लोकतंत्र बनाम शासन मानसिकता पर एक गंभीर विमर्श (एक संस्मरण)
“साहब पहले” संस्कृति का स्थायी इलाज क्या है?
1978 के एक मामूली प्रतीत होते संस्मरण में छिपा था भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था का एक बड़ा और गहरा यथार्थ—सरकारी पद पर बैठा व्यक्ति केवल सेवक नहीं, एक साहब बन जाता है। ट्रेन देर से चले या अस्पताल देर से खुले—कारण एक ही होता है: कोई अधिकारी, कोई “साहब” आ रहे हैं। यह केवल एक व्यक्ति की देरी नहीं, बल्कि एक मानसिकता की स्थायी उपस्थिति है। इस मानसिकता का कोई तात्कालिक हल नहीं, इसका संस्थागत और वैचारिक इलाज ज़रूरी है।
1. यह समस्या क्यों है?
इसका मूल कारण सत्ता और प्रशासन की औपनिवेशिक विरासत है। अंग्रेज़ों ने भारतीय प्रशासन को “सरकारी सेवा” के रूप में नहीं, बल्कि राजकीय प्रभुत्व के यंत्र के रूप में विकसित किया था। ICS (आज का IAS) जैसे पदों का निर्माण प्रशासन नहीं, नियंत्रण के लिए हुआ था।
स्वतंत्रता के बाद भी हमने वही ढांचा, वही पद, वही सोच — सबकुछ जस का तस बनाए रखा।
लोकतंत्र आया, लेकिन शासन की आत्मा नहीं बदली।
2. यह समस्या किसके कारण है?
इसका ज़िम्मेदार केवल कोई एक पार्टी या व्यक्ति नहीं। यह एक संस्थागत और वैचारिक लापरवाही है, जिसे हम सबने — नेता, अधिकारी, नागरिक, मीडिया — किसी न किसी रूप में स्वीकार और पोषित किया है।
• नेताओं ने प्रशासनिक अधिकारियों को या तो अपनी सुविधा का उपकरण बना लिया, या उनसे डरते रहे।
• अधिकारियों ने अपने को “प्रजा के सेवक” की जगह “राज्य के अधिपति” मान लिया।
• जनता ने सवाल पूछने के बजाय “साहब” संस्कृति को आदत बना लिया — “चाय लाओ साहब आ रहे हैं” से लेकर “फाइल रुकी है क्योंकि DM साहब ने अभी तक उस पर नज़र डालने की ‘कृपा’ नहीं की है।” तक।
3. इसका स्थायी इलाज क्या हो सकता है?
(i) वैचारिक बदलाव: लोकसेवा की परिभाषा का पुनर्गठन
• स्कूल, कॉलेज, प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों में यह साफ़ सिखाया जाना चाहिए कि सरकारी नौकरी सेवा है, प्रभुत्व नहीं।
• हर लोकसेवक को यह याद दिलाया जाए कि उसका अधिकार नहीं, कर्तव्य ज्यादा बड़ा है।
(ii) संवैधानिक और कानूनी सुधार: जवाबदेही का ढांचा
• RTI (सूचना का अधिकार) जैसे कानूनों को और मज़बूत बनाना, ताकि कोई भी अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग न कर सके।
• प्रशासनिक अधिकारियों की कार्यप्रणाली की समीक्षा स्वतंत्र नागरिक आयोगों द्वारा की जाए, न कि केवल सरकार के द्वारा।
(iii) सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप: साहब संस्कृति पर व्यंग्य और विमर्श
• साहित्य, सिनेमा, सोशल मीडिया को इस मानसिकता का मज़ाक उड़ाना चाहिए — जैसे अंग्रेज़ी राज के समय “ब्राउन साहब” का व्यंग्य होता था।
• ‘साहब’ शब्द की जगह ‘जनसेवक’ को लोकप्रिय बनाना होगा — भाषा से सोच बदलती है।
(iv) तकनीकी लोकतंत्र: ई-गवर्नेंस और ऑटोमेटेड प्रक्रियाएँ
• जितना ज़्यादा काम ऑनलाइन और स्वत: हो सके, उतना कम “साहब” पर निर्भर रहना पड़ेगा।
• ट्रेनों, बसों, दफ्तरों, अस्पतालों में कोई अधिकारी हो या न हो — सेवाएँ बाधित न हों।
(v) नागरिक सशक्तिकरण और जनजागरण
• लोगों को उनके अधिकार सिखाना ज़रूरी है — ट्रेन किसके लिए है, दफ्तर किसके लिए है, सरकारी व्यवस्था किसके लिए है?
• हमें “प्रतीक्षारत प्रजा” से “सवाल करने वाली जनता” बनना होगा।
निष्कर्ष:
लोकतंत्र केवल चुनाव से नहीं बनता, बल्कि नागरिक-बोध से बनता है।
“साहब पहले” संस्कृति को खत्म करना केवल प्रशासनिक सुधार का प्रश्न नहीं, एक सांस्कृतिक क्रांति का सवाल है।
जब तक हम ‘सरकार हमारी है’ को व्यवहार में नहीं उतारेंगे, तब तक कोई भी सरकार, चाहे कितनी भी लोकलुभावन हो, “राजा-प्रजा” के खेल से बाहर नहीं आ पाएगी।
अब समय आ गया है कि हम सरकारी पदाधिकारियों से डरना बंद करें, और उन्हें जवाबदेह बनाना शुरू करें।

