👩‍👧 बेटी — पिता का साया

 

सगाई हुई तो पिता मुस्काए,

लड़का सुशील, घर भी भाए।

मन से भारी जो बोझ था उनका,

धीरे-धीरे हल्का हो जाए।

बीमारी थी, तबीयत ढली,

फिर भी निमंत्रण टाल न चले।

ससुराल बुलाया, सत्कार मिला,

मन में संतोष का दीप जले।

चाय रखी थी सामने प्याली,

शुगर के रोगी, आदत निराली।

पर कप उठाया चुपके-चुपके,

सोचा—बातें करना खाली।

पहली ही घूंट ने हैरान किया,

बिन चीनी स्वाद दिलों का दिया।

इलायची की खुशबू संग पाकर,

उन्होंने अपनापन पहचान लिया।

खाना भी घर जैसा ही था,

आराम के साधन वैसे ही था।

सौंफ का पानी जागते ही मिला,

जैसे अपना ही आश्रय मिला।

विदा की घड़ी जब पास आई,

पिता की आंखों में जिज्ञासा छाई।

कह बैठे—“तुमको कैसे खबर,

मेरी आदतों की हर परछाई?”

धीमे स्वर में सासु बोली,

“कल रात तुम्हारी बेटी ने बोली,

पापा सरल हैं, कुछ कह न पाएंगे,

बस ध्यान रखना, मन न तोली।”

पिता की आंखों से आंसू बहे,

भावनाओं के सागर गहरे।

घर लौटे तो माँ की तस्वीर से,

हार उतार कर कहे ये कहे—

“मेरा ध्यान रखने वाली माँ,

इस घर से कभी न हुई जुदा।

अब बेटी ही मेरी ममता है,

उसमें ही मिलता माँ का धरा।”

सच है! बेटी घर छोड़ जाती,

पर दिलों से नहीं हट पाती।

माँ-बाप की धड़कन में बसकर,

हर पल उनका साथ निभाती।

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