है. निर्वाण मध्यम मार्ग है।
जो वाणी, विचारों से संयत है, जो अपनी काया से किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता, वही निर्वाण प्राप्तकरता है।
निर्वाण का अर्थ है अपनी भावनाओं पर पर्याप्त संयम रखना, जिससे आदमी धम्म के मार्ग पर चलने केयोग्य बन सके।
भाग 2: बौद्ध धर्म का उत्थान और वैश्विक प्रसार
बुद्ध के दर्शन की तार्किकता और समावेशिता ने इसे जनसाधारण, विशेषकर शूद्रों, महिलाओं और व्यापारियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय बना दिया। इसने जाति के बंधनों को तोड़कर सामाजिक क्रांति का रूप ले लिया। महान सम्राट अशोक ने इसे राज्यधर्म घोषित किया और अपने दूतों के माध्यम से इसका प्रसार एशिया के कोने-कोने में किया। नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के केंद्र बने, जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
भाग 3: भारत में बौद्ध धर्म के पतन के कारण: ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान
बौद्ध धर्म के प्रसार से ब्राह्मणवादी सामाजिक ढाँचे और उसकी वर्णव्यवस्था को गहरा आघात लगा। इसकी प्रतिक्रिया में एक सुनियोजित और बहुआयामी प्रक्रिया द्वारा बौद्ध धर्म को हाशिए पर धकेल दिया गया। मुख्य कारण इस प्रकार हैं:
1. ब्राह्मणवादी सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान:
· गुप्त साम्राज्य का संरक्षण: गुप्त काल को ‘हिंदू पुनरुत्थान का युग’ कहा जाता है। गुप्त शासकों, जो स्वयं को ‘परमभागवत’ कहलवाते थे, ने ब्राह्मणों को भूमि अनुदान और संरक्षण दिया। यज्ञ, वर्णाश्रम धर्म और पुराणों को राजकीय संरक्षण मिला।
· बौद्ध दर्शन का समावेश एवं विरूपण: आदि शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने बौद्ध दर्शन के तार्किक ढाँचे का उपयोग करते हुए अद्वैत वेदांत का प्रचार किया, जिसने बौद्ध धर्म की लोकप्रियता को कम किया। साथ ही, बौद्ध धर्म में महायान शाखा के उदय के साथ बोधिसत्वों की पूजा शुरू हुई, जिसने इसे ब्राह्मणवादी देवी-देवताओं की पूजा के समान बना दिया और इसकी मौलिकता को धूमिल किया।
· सामाजिक एकीकरण की रणनीति: ब्राह्मणवाद ने स्थानीय देवताओं और जनजातीय देवी-देवताओं को हिंदू धर्म के ढाँचे में समेकित कर लिया, जिससे बौद्ध धर्म की लोकप्रिय आकर्षण शक्ति कम हो गई।
2. आर्थिक संकट:
· विहारों और विश्वविद्यालयों की उपेक्षा: बौद्ध संघ और विहार व्यापार मार्गों और राजकीय दान पर निर्भर थे। जैसे-जैसे गुप्तोत्तर काल में राज्यों का विखंडन हुआ, इन संस्थानों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। उन्हें पर्याप्त संरक्षण नहीं मिला।
3. मुस्लिम आक्रमणों की भूमिका: एक भ्रम और वास्तविकता
यह एक प्रचलित भ्रम है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने बौद्ध धर्म को भारत से समाप्त किया। वास्तविकता यह है कि 12वीं-13वीं शताब्दी में जब नालंदा और विक्रमशिला जैसे विहारों पर आक्रमण हुए, तब तक बौद्ध धर्म भारत में एक सीमित और हाशिए के समुदाय का धर्म बन चुका था। आक्रमणों ने उसकी शेष बची हुई संरचनाओं को नष्ट कर दिया, किंतु वे उसके पतन का प्राथमिक कारण नहीं थे। बल्कि, ब्राह्मणवादी इतिहासलेखन ने बौद्ध धर्म के अंत का पूरा दोष मुस्लिम आक्रमणकारियों पर मढ़कर वास्तविक ऐतिहासिक प्रक्रिया—यानी ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान—को ढकने का प्रयास किया है।
भाग 4: पतन के परिणाम और समकालीन प्रासंगिकता
बौद्ध धर्म के पतन के साथ ही भारत में वर्णव्यवस्था, जातिगत भेदभाव और ब्राह्मण वर्चस्व का युग पुनः स्थापित हुआ। वह समाज जो कभी बुद्ध के समता और विवेक के मार्ग पर चलता था, पुनः हज़ारों जातियों और उपजातियों में बंट गया।
आज का भारत जाति, धर्म और अंधविश्वासों के संकट से जूझ रहा है। ऐसे में बुद्ध का दर्शन अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है:
· वैज्ञानिक दृष्टिकोण: प्रतित्यसमुत्पाद का सिद्धांत आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों से मेल खाता है।
· नैतिक आधार: अष्टांगिक मार्ग एक ऐसा नैतिक ढाँचा प्रदान करता है जो बिना किसी ईश्वर या धर्मग्रंथ के, मानवीय विवेक पर आधारित है।
· सामाजिक समता: बुद्ध का दर्शन जाति, लिंग और वर्ग के आधार पर भेदभाव का विरोध करता है।
· मानसिक स्वास्थ्य: स्मृति (माइंडफुलनेस) और समाधि (ध्यान) की practices आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा भी मान्यता प्राप्त हैं।
निष्कर्ष: एक पुनर्जागरण की आवश्यकता
भारत में बौद्ध धर्म का पतन कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि एक सुनियोजित सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान का परिणाम था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बौद्ध धर्म की तार्किक और समतामूलक चुनौती का सामना करने हेतु रणनीतिक रूप से कार्य किया। आज, जब देश पुनः साम्प्रदायिकता, जातिवाद और अंधविश्वास के गहरे संकट से गुजर रहा है, बुद्ध का धम्म एक वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत करता है। यह मार्ग धर्म के नाम पर चलने वाले पाखंड का नहीं, बल्कि मानवीय करुणा, विवेक और समता का है। बुद्ध की विरासत को पुनः स्थापित करने का अर्थ है, उन झूठे आख्यानों को चुनौती देना जो सदियों से समाज को बाँटते आए हैं और एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है जो तर्क, न्याय और मानव गरिमा पर आधारित हो। बुद्ध का संदेश केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य के भारत के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाशस्तंभ है।

