बिहार चुनाव: मतदाता सूची में बदलाव और चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल

बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। आयोग, जिसे चुनाव प्रक्रिया का निष्पक्ष अंपायर माना जाता है, अब स्वयं एक “बड़े खिलाड़ी” के रूप में दिखाई दे रहा है। यह प्रश्न तब और प्रबल हो गया है जब चुनाव आयोग ने बिहार की अंतिम मतदाता सूची जारी की, जिसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं और राजनीतिक समीकरणों को बदल सकते हैं।

मतदाता सूची में आया बड़ा बदलाव

चुनाव आयोग द्वारा जारी नवीनतम सूची के अनुसार, बिहार में कुल पंजीकृत मतदाताओं की संख्या लगभग 7.41 करोड़ है। यह आँकड़ा 2024 के लोकसभा चुनावों के समय की लगभग 7.90 करोड़ मतदाताओं की संख्या से लगभग 50 लाख कम है। हैरानी की बात यह है कि 2020 के विधानसभा चुनाव (7.36 करोड़) की तुलना में महज 5 लाख मतदाता ही बढ़े हैं।

चुनाव आयोग ने शुरू में जिलेवार नए मतदाताओं (लगभग 14 लाख) के जुड़ने पर जोर दिया, जैसे पटना में 1,63,000, दरभंगा में 80,947, और मुजफ्फरपुर में 88,108। हालाँकि, गहन विश्लेषण से पता चलता है कि नए मतदाताओं से कहीं अधिक पुराने मतदाता सूची से काटे गए हैं। उदाहरण के लिए, पटना में 1.63 लाख नए मतदाता जुड़े, लेकिन साथ ही 3.95 लाख मतदाता सूची से हटाए गए। चुनाव आयोग के अनुसार, इनमें से 22 लाख लोगों का निधन हो चुका है, 35 लाख विस्थापित हो गए हैं, और 7 लाख के नाम दोहरे पंजीकृत थे।

जिलेवार कटौती का राजनीतिक प्रभाव

मतदाता सूची में हुई कटौती सभी जिलों में समान नहीं है और इसके स्पष्ट राजनीतिक निहितार्थ दिखाई दे रहे हैं। सीमांचल क्षेत्र के जिले सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं, जहाँ महागठबंधन का प्रभाव माना जाता है। पूर्वी चंपारण में 3.16 लाख, मधुबनी में 3.52 लाख, गोपालगंज में 3.10 लाख, सीतामढ़ी में 2.44 लाख, और कटिहार में 1.84 लाख मतदाता काटे गए हैं। इसी तरह, सारण में 2.73 लाख, वैशाली में 2.25 लाख, और समस्तीपुर में 2.83 लाख मतदाता सूची से बाहर हुए हैं।

इसके विपरीत, कुछ जिलों में कटौती कम हुई है, जैसे शिवहर में केवल 26,000। इस असमान कटौती ने इस आशंका को जन्म दिया है कि यह किसी विशिष्ट राजनीतिक गठबंधन को लाभ पहुँचाने की रणनीति का हिस्सा हो सकता है।

संकीर्ण अंतर और निर्णायक भूमिका

बिहार का चुनावी इतिहास बताता है कि यहाँ जीत-हार का अंतर अक्सर बहुत कम रहता है। 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को 36.2% और महागठबंधन को 35.8% वोट मिले थे, यानि मात्र 0.4% के अंतर से सरकार बनी। आरजेडी और बीजेपी जैसे प्रमुख दलों के बीच मतों का अंतर भी केवल 8-10 लाख का है। ऐसे में, 14 लाख नए मतदाताओं के जुड़ने और 50 लाख से अधिक के कटने का समग्र प्रभाव निर्णायक साबित हो सकता है। यदि कटे हुए मतदाता महागठबंधन के पक्ष में थे और नए मतदाता सत्तारूढ़ दल के पक्ष में जाते हैं, तो यह अंतर और भी बढ़ सकता है।

चुनाव आयोग की बदलती भूमिका पर सवाल

इस पूरे परिदृश्य ने चुनाव आयोग की भूमिका और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस बार चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य के अधिकारियों के बजाय 470 केंद्रीय पर्यवेक्षकों (320 आईएएस, 60 आईपीएस, 90 आईआरएस) को सौंपी गई है। इस कदम को भी एक ऐसे संदर्भ में देखा जा रहा है जहाँ मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर बदलाव किए गए हैं। आयोग द्वारा हाल ही में 474 दलों का पंजीकरण रद्द किया जाना, जिनमें बिहार की 15 पार्टियाँ शामिल हैं, भी विवादों से घिरा है।

निष्कर्ष

बिहार के चुनावी मैदान में, मतदाता सूची में हुए व्यापक बदलाव और चुनाव प्रबंधन में केंद्रीकरण ने एक नया राजनीतिक समीकरण पैदा कर दिया है। जहाँ एक तरफ चुनाव आयोग अपनी निष्पक्षता का दावा करता है, वहीं दूसरी तरफ उसके कदमों ने यह सवाल पैदा कर दिया है कि कहीं यह ‘अंपायर’ स्वयं ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ बन तो नहीं रहा। अब यह देखना होगा कि यह नया खाका बिहार की राजनीति के नतीजे को किस तरफ मोड़ता है।

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