सनातन शब्द का पुनर्पाठ : विशेषण से वर्चस्व तक

“सनातन धर्म” — यह शब्द आज भारतीय सार्वजनिक जीवन में न केवल धार्मिक पहचान, बल्कि एक राजनीतिक नारा भी बन चुका है। इसके नाम पर भावनाएँ भड़काई जाती हैं, और आलोचना करने वाला व्यक्ति “धर्मद्रोही” ठहरा दिया जाता है।

परंतु क्या हमने कभी ठहरकर यह सोचा कि ‘सनातन’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? क्या यह सचमुच किसी धर्म का नाम है, या यह किसी गुण, किसी स्थायी मूल्य का विशेषण मात्र है?

1. ‘सनातन’ का भाषिक और वैचारिक अर्थ

सनातन पाली भाषा का शब्द है, जिसमें ‘सनातन’ शब्द का अर्थ है — “जो सदा से है, जो नित्य है, जो कालातीत है।”

यह शब्द अपने मूल रूप में किसी धर्म, पंथ या संप्रदाय को नहीं दर्शाता, बल्कि किसी ऐसे मूल्य, सत्य या व्यवस्था को इंगित करता है जो सभी कालों में प्रासंगिक हो।

उदाहरण के लिए, हम कहते हैं —

  • “सत्य सनातन है।”
  • “धर्म का सनातन स्वरूप न्याय है।”

यहाँ ‘सनातन’ एक विशेषण है — किसी चीज़ के गुण या स्वभाव को बताने वाला शब्द।

परंतु जब इस विशेषण को कुछ लोगों ने अपने धार्मिक समुदाय की पहचान बना लिया — “सनातन धर्म” — तब एक दार्शनिक शब्द संस्थागत सत्ता का प्रतीक बन गया।

2. ‘सनातन धर्म’ : विचार से संस्था तक

‘सनातन धर्म’ का प्रयोग वैदिक ग्रंथों में बहुत सीमित है। वहाँ इसका अर्थ किसी स्थायी नैतिक व्यवस्था से था।

किन्तु मध्यकालीन और औपनिवेशिक काल में ब्राह्मणवादी समूहों ने इसे एक संस्कृति-सुरक्षात्मक पहचान के रूप में प्रचारित करना शुरू किया।

इस समय भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों — जैसे बुद्ध-आंदोलन, भक्ति आंदोलन, और बाद में फुले-आंबेडकर आंदोलन — ने वर्णव्यवस्था की नींव हिला दी थी।

इसी दौर में कुछ ब्राह्मण विद्वानों और संगठनों ने “सनातन धर्म सभा” जैसी संस्थाएँ बनाईं, जिनका उद्देश्य था –

“हिंदू समाज की प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा।”

इस प्रकार, “सनातन धर्म” एक खुली दार्शनिक अवधारणा से एक सीमित सामाजिक नियंत्रण का औजार बन गया।

3. ‘सनातन धर्म’ की आड़ में वर्णवादी सत्ता

आज जब वकील राकेश किशोर तिवारी या उनके जैसे लोग “सनातन धर्म” की रक्षा की बात करते हैं, तो उनका आशय उस सामाजिक पदानुक्रम से है जो ब्राह्मण को शीर्ष पर और शूद्र-अस्पृश्य को तल पर रखता है।

वे यह मानते हैं कि यह व्यवस्था “ईश्वरीय रूप से निर्धारित” है, अतः इसे बदलना ‘असनातन’ या ‘पाप’ है।

ऐसे विचारक चाहते हैं कि समाज संविधान या समानता के सिद्धांतों के आधार पर नहीं, बल्कि वर्णधर्म के शास्त्रों के अनुसार चले।

संविधान उनके लिए इसलिए शत्रु है क्योंकि वह “जन्म से तय विशेषाधिकार” को नकार देता है।

इसलिए वे “सनातन धर्म” के नाम पर संविधान की मूल आत्मा — समानता, स्वतंत्रता और बंधुता — को चुनौती देते हैं।

4. संविधान बनाम ‘सनातन’ की संघर्षभूमि

भारतीय संविधान का दर्शन अत्यंत स्पष्ट है —

  • किसी व्यक्ति का सम्मान जन्म से नहीं, उसके मानव होने के अधिकार से निर्धारित होता है।
  • धर्म, जाति, लिंग, भाषा या विश्वास के आधार पर किसी को भी ऊँचा-नीचा नहीं ठहराया जा सकता।

यह दर्शन बुद्ध, कबीर और आंबेडकर की परंपरा से आता है — यानी वह तर्क, न्याय और अनुभव पर आधारित है।

परंतु “सनातन धर्म” की ब्राह्मणवादी व्याख्या इस सबके विपरीत है।

वह कहती है —

“मनुष्य बराबर नहीं हो सकते; हर किसी का अपना ‘धर्म’ और ‘कर्म’ है।”

यहीं से संघर्ष शुरू होता है — संविधान एक समानता आधारित समाज बनाना चाहता है, जबकि तथाकथित “सनातन व्यवस्था” असमानता को प्राकृतिक और शाश्वत घोषित करती है।

5. ‘सनातन’ की पवित्रता का राजनीतिक उपयोग

आज “सनातन” शब्द एक धार्मिक नारे से आगे बढ़कर राजनीतिक हथियार बन चुका है।

इसका उपयोग ‘हम बनाम वे’ की रेखा खींचने के लिए किया जाता है।

जो कोई जातिवाद, पितृसत्ता या धार्मिक वर्चस्व पर प्रश्न उठाए, उसे “सनातन विरोधी” घोषित कर दिया जाता है — जैसे कि वह “भारत-विरोधी” या “धर्मद्रोही” हो।

यह एक सुनियोजित रणनीति है —

  • सनातन शब्द को ‘पवित्र’ घोषित करो,
  • उस पवित्रता की व्याख्या अपने हित में करो,
  • और हर विरोधी को ‘अपवित्र’ ठहरा दो।

इस प्रकार, भाषा के एक निर्दोष शब्द को राजनीतिक शस्त्र बना दिया गया।

6. ‘सनातन’ का वास्तविक अर्थ क्या होना चाहिए

यदि हम ‘सनातन’ का अर्थ उसके मूल दार्शनिक रूप में लें, तो वह किसी एक धर्म का नहीं, मानवता के सार्वकालिक मूल्यों का प्रतीक है।

सत्य, करुणा, न्याय, मैत्री, अहिंसा — ये सभी “सनातन” हैं क्योंकि ये समय से परे हैं।

इन मूल्यों के निकट यदि कोई आधुनिक दस्तावेज़ है, तो वह है भारतीय संविधान।

डॉ. आंबेडकर ने जब संविधान लिखा, तो उसमें समानता और न्याय को स्थायी बनाया — यानी उन्होंने “सनातन” को सामाजिक न्याय का विशेषण बना दिया, न कि जातिवादी व्यवस्था का।

7. ‘सनातन’ का पुनर्पाठ क्यों ज़रूरी है

आज के भारत में ‘सनातन’ शब्द की पुनर्व्याख्या अत्यंत आवश्यक है।

क्योंकि यदि हम इसे ब्राह्मणवादी अर्थों में स्वीकार करते रहे, तो यह शब्द असमानता का स्थायी औचित्य बन जाएगा।

पर यदि हम इसे नैतिक और मानवीय अर्थ में समझें, तो यही शब्द समानता, सह-अस्तित्व और करुणा का प्रतीक बन सकता है।

“सनातन धर्म” तब तक पवित्र नहीं हो सकता, जब तक वह मनुष्य की गरिमा को सर्वोपरि न माने।

और यही संविधान का मूल संदेश भी है —

“मनुष्य किसी व्यवस्था के लिए नहीं बना; व्यवस्था मनुष्य के लिए है।”

8. निष्कर्ष : शब्द को नहीं, उसके आशय को बचाइए

‘सनातन’ को यदि सच में बचाना है, तो उसे ब्राह्मणवाद की गिरफ्त से मुक्त करना होगा।

हमें यह याद रखना होगा कि कोई भी शब्द तब तक ‘सनातन’ नहीं होता जब तक वह समय की कसौटी पर नैतिक रूप से खरा न उतरे।

आज “सनातन” शब्द के नाम पर जो हिंसा, नफरत और भेदभाव फैलाया जा रहा है, वह स्वयं इस शब्द के अर्थ का अपमान है।

सनातन का अर्थ शाश्वत है — और शाश्वत वही हो सकता है जो न्याय, प्रेम और समानता पर आधारित हो।

इस दृष्टि से देखा जाए तो भारत का संविधान ही सबसे सनातन ग्रंथ है —

क्योंकि वह मनुष्य की गरिमा, स्वतंत्रता और समानता को अनंत बनाए रखता है।

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