जातिप्रेमवाद से मुक्ति: भारत की प्रगति का अनिवार्य मार्ग

 

प्रस्तावना

भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में जाति एक ऐसा गहरा और जटिल तत्व रहा है जिसने सदियों से मानवीय रिश्तों, पहचान और अवसरों को परिभाषित किया है। कभी-कभी यह पहचान इतनी प्रबल हो उठती है कि व्यक्ति की निजी योग्यता, चरित्र और उसकी संपूर्ण मानवता उसकी जातिगत पहचान के पीछे ओझल हो जाती है। इसी से उपजी एक विकृत प्रवृत्ति है – जातिप्रेमवाद। जातिप्रेमवाद का अर्थ केवल अपनी जाति से सामान्य लगाव नहीं है, बल्कि यह एक अंधी और अतार्किक श्रद्धा है, जहाँ अपनी जाति को श्रेष्ठ मानकर दूसरी जातियों के प्रति घृणा, तिरस्कार और उपेक्षा का भाव पनपता है। यह प्रवृत्ति एक गंभीर आध्यात्मिक और सामाजिक प्रश्न खड़ा करती है: क्या यह धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप है? यदि धर्म का सार सत्य, करुणा, न्याय और सर्वजन हिताय है, तो जातिप्रेमवाद उसके सीधे विपरीत खड़ा हो जाता है। इसीलिए यह कथन अत्यंत सार्थक और सत्य है कि जातिप्रेमवाद अधर्मवाद है।

धर्म का मर्म और अधर्म का स्वरूप

धर्म शब्द की व्याख्या अक्सर संकीर्ण रूप से की जाती है, जहाँ इसे मात्र अनुष्ठानों, पूजा-पद्धतियों और आडंबरों तक सीमित कर दिया जाता है। किंतु वास्तविक धर्म का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत और गहन है। धर्म वह है जो धारण करता है – व्यक्ति को, समाज को और ब्रह्मांड को। यह जीवन के नैतिक, आध्यात्मिक और आचार संबंधी सिद्धांतों का समुच्चय है। धर्म का उद्देश्य मनुष्य के आचरण को सत्य, न्याय, दया, क्षमा और सार्वभौमिक बंधुत्व की ओर उन्मुख करना है। यह वह आधारशिला है जो समाज को टूटने से बचाती है और प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है।इसके विपरीत, अधर्म वह है जो इस स्थिरता और नैतिकता को भंग करता है। अधर्म का स्वरूप विभाजन, अन्याय, हिंसा, अहंकार और संकीर्णता है। जो आचरण मनुष्य को मनुष्य से अलग करता है, समाज में खाईयाँ पैदा करता है और दुर्बलों पर अत्याचार को प्रोत्साहित करता है, वह स्पष्ट रूप से अधर्म की श्रेणी में आता है। जातिप्रेमवाद का विश्लेषण इसी कसौटी पर करना अत्यावश्यक है।

 “धर्म वह है जो सबको जोड़ता है, जातिप्रेमवाद वह है जो सबको तोड़ता है।”

जातिप्रेमवाद: परिभाषा, स्वरूप और दूरगामी प्रभाव

जातिप्रेमवाद एक ऐसी मानसिकता है जो अपनी जाति के प्रति अंधभक्ति और दूसरों की जातियों के प्रति द्वेष या उपेक्षा पर टिकी होती है। यह केवल सांस्कृतिक गर्व की सीमा लाँघकर एक विषैला अहंकार बन जाता है। इसके मुख्य लक्षण हैं:

  • श्रेष्ठता का दंभ: “मैं और मेरी जाति ही श्रेष्ठ हैं” का भाव।
  • संकीर्ण पहचान: व्यक्ति की बहुआयामी पहचान को सिकोड़कर केवल जन्म और वंश तक सीमित कर देना।
  • सामूहिक अहंकार: व्यक्तिगत उपलब्धियों को जाति की श्रेष्ठता का प्रमाण और व्यक्तिगत असफलताओं को जाति की प्रतिष्ठा पर कलंक मानना।

 “करुणा धर्म की आत्मा है, और जातिप्रेमवाद करुणा का वध।”

इस मानसिकता के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव गहरे और विनाशकारी हैं:

  1. सामाजिक विषमता और विखंडन: जातिप्रेमवाद सामाजिक समरसता के ताने-बाने को चीर देता है। यह “हम” और “वे” की भावना पैदा करके समाज को टुकड़ों में बाँट देता है, जिससे सामूहिक प्रगति अवरुद्ध होती है।
  2. भाईचारे का क्षरण: धर्म जहाँ “वसुधैव कुटुम्बकम” (सारा संसार एक परिवार है) की बात करता है, वहीं जातिप्रेमवाद रक्त के संकीर्ण बंधन में इंसानियत को कैद कर देता है, जिससे सहअस्तित्व और परस्पर सहयोग की भावना नष्ट होती है।

“जाति से ऊपर उठना ही धर्म है, जाति पर अटक जाना अधर्म।”

  1. राजनीतिक और शैक्षिक भेदभाव: यह प्रवृत्ति राजनीति में वोट बैंक के लिए जातिगत ध्रुवीकरण को जन्म देती है। शिक्षा और रोजगार जैसे मूलभूत अवसरों में भी जाति एक अवरोधक बनकर खड़ी हो जाती है, योग्यता को पीछे धकेल देती है।
  2. आर्थिक प्रगति में बाधा: जब प्रतिभा और कौशल को जाति की जंजीरों में जकड़ दिया जाता है, तो राष्ट्र की आर्थिक प्रगति अवश्यंभावी रूप से प्रभावित होती है। देश अपनी सर्वश्रेष्ठ मानवीय पूँजी का पूर्ण दोहन नहीं कर पाता।

धर्म और जातिप्रेमवाद: मूलभूत विरोध

धर्म और जातिप्रेमवाद के बीच का संघर्ष मूल सिद्धांतों का संघर्ष है। यह एक तुलनात्मक चार्ट के माध्यम से स्पष्ट होता है:

धर्म (धर्मवाद) जातिप्रेमवाद (अधर्मवाद)

समानता (सर्वे भवन्तु सुखिनः) असमानता (केवल मेरी जाति सुखी रहे)

करुणा (दूसरों के दुःख में सहभागी होना) घृणा/उपेक्षा (दूसरों के दुःख से उदासीनता)

बंधुत्व (सार्वभौमिक भाईचारा) विभाजन (अपने-पराए का भेद)

न्याय (सबके लिए निष्पक्षता) अन्याय (जन्म के आधार पर भेदभाव)

विनम्रता (सबमें एक ही दिव्य तत्व का दर्शन) अहंकार (जन्मगत श्रेष्ठता का भ्रम)

“वह प्रेम जो केवल अपनी जाति तक सीमित हो, वह प्रेम नहीं—अहंकार है।”

धर्म आत्मा की समानता में विश्वास रखता है, जबकि जातिप्रेमवाद शरीर और जन्म की बाह्य विषमताओं को ही सर्वोपरि मान लेता है। धर्म का लक्ष्य मोक्ष या आंतरिक मुक्ति है, जबकि जातिप्रेमवाद व्यक्ति को बाह्य लेबल और बंधनों में जकड़कर उसकी आध्यात्मिक यात्रा में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है। इस प्रकार, दोनों परस्पर विरोधी और असंगत हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: सुधारकों का संघर्ष

भारत के इतिहास में जातिगत अहंकार और भेदभाव के विरुद्ध एक लंबा संघर्ष रहा है। महान आध्यात्मिक और सामाजिक सुधारकों ने बार-बार इस अधर्म के विरुद्ध आवाज उठाई।

  • भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी ने जाति-पाँति के भेद को नकारते हुए करुणा और समता के मार्ग का प्रसार किया। उनका संदेश था कि मनुष्य का मूल्य उसके कर्मों से है, न कि जन्म से।

“जातिप्रेमवाद से समाज बंटता है, अधर्म बढ़ता है, और मानवता मरती है।”

  • भक्ति आंदोलन के संत जैसे कबीर, रैदास, नामदेव और मीराबाई ने जाति की कृत्रिम दीवारों को गिराने का अथक प्रयास किया। कबीर का दोहा, “जाति-पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई,” इसी सार्वभौमिकता का प्रतीक है।
  • आधुनिक युग में महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जातिप्रथा और उससे उपजे अहंकार को सामाजिक पतन और राष्ट्रीय कमजोरी का मूल कारण बताया।

इतिहास साक्षी है कि जिस समाज ने जातिप्रेमवाद को बढ़ावा दिया, वह आंतरिक कलह और बाह्य आक्रमणों का शिकार हुआ। जातिप्रेमवाद ने न तो धर्म की रक्षा की और न ही समाज की उन्नति को सुनिश्चित किया।

आधुनिक लोकतांत्रिक दृष्टि: एक संवैधानिक अपराध

भारत का संविधान, जो हमारे लोकतांत्रिक गणराज्य की आत्मा है, जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्पष्ट रूप से अवैध घोषित करता है।

  • अनुच्छेद 15 राज्य को जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है।
  • अनुच्छेद 17 ने छुआछूत की प्रथा का उन्मूलन करके इसे दंडनीय अपराध बना दिया।

(बुद्ध का भावानुवाद) – “मैं जाति नहीं, मनुष्य को देखता हूँ; धर्म वही है जो सभी के लिए समान हो।”

एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य में नागरिक की प्राथमिक पहचान उसकी जाति नहीं, बल्कि उसके अधिकारों और कर्तव्यों पर आधारित होनी चाहिए। समान अवसर, सामाजिक न्याय और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार तभी साकार हो सकता है जब जातिप्रेमवाद जैसी संकीर्ण मानसिकता पर विजय पाई जाए। इस दृष्टि से, जातिप्रेमवाद केवल एक धार्मिक अधर्म ही नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों का भी स्पष्ट उल्लंघन है।

जातिप्रेमवाद क्यों है अधर्म? पाँच मूल कारण

  1. असमानता का पोषण: धर्म समानता चाहता है, जबकि जातिप्रेमवाद जन्मजात असमानता को ही स्थायी और वैध बनाता है।
  2. अहंकार की जड़: धर्म विनम्रता और आत्म-ज्ञान की शिक्षा देता है। जातिप्रेमवाद एक ऐसे खोखले अहंकार को जन्म देता है जिसका आधार व्यक्ति के अपने कर्म नहीं, बल्कि एक सामूहिक पहचान मात्र है।
  3. बंधुत्व का नाश: धर्म का आधार सार्वभौमिक बंधुत्व है। जातिप्रेमवाद ‘अपने’ और ‘पराए’ की खाई पैदा करके इस बंधुत्व को नष्ट कर देता है।
  4. करुणा का अभाव: धर्म की आत्मा करुणा है – दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझना। जातिप्रेमवाद इस करुणा को सीमित कर देता है, जहाँ व्यक्ति केवल अपनी जाति तक के लोगों के प्रति ही संवेदनशील रह जाता है।
  5. अन्याय का समर्थन: धर्म न्याय पर टिका है। जातिप्रेमवाद ऐतिहासिक और सामाजिक अन्यायों को “परंपरा” के नाम पर उचित ठहराता है और उन्हें बनाए रखता है।

 “भारत तभी सशक्त होगा जब भारतीय जातियों से नहीं, बल्कि मानवता से पहचाने जाएँगे।”

इन सभी कारणों से, जातिप्रेमवाद को अधर्मवाद की संज्ञा देना एक सटीक और नैतिक रूप से आवश्यक निर्णय है।

समाधान की दिशा: एक जाति-मुक्त समाज की ओर

जातिप्रेमवाद की इस गहरी जड़ को उखाड़ने के लिए बहु-स्तरीय प्रयासों की आवश्यकता है:

  1. शिक्षा में क्रांति: शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है। पाठ्यक्रमों में ऐसे पाठ शामिल किए जाएँ जो बच्चों को जाति से ऊपर उठकर मानवता का पाठ पढ़ाएँ। राष्ट्रीय नायकों के रूप में बुद्ध, कबीर, फुले, अंबेडकर के विचारों को प्रमुखता से स्थान दिया जाए।
  2. सामाजिक जागरूकता और आंदोलन: सिविल सोसाइटी, मीडिया और बुद्धिजीवियों को जातिप्रेमवाद के विरुद्ध एक जनआंदोलन खड़ा करना चाहिए। अंतर्जातीय विवाहों और सामूहिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  3. कानून का सख्ती से पालन: जातिगत घृणा फैलाने वाले भाषणों और कृत्यों के विरुद्ध कानूनी प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए। पीड़ितों को त्वरित और सुलभ न्याय मिलना चाहिए।
  4. सांस्कृतिक पुनर्पाठ: धार्मिक ग्रंथों के उन अंशों पर बल दिया जाए जो समानता और करुणा का संदेश देते हैं। सिनेमा, साहित्य और कला जैसे माध्यमों से जातिविहीन समाज का सकारात्मक चित्रण हो।
  5. व्यक्तिगत आत्ममंथन: अंततः, परिवर्तन की शुरुआत स्वयं से होती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन में झाँककर देखना चाहिए कि कहीं वह जातिगत गर्व के छद्म आवरण में अधर्म का सहयोगी तो नहीं बन रहा।

उपसंहार

जातिप्रेमवाद एक छद्म गौरव है, एक ऐसा भ्रम जो व्यक्ति को उसके वास्तविक धर्म – करुणा, न्याय और बंधुत्व – से विमुख करके अधर्म के संकीर्ण दलदल में धकेल देता है। यह न केवल एक सामाजिक बुराई है बल्कि भारत की राष्ट्रीय एकता और प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। एक सशक्त, समृद्ध और सहिष्णु भारत के निर्माण के लिए जातिप्रेमवाद के इस अधर्मवाद को पहचानना और उसका त्याग करना अनिवार्य है। धर्म का वास्तविक प्रकाश तभी समाज के कोने-कोने में फैल पाएगा, जब हम जाति के नाम पर चलने वाले हर प्रकार के भेदभाव और अहंकार से मुक्त होकर, केवल और केवल मानवता को ही सर्वोच्च धर्म मानेंगे।

निष्कर्षतः, जातिप्रेमवाद अधर्मवाद है। और इस अधर्म का परित्याग ही सच्चे धर्म, सच्चे लोकतंत्र और सच्ची मानवता की स्थापना का पहला कदम है।

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