लोकतंत्र पर स्मार्ट हमला: सत्ता के तीन औजार और मताधिकार हरण
भारत में लोकतंत्र पर हमला अब मार्शल ड्रैस पहनकर नहीं, बल्कि कुर्ता-पजामा पहनकर हो रहा है। सत्ता संविधान को माथे से लगाती है, “जनता-जनार्दन” का नारा लगाती है, और उसी जनता के वोट की जमीन को खिसकाने की तैयारी करती है। यह हमला शोर मचाकर नहीं, बल्कि नीति और सुधार के नाम पर किया जा रहा है — एक स्मार्ट तानाशाही के रूप में।
लोकतंत्र की नई दुविधा
2024 के बाद बीजेपी की सबसे बड़ी दुविधा यही है कि उसे लोकतंत्र का नाम बनाए रखना है, चुनाव करवाना भी है — लेकिन जीत भी उसकी ही होनी चाहिए। यह दुविधा कुछ वैसी ही है जैसी भारत की जाति व्यवस्था में होती है:
परीक्षा भी लेनी है, मेरिट भी दिखानी है, पर चयन अपने बच्चे का ही करना है।
बीजेपी भी चाहती है कि “चुनाव हों” ताकि लोकतंत्र जीवित दिखे, लेकिन परिणाम हमेशा उसके पक्ष में रहें।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसने तीन औजार निकाले हैं —
- वन नेशन वन इलेक्शन,
- डीलिमिटेशन (सीमा पुनर्निर्धारण),
- एसआईआर (विशेष मतदाता सूची नवीनीकरण)।
21वीं सदी की ‘स्मार्ट’ तानाशाही
20वीं सदी का तानाशाह खुलकर आता था, मार्शल लॉ की घोषणा करता था।
21वीं सदी का तानाशाह मुस्कुराता है, संविधान का गुणगान करता है, और “सबका साथ, सबका विश्वास” कहते हुए ही लोकतंत्र के गले पर छुरी चला देता है।
यह सिर्फ भारत की कहानी नहीं है — तुर्की, हंगरी, श्रीलंका और अमेरिका में भी लोकतंत्र को “लोगों के नाम पर” कमजोर किया गया है।
पुतिन और शी जिनपिंग भी चुनाव करवाते हैं, लेकिन चुनाव परिणाम पहले से तय होते हैं।
भारत में यह सीधा रास्ता नहीं अपनाया जा सकता, क्योंकि यहाँ जनता को वोट देने की 70 साल की आदत है। इसलिए यहाँ ऐसे चुनाव चाहिए जो ठीक-ठाक दिखें, लेकिन जीत एक ही की सुनिश्चित रहे।
तीन औजार: देश, काल और पात्र का परिवर्तन
बीजेपी के ये तीन औजार लोकतंत्र की तीनों धुरियों को बदलने की कोशिश हैं —
काल (समय), देश (क्षेत्र), और पात्र (मतदाता)।
1. वन नेशन वन इलेक्शन — समय का परिवर्तन
इसे “प्रशासनिक सुचारुता” के नाम पर प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन असली उद्देश्य बीजेपी के चुनाव प्रबंधन को सरल बनाना है।
जो सरकार महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव एक साथ नहीं करा सकती, वह पूरे देश का चुनाव एक साथ करवाना चाहती है।
इसका अर्थ है कि हर 8-10 महीने में होने वाली राज्यीय चुनावी जवाबदेही खत्म हो जाएगी।
एक साथ चुनावों का फायदा हमेशा राष्ट्रीय पार्टी को होता है, क्योंकि लोकसभा की लहर विधानसभा तक बह जाती है — जैसा ओडिशा के चुनावों में देखा गया।
इससे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता — स्थानीय मुद्दों पर स्थानीय निर्णय का अधिकार — समाप्त हो जाएगा।
देश का सारा विमर्श केंद्र की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमेगा, और मैदान स्थायी रूप से बीजेपी के पक्ष में झुक जाएगा।
2. डीलिमिटेशन — देश/क्षेत्र का परिवर्तन
इसे जनसंख्या के आधार पर “सीटों के पुनर्वितरण” का लोकतांत्रिक कदम बताया जा रहा है, पर इसका निहितार्थ स्पष्ट है।
इससे उत्तर भारत के बीजेपी-शक्तिशाली राज्यों की लोकसभा सीटें बढ़ेंगी, जबकि दक्षिण और पूर्व के राज्यों की घटेंगी —
जैसे केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, बंगाल।
परिणामस्वरूप बीजेपी का पलड़ा आने वाले 25–40 वर्षों तक स्थायी रूप से भारी हो जाएगा।
इसमें एक और चालाकी है — जेरीमैंडरिंग।
असम में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएँ इस तरह बदली गईं कि विपक्षी वोट कुछ सीमित इलाकों में केंद्रित हो गए और बाकी सीटों पर बीजेपी की जीत सुनिश्चित हो गई।
सीमा पुनर्निर्धारण लोकतंत्र का नहीं, बल्कि चुनावी भूगोल का नियंत्रण बन गया है।
3. एसआईआर — पात्र (मतदाता) का परिवर्तन
यह केवल मतदाता सूची का सुधार नहीं, बल्कि भारत में वयस्क मताधिकार की अवधारणा को ही बदलने की कोशिश है।
पहली बार दो बुनियादी परिवर्तन किए गए:
(क) जिम्मेदारी का स्थानांतरण:
अब नाम जोड़ने की जिम्मेदारी सरकारी बीएलओ से हटाकर मतदाता पर डाल दी गई है।
अमेरिका में यही प्रणाली है, जिसके चलते लगभग 25% नागरिक वोटर लिस्ट से बाहर रह जाते हैं — मुख्यतः गरीब, प्रवासी, अश्वेत वर्ग।
बिहार में भी यही स्थिति बनने वाली थी, पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी और फर्जी फॉर्मों की शिकायत के कारण नाम कटने की प्रक्रिया रुकी।
(ख) दस्तावेजों की मनमानी:
हर मतदाता से नागरिकता के प्रमाण के रूप में दस्तावेज मांगे गए, लेकिन राशन कार्ड या आधार जैसे सामान्य दस्तावेजों को अमान्य ठहराकर
ऐसे प्रमाण मांगे गए जो आम आदमी के पास नहीं हैं (जैसे 1987 से पहले की बैंक पासबुक)।
इससे अधिकारियों को यह तय करने की असीम शक्ति मिल गई कि किसका नाम रहे और किसका कटे।
इस पूरी कवायद का निहित उद्देश्य है —
दलित, आदिवासी, पिछड़ा, प्रवासी मजदूर, गरीब और महिला मतदाता — जो बीजेपी के पक्के समर्थक नहीं हैं —
उनकी वोटर लिस्ट में हिस्सेदारी घटाना।
अगर यह वर्ग सूची से बाहर हो जाए, तो बीजेपी को सबसे ज्यादा लाभ होगा।
संकल्प का आह्वान
बिहार में एसआईआर के खिलाफ जो जन-संघर्ष हुआ, वह लोकतंत्र की चेतना का प्रमाण है।
सुप्रीम कोर्ट की निगरानी और आधार को मान्यता मिलने के कारण यह प्रक्रिया फिलहाल रुकी है, लेकिन खतरा टला नहीं है।
वन नेशन वन इलेक्शन, डीलिमिटेशन और एसआईआर — ये तीनों औजार मिलकर
लोकतंत्र के फर्श को तिरछा करने की कोशिश हैं,
ताकि सारा पानी एक ही दिशा में बहे।
यह संघर्ष केवल बिहार का नहीं, बल्कि पूरे भारत के वयस्क मताधिकार और संविधान की आत्मा को बचाने का संघर्ष है।
जिस बिहार ने एक बार देश को तोड़ने वाली रथयात्रा को रोका था,
उसी बिहार से इस नई, सुनियोजित यात्रा को रोकने का संकल्प लेना होगा।
यह संघर्ष कैलेंडर वाली “भारत माता” के लिए नहीं,
बल्कि धान की रोपाई करने वाली संतलिया देवी के मताधिकार को बचाने के लिए है —
ताकि लोकतंत्र, केवल नाम से नहीं, जीवंत अनुभव से हमारे बीच रह सके।

