कार्यपालिका की ढिलाई और नागरिक का संघर्ष

भारत में ज़िले के स्तर पर डीएम को सबसे बड़ा प्रशासक माना जाता है। उसका दायित्व केवल प्रशासन चलाना ही नहीं, बल्कि जनता के अधिकारों की रक्षा करना भी है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि जब कोई व्यक्ति अपनी गाढ़ी कमाई से जमीन खरीदता है, तो वह सबसे पहले सरकार को मोटी स्टैम्प ड्यूटी देता है। यह रकम कभी-कभी जमीन की असली कीमत से भी अधिक हो जाती है। नागरिक सोचता है कि अब उसका भविष्य सुरक्षित है, क्योंकि उसके पास “कानूनी दस्तावेज़” है।

लेकिन हकीकत में जब वह अपनी जमीन पर कब्ज़ा लेने जाता है, तो उसके सपनों पर कई तरह के बादल छा जाते हैं—
• दबंगों द्वारा अवैध कब्ज़ा,
• फर्जी दस्तावेज़ों पर नए दावे,
• पुलिस की उदासीनता,
• तहसील और राजस्व विभाग की लापरवाही।

ऐसे हालात में नागरिक यह महसूस करता है कि “कानून का पालन करने वाला” ही सबसे ज्यादा पीड़ित हो जाता है। वह अपनी खरीदी हुई जमीन का आनंद लेने की बजाय, मुकदमों और दफ्तरों की दौड़ में उलझा रहता है।

न्यायपालिका पर बढ़ता बोझ

कार्यपालिका की नाकामी का सीधा असर न्यायपालिका पर पड़ता है। छोटे-छोटे विवाद जो प्रशासनिक स्तर पर सुलझ सकते थे, वे अदालत में पहुँच जाते हैं।

उदाहरण 1: सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में एक मामले (राजनीतिक भूमि विवाद) की सुनवाई करते हुए कहा था—
“यदि कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का सही ढंग से पालन करे, तो भारत की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या आधी हो सकती है।”
यह टिप्पणी स्पष्ट करती है कि न्यायपालिका पर बोझ केवल इसलिए है क्योंकि कार्यपालिका अपने स्तर पर नागरिकों को न्याय नहीं दिला पाती।

उदाहरण 2: इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कई बार प्रशासन को फटकार लगाई है कि “जब भूमि रजिस्ट्री हो चुकी है और सरकार ने स्टैम्प ड्यूटी वसूल ली है, तो नागरिक को कब्जा दिलाना भी राज्य की जिम्मेदारी है। नागरिक को बार-बार कोर्ट में भटकाना प्रशासन की नाकामी है।”

आँकड़े

भारत में 2025 तक 5 करोड़ से अधिक मुकदमे अदालतों में लंबित हैं। इनमें से बड़ी संख्या भूमि विवाद और कब्ज़े से जुड़े हैं। ज़्यादातर मामलों की शुरुआत प्रशासनिक स्तर पर समाधान न मिलने से होती है।

इस देरी का बोझ नागरिक पर पड़ता है:
• वकीलों और अदालती फीस पर लाखों रुपये खर्च होते हैं।
• सालों तक केस चलते रहते हैं, जिनमें पीढ़ियाँ खप जाती हैं।
• मानसिक और सामाजिक दबाव अलग से।

प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता

लोकतंत्र का अर्थ है तेज, सुलभ और निष्पक्ष न्याय। इसे केवल अदालतों पर छोड़ना न्याय की भावना के साथ अन्याय है। कार्यपालिका को अपने कर्तव्यों को मजबूत करना ही होगा।

केस स्टडी: महाराष्ट्र का “ई-रजिस्ट्री + कब्ज़ा” मॉडल

महाराष्ट्र सरकार ने 2022 में “ई-रजिस्ट्री” प्रणाली शुरू की। इसके अंतर्गत जब रजिस्ट्री ऑनलाइन होती है, तो जमीन की लोकेशन और स्वामित्व का डिजिटल रिकॉर्ड तुरंत सरकारी पोर्टल पर दर्ज होता है। इसके साथ ही “कब्ज़ा प्रमाण पत्र” भी जारी होता है, जो खरीदार को भविष्य के विवादों से बचाता है। इस मॉडल ने विवादों की संख्या घटाने में मदद की है।

सुधार के ठोस कदम

1. कब्ज़ा दिलाने की कानूनी गारंटी – रजिस्ट्री के साथ ही क्रेता को कब्ज़ा दिलाना राजस्व विभाग और पुलिस की जिम्मेदारी हो।
2. अधिकारियों की जवाबदेही – यदि नागरिक को कब्ज़ा न मिले और मामला अदालत जाए, तो संबंधित तहसीलदार या एसडीएम को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जाए।
3. त्वरित विवाद निवारण प्रकोष्ठ – हर जिले में भूमि विवादों के लिए फास्ट-ट्रैक प्रशासनिक सेल हो, जहां 90 दिनों में समाधान अनिवार्य हो।
4. पुलिस की सक्रिय भूमिका – कब्ज़ा दिलाने की प्रक्रिया में पुलिस का सहयोग पारदर्शी और बाध्यकारी हो।
5. तकनीकी समाधान – डिजिटल भूमि रिकार्ड, ड्रोन सर्वे और ऑनलाइन मैपिंग से फर्जी दावों पर रोक लगे।

आज नागरिक का सबसे बड़ा दर्द यही है—
“मैंने सरकार को टैक्स दिया, कानून का पालन किया, लेकिन फिर भी मुझे अपना हक़ पाने के लिए अदालतों में भटकना पड़ता है।”

यह स्थिति लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न है। यदि कार्यपालिका समय पर और ईमानदारी से अपना दायित्व निभाए, तो न केवल न्यायपालिका का बोझ घटेगा, बल्कि नागरिक का विश्वास भी बढ़ेगा।

लोकतंत्र की सच्ची कसौटी यही है कि नागरिक को अपने हक़ के लिए अदालत की धूल न फांकनी पड़े, बल्कि उसे प्रशासन से तुरंत और निष्पक्ष न्याय मिले।

नीति-सिफारिश (Policy Note)

भूमि रजिस्ट्री और कब्ज़ा विवाद: कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता

पृष्ठभूमि

• भारत में हर वर्ष लाखों लोग जमीन खरीदते हैं और सरकार को भारी-भरकम स्टैम्प ड्यूटी चुकाते हैं।
• परंतु वास्तविक कब्ज़ा दिलाने में कार्यपालिका (DM, तहसील, पुलिस) अक्सर विफल रहती है।
• नतीजतन, खरीदार को दबंगई, फर्जी दावे और प्रशासनिक उदासीनता का सामना करना पड़ता है।
• नागरिक अपने हक़ पाने की बजाय मुकदमों और अदालतों के चक्कर में फँस जाता है।

समस्या का आयाम

• भारत में 5 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं (2025 तक)।
• इनमें बड़ी संख्या भूमि और कब्ज़ा विवादों की है।
• कार्यपालिका की ढिलाई सीधे न्यायपालिका पर बोझ बढ़ाती है।
• नागरिक की तीनहरी हानि:
1. समय – सालों तक मुकदमे झेलना।
2. पैसा – वकील और अदालत खर्च।
3. मानसिक तनाव – परिवार और समाज पर नकारात्मक असर।

न्यायपालिका की टिप्पणियाँ

• सुप्रीम कोर्ट (2019): “यदि कार्यपालिका अपने दायित्व निभाए, तो अदालतों में लंबित मामलों की संख्या आधी हो सकती है।”
• इलाहाबाद हाईकोर्ट: “रजिस्ट्री के बाद कब्ज़ा दिलाना राज्य की जिम्मेदारी है, नागरिक को बार-बार कोर्ट में धकेलना प्रशासन की नाकामी है।”

नीति सिफारिशें

1. रजिस्ट्री के साथ कब्ज़ा की गारंटी
• स्टैम्प ड्यूटी वसूलने के साथ ही प्रशासन को कानूनी कब्ज़ा दिलाना बाध्यकारी हो।
2. अधिकारियों की जवाबदेही
• कब्ज़ा न दिलाने और केस अदालत जाने पर तहसीलदार/SDM को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जाए।
3. त्वरित विवाद निवारण प्रकोष्ठ
• प्रत्येक जिले में “Land Dispute Redressal Cell” हो, जहां 90 दिनों के भीतर निपटारा अनिवार्य हो।
4. पुलिस की अनिवार्य भूमिका
• जमीन कब्ज़ा दिलाने में पुलिस सहयोग बाध्यकारी हो, जिससे नागरिक दबंगई से सुरक्षित रहे।
5. डिजिटल समाधान
• ड्रोन सर्वे, GIS मैपिंग और ई-रजिस्ट्री सिस्टम से फर्जी दावों पर रोक लगे।
• महाराष्ट्र का ई-रजिस्ट्री + कब्ज़ा प्रमाणपत्र मॉडल अन्य राज्यों में लागू किया जाए।

निष्कर्ष

लोकतंत्र की सफलता का पैमाना यह है कि नागरिक को अपने अधिकार पाने के लिए अदालतों की धूल न फांकनी पड़े। कार्यपालिका की सक्रियता और जवाबदेही से:
• न्यायपालिका का बोझ घटेगा,
• नागरिक का विश्वास बढ़ेगा,
• और भूमि खरीदने की प्रक्रिया वास्तव में “सुरक्षित” और “न्यायपूर्ण” होगी।

👉 यह Policy Note एक चर्चा दस्तावेज़ (Discussion Paper) की तरह अधिकारियों, विधायकों और मीडिया पैनल में रखा जा सकता है।

Comments

  1. राजस्व विभाग पर एक सार्थक ब्सॉग जो न केवल समस्या रखता है बल्कि समाधान का तरीका भी सुझाता है।

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