संकीर्ण विचारधारा से सार्वभौमिक मानव कल्याण तक: एक वैचारिक यात्रा
प्रस्तावना
भारतीय समाज में विचारधाराओं की विविधता रही है। कुछ विचारधाराएं संपूर्ण मानवता के उत्थान की बात करती हैं, जबकि कुछ अपने सीमित दायरे तक ही सिमट जाती हैं। उदाहरण के लिए—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) जिस विचारधारा का पालन करती हैं, उसमें प्राथमिकता मुख्यतः एक खास सांस्कृतिक-धार्मिक समूह के हितों को दी जाती है। यह विचारधारा संपूर्ण समाज या सम्पूर्ण मानवता की बजाय “कुछ” के भले पर केंद्रित रहती है। प्रश्न यह है कि ऐसी सोच रखने वालों को कैसे सम्पूर्ण मानव कल्याण की राह पर प्रेरित किया जाए?
संकीर्ण बनाम सार्वभौमिक कल्याण
संकीर्ण विचारधारा:
- अपने “समूह” को सबसे ऊपर रखना।
- दूसरों को “दूसरा” मानकर हाशिये पर छोड़ देना।
- सत्ता, संसाधन और सुरक्षा की गारंटी केवल “अपने” लोगों को देना।
सार्वभौमिक कल्याण:
- सभी मनुष्यों की समान गरिमा और अधिकार।
- “अपना” और “पराया” का विभाजन मिटाना।
- यह समझना कि किसी का भी अपमान या पीड़ा अंततः पूरे समाज की पीड़ा है।
यही संघर्ष आज भारत सहित पूरी दुनिया के सामने है।
ऐतिहासिक और दार्शनिक परिप्रेक्ष्य
- बुद्ध – उन्होंने सिखाया कि दुःख सार्वभौमिक है। करुणा का अर्थ है सब जीवों के दुःख का निवारण करना।
- महात्मा गांधी – “सर्वोदय” का सिद्धांत; सबका उत्थान, विशेषकर सबसे आखिरी व्यक्ति का।
- डॉ. भीमराव आंबेडकर – “समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व” के बिना लोकतंत्र केवल खोखला ढांचा है।
- नेल्सन मंडेला – रंगभेद जैसी गहरी असमानता के बावजूद मेल-मिलाप की राह अपनाई।
ये सभी उदाहरण दिखाते हैं कि जब समाज का नेतृत्व व्यापक दृष्टि से हुआ, तभी स्थायी शांति और समृद्धि आई।
लोग संकीर्ण क्यों सोचते हैं?
- भय और असुरक्षा – “अगर सबको मिलेगा तो हमें कम पड़ जाएगा।”
- ऐतिहासिक प्रतिस्पर्धा – सत्ता और संसाधनों पर झगड़े।
- शिक्षा और सूचना का अभाव – सीमित जानकारी, अफवाहें और प्रचार।
- सामाजिक पहचान का मोह – “हम बनाम वे” की मानसिकता।
संकीर्ण विचारधारा से सार्वभौमिक कल्याण की ओर कैसे ले जाएँ?
- व्यावहारिक स्वार्थ को सार्वभौमिक स्वार्थ से जोड़ना
- दिखाना कि अगर समाज में असमानता और अन्याय है, तो कोई भी स्थायी शांति नहीं पा सकता।
- उदाहरण: आर्थिक असमानता अंततः हिंसा और अपराध को जन्म देती है, जो विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को भी प्रभावित करती है।
- नैतिक और धार्मिक अपील
- हर परंपरा में “वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसी बातें मौजूद हैं।
- RSS या BJP के समर्थकों से भी कहा जा सकता है: “आपकी अपनी परंपरा सबको परिवार मानने की बात करती है।”
- संवाद और सह-अनुभूति
- टकराव और आरोप से लोग और ज़्यादा कठोर हो जाते हैं।
- सह-अनुभूति दिखाकर, उनके डर और चिंताओं को समझते हुए बातचीत करनी चाहिए।
- शिक्षा और सूचना का विस्तार
- खुले संवाद, किताबें, कला, सिनेमा और वैकल्पिक मीडिया से “अपना-पराया” का विभाजन धीरे-धीरे टूटता है।
- संरचनात्मक सुधार
- कानून, मीडिया, शिक्षा और न्याय व्यवस्था में बहुलता (pluralism) और समानता को मजबूती से लागू करना।
- ताकि व्यक्तिगत स्तर पर भी लोग महसूस करें कि सार्वभौमिक कल्याण उनके लिए ही लाभकारी है।
चुनौतियाँ
- विचारधारा बदलना आसान नहीं है।
- संस्थागत समर्थन (सत्ता, मीडिया) अगर संकीर्णता को बढ़ावा देता है, तो व्यक्तिगत बदलाव मुश्किल हो जाता है।
- इसलिए यह कार्य एक “लंबी साधना” की तरह है। बीज बोना होगा, ताकि समय के साथ पेड़ पनपे।
निष्कर्ष
किसी भी समाज की स्थिरता और समृद्धि तभी संभव है जब वह संकीर्णता से बाहर निकलकर सम्पूर्ण मानव कल्याण को अपनाए। RSS और BJP जैसी विचारधाराओं के लोग भी बदलाव कर सकते हैं, अगर उन्हें यह दिखाया जाए कि—
- उनका अपना हित भी सबके हित से जुड़ा है।
- उनकी परंपरा भी मानवता की एकता का संदेश देती है।
- और सह-अनुभूति, शिक्षा व संरचनात्मक सुधारों के जरिए माहौल बदले।
यह आसान नहीं है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब-जब लोगों ने सार्वभौमिक दृष्टि अपनाई, तब-तब मानव समाज ने सच्ची प्रगति की।

