छत्रपति शाहू जी महाराज: वह सम्राट जिसने चाय की चुस्की से रच डाली सामाजिक क्रांति की इबारत

भारतीय इतिहास के पन्नों में अनेक राजा-महाराजाओं के किस्से दर्ज हैं, जिन्होंने युद्ध जीते, साम्राज्य विस्तार किए और भव्य स्मारक बनवाए। किंतु एक ऐसे भी राजा हुए, जिसकी तलवार नहीं, बल्कि उसकी संवेदनशीलता और दूरदर्शी सोच ने एक ऐसी लड़ाई लड़ी, जो सदियों से चली आ रही सामाजिक विषमता के विरुद्ध थी। वह थे कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू जी महाराज। उनके लिए राजसिंहासन कोई विलासिता का साधन नहीं, बल्कि समाज में व्याप्त जकड़नों को तोड़ने का एक हथियार था। उनकी विरासत में एक ऐसी घटना विशेष रूप से दर्ज है, जो साधारण लगते हुए भी असाधारण थी – एक दलित युवक की चाय की दुकान पर चाय पीना। यह घटना महज एक राजकीय औपचारिकता नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति, एक सशक्त प्रतीक और एक ऐसी मिसाल थी, जिसने एक पूरे युग की मानसिकता को चुनौती दे डाली।

प्रस्तावना: एक दुकान और एक सपना

वह सदी का आरंभ था, जब कोल्हापुर शहर की गलियों में एक नई खबर जंगल की आग की तरह फैली। भाऊसिंहजी रोड पर स्थित ‘सत्यसुधारक’ नाम की एक साधारण-सी चाय की दुकान के बाहर एक असाधारण दृश्य उपस्थित था। कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू जी महाराज, जो महान छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज थे, अपने कुछ अधिकारियों के साथ वहाँ खड़े थे। दुकान चला रहे थे गंगाराम कांबले, एक दलित युवक। उस जमाने में जब दलितों का स्पर्श तक ‘अपवित्र’ माना जाता था, एक राजा का किसी दलित द्वारा बनाई गई चाय पीने का निर्णय क्रांतिकारी से कम नहीं था।

महाराजा ने गंगाराम से पूछा, “तुमने अपनी दुकान के बोर्ड पर अपना नाम क्यों नहीं लिखा है?” गंगाराम ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “दुकान के बाहर दुकानदार का नाम और जाति लिखना कोई ज़रूरी तो नहीं।” यह सुनकर महाराजा के चेहरे पर एक सूक्ष्म मुस्कान खेल गई। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, “ऐसा लगता है कि तुमने पूरे शहर का धर्म भ्रष्ट कर दिया है।” यह वाक्य उस समय की रूढ़िवादी सोच पर एक तीखा, मगर हल्के-फुल्के अंदाज में किया गया प्रहार था। यह घटना शाहू जी महाराज की सामाजिक इंजीनियरिंग का एक छोटा-सा लेकिन बेहद प्रभावशाली नमूना थी। वे भाषणों से नहीं, बल्कि ठोस कार्यों और प्रतीकात्मक गतिविधियों से समाज की रग-रग में बसी जातिगत भावना को बदलना चाहते थे।

शाहू जी महाराज का प्रारंभिक जीवन और सिंहासनारूढ़ होना

छत्रपति शाहू जी महाराज का जन्म 26 जून, 1874 को यशवंतराव के नाम से हुआ था। वे एक कुन्बी (कुर्मी) जागीरदार परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ तब आया जब कोल्हापुर रियासत के शासक छत्रपति शिवाजी IV की निःसंतान मृत्यु हो गई। ब्रिटिश षडयंत्र और दरबारी षड्यंत्रों के चलते उनकी मृत्यु एक रहस्य बनी रही। इसके बाद, शिवाजी IV की विधवा रानी आनंदीबाई ने मार्च 1884 में यशवंतराव को गोद ले लिया और इस तरह वे कोल्हापुर के छत्रपति बन गए।

हालाँकि, नाबालिग होने के कारण, उनकी शिक्षा-दीक्षा और प्रशासनिक अधिकार एक रीजेंसी काउंसिल के हाथों में रहे। इस दौरान, उन्होंने राजकोट के राजकुमार कॉलेज और बाद में धारवाड़ में शिक्षा प्राप्त की। इसी शिक्षा काल में उन्होंने समाज में व्याप्त विषमताओं को करीब से देखा और समझा। 2 अप्रैल, 1894 को उन्होंने पूर्ण रूप से राज्य की बागडोर संभाली और एक ऐसे शासक बने जिनके मन में प्रजा के प्रति असीम प्रेम और समाज सुधार की अदम्य ललक थी।

एक राजा का संघर्ष: जातिवाद की दीवारों से टकराहट

शाहू जी महाराज जब सिंहासन पर बैठे, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती जातिवाद की कठोर दीवार थी। कोल्हापुर का प्रशासनिक तंत्र लगभग पूरी तरह से एक विशिष्ट जाति के हाथों में केंद्रित था। 1894 के आँकड़े बताते हैं कि राज्य के 71 उच्च पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी थे। लिपिकों के 500 पदों में से मात्र 10 गैर-ब्राह्मणों के पास थे। यह एक सुनियोजित सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार था।

इस भेदभाव का सामना महाराजा को स्वयं भी करना पड़ा। एक प्रसिद्ध घटना है जब उनके अपने ही राजपुरोहित ने उन्हें यह कहकर वेद मंत्र सुनने से रोक दिया कि वे ‘शूद्र’ हैं और उन्हें मंत्र सुनने का अधिकार नहीं है। एक राजा के लिए यह अपमानजनक और आघातपूर्ण था। लेकिन शाहू जी महाराज ने इस अपमान को एक अवसर में बदल दिया। उन्होंने न केवल राजपुरोहित के पद को ब्राह्मणों के लिए आरक्षित करने की परंपरा को तोड़ा, बल्कि यह सुनिश्चित किया कि योग्यता ही नियुक्ति का एकमात्र आधार हो।

गंगाराम कांबले की पिटाई: अन्याय के विरुद्ध एक राजा का क्रोध

शाहू जी महाराज और गंगाराम कांबले की कहानी की शुरुआत एक दर्दनाक घटना से होती है। गंगाराम महाराज के महल में एक सेवक थे। एक दिन, राजमहल के भीतर बने एक तालाब के पास, एक मराठा सैनिक संताराम और कुछ ऊंची जाति के लोगों ने गंगाराम पर इस आरोप में हमला बोल दिया कि उन्होंने तालाब का पानी छूकर उसे ‘अपवित्र’ कर दिया है। गंगाराम की बुरी तरह पिटाई हुई। उस समय महाराजा कोल्हापुर से बाहर थे।

जब महाराजा लौटे, तो गंगाराम ने रोते-रोते उन्हें पूरी घटना सुनाई। यह सुनकर शाहू जी महाराज का क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया। यह केवल एक सेवक के साथ हुई मारपीट नहीं थी; यह उनकी अदालत में, उनके नाक के नीचे, उनके न्याय और संरक्षण का अपमान था। उन्होंने तत्काल संताराम को बुलवाया और स्वयं घोड़े की चाबुक से उसे दंडित किया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया। इसके बाद, उन्होंने गंगाराम से कहा, “मुझे दुख है कि मेरे राजमहल के भीतर ऐसी घटना हुई। तुम्हें अपना स्वयं का रोजगार शुरू करना चाहिए।” यह कहकर महाराजा ने गंगाराम को चाय की दुकान शुरू करने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की। यह घटना शाहू जी महाराज की न्यायप्रियता और पीड़ित के प्रति सहानुभूति का जीवंत उदाहरण है।

सत्यसुधारक’ चाय की दुकान: एक प्रतीकात्मक युद्ध का मैदान

गंगाराम कांबले ने अपनी दुकान का नाम ‘सत्यसुधारक’ रखा, जो ज्योतिबा फुले के ‘सत्यशोधक समाज’ से प्रेरित था। दुकान की सफाई और चाय के स्वाद के बावजूद, उच्च जाति के लोगों ने उसका जमकर बहिष्कार किया। वे इस बात से क्रोधित थे कि एक दलित व्यक्ति उन्हें चाय परोस रहा है।

यहीं पर शाहू जी महाराज ने अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया। उन्होंने समझा कि केवल कानून बनाने से समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी। एक ठोस, दृश्यमान और प्रतीकात्मक कदम की आवश्यकता है। और फिर वह ऐतिहासिक दिन आया जब वे स्वयं गंगाराम की दुकान पर चाय पीने पहुँचे। उनके साथ उच्च जाति के कई अधिकारी भी थे, जिन्हें महाराजा के सामने ‘ना’ कहने का साहस नहीं था। महाराजा ने न सिर्फ चाय पी, बल्कि गंगाराम से कहा, “सिर्फ चाय ही नहीं, बल्कि सोडा बनाने की मशीन भी खरीद लो,” और उसके लिए भी अतिरिक्त आर्थिक सहायता दी।

यह घटना एक सामाजिक बम का काम कर गई। महाराजा का यह कदम एक स्पष्ट संदेश था – उनके राज्य में मानवीय गरिमा जाति से ऊपर है। यह एक ऐसा संदेश था जो भाषणों और आदेशों से कहीं अधिक ताकतवर था।

क्रांतिकारी सुधार: आरक्षण के जनक का शासन

शाहू जी महाराज को भारत में आरक्षण नीति का जनक माना जाता है। 1902 में, उन्होंने एक क्रांतिकारी आदेश जारी कर कोल्हापुर रियासत की सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू की। यह देश में अपनी तरह का पहला औपचारिक आदेश था। उनका लक्ष्य स्पष्ट था: सदियों से वंचित समुदायों को शासन और प्रशासन में उचित हिस्सेदारी देना।

इस आदेश का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा। 1894 में जहाँ 71 में से 60 उच्च पद एक विशेष जाति के पास थे, वहीं 1912 तक 95 पदों में से उनकी संख्या घटकर 35 रह गई थी। इसके अलावा, उन्होंने कोल्हापुर नगरपालिका में दलितों के लिए सीटें आरक्षित कीं, जिसके परिणामस्वरूप देश में पहली बार एक दलित व्यक्ति नगरपालिका का अध्यक्ष चुना गया।

शाहू जी महाराज के सुधार केवल आरक्षण तक सीमित नहीं थे:

· शिक्षा: उन्होंने दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए अलग से विद्यालय और छात्रावास खुलवाए। उन्होंने गरीब मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियाँ प्रदान कीं।
· छुआछूत उन्मूलन: उन्होंने सार्वजनिक स्थानों, कुओं और तालाबों पर किसी भी प्रकार के छुआछूत पर कानूनी रोक लगा दी।
· सामाजिक सुधार: उन्होंने बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाया, विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया और अंतरजातीय विवाहों का समर्थन किया।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर के साथ संबंध: एक मार्गदर्शक और संरक्षक

शाहू जी महाराज और डॉ. भीमराव अम्बेडकर के बीच एक ऐतिहासिक और गहरा संबंध था। महाराजा, अम्बेडकर की प्रतिभा को पहचानने वाले पहले लोगों में से थे। जब बड़ौदा के महाराजा की छात्रवृत्ति समाप्त होने के बाद अम्बेडकर की पढ़ाई बीच में रुकने का खतरा पैदा हो गया, तो शाहू जी महाराज स्वयं मुंबई स्थित उनके आवास पर उनसे मिलने पहुँचे और आगे की शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता का आश्वासन दिया। उन्होंने अम्बेडकर के समाचार पत्र ‘मूकनायक’ के प्रकाशन में भी सहयोग किया। यह संरक्षण निस्वार्थ था; महाराजा एक ऐसे नेता को तैयार देखना चाहते थे जो उनके बाद भी सामाजिक न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ा सके।

विरोध और चुनौतियाँ: एक अकेले योद्धा का संघर्ष

शाहू जी महाराज के इन क्रांतिकारी कदमों का जबर्दस्त विरोध हुआ। रूढ़िवादी ताकतों ने उन्हें ‘ब्राह्मण-विरोधी’ करार दिया। उन पर अपनी ‘निम्न’ जाति का होने का बदला लेने के आरोप लगाए गए। उनके जीवन को खतरा तक पैदा हो गया था। लेकिन शाहू जी महाराज अडिग रहे। उन्होंने कहा था, “वे गद्दी छोड़ सकते हैं, मगर सामाजिक प्रतिबद्धता के कार्यों से वे पीछे नहीं हट सकते।” 15 अप्रैल, 1920 को नासिक में एक भाषण में उन्होंने कहा, “जातिवाद का अंत जरूरी है। जाति को समर्थन देना अपराध है। हमारे समाज की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा जाति है।”

उपसंहार: एक अमर विरासत

6 मई, 1922 को मात्र 48 वर्ष की आयु में छत्रपति शाहू जी महाराज का निधन हो गया। लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। वे ‘राजर्षि’ (राजा और ऋषि) के रूप में याद किए जाते हैं। गंगाराम कांबले की चाय की दुकान की वह घटना केवल एक किस्सा नहीं है; यह एक दर्शन है। यह सिखाती है कि सत्ता का वास्तविक उपयोग दबे-कुचले लोगों की आवाज बनना है। उन्होंने साबित किया कि सामाजिक परिवर्तन केवल कानूनों से नहीं, बल्कि मानवीय संवाद, साहसिक उदाहरण प्रस्तुत करने और हृदय परिवर्तन से लाया जा सकता है। आज जब भी हम एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की बात करते हैं, तो छत्रपति शाहू जी महाराज का जीवन और कार्य एक मशाल का काम करता है, जो हमें रास्ता दिखाता है कि सच्ची शानदारी महलों में नहीं, बल्कि आम जन के दिलों में राज करने में है।

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