न्यायपालिका पर हमला या लोकतंत्र पर प्रहार?
जूता फेंकने की घटना, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की गिरफ़्तारी और सत्ता का मौन
भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी. आर. गवई पर जूता फेंकने की घटना ने न केवल देश की न्यायपालिका को हिला दिया, बल्कि इसने शासन, राजनीति और समाज की गहरी परतें भी उजागर कर दी हैं।
प्रारंभिक प्रतिक्रिया में यह भय बना रहा कि मोदी सरकार की चुप्पी और मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपराधी को माफ कर देने के कारण मामला दबा दिया जाएगा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सरकार अपने विषाक्त समर्थक इन्फ्लुएंसर्स और ट्रोल समूहों को बचाने में लगी है, जो न्यायपालिका के विरुद्ध एक सुनियोजित दुष्प्रचार चला रहे थे।
सोशल मीडिया पर संगठित नफरत और पहली कानूनी कार्रवाइयाँ
अब यह माहौल बदलता दिखाई दे रहा है। इस घटना ने देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया उत्पन्न की है और विभिन्न राज्यों में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो चुकी है।
अब तक देशभर में 100 से अधिक एफआईआर दर्ज की जा चुकी हैं — जिनमें सबसे अधिक कार्रवाई पंजाब सरकार द्वारा की गई है।
सूत्रों के अनुसार, लगभग 28 आरोपियों के नाम सामने आए हैं और 100 से अधिक सोशल मीडिया हैंडल्स की सामग्री की जांच की जा रही है।
इनमें तीन प्रमुख नाम विशेष रूप से उभरे हैं:
- अजीत भारती — जिन पर मुख्य न्यायाधीश की कार को घेरने और ‘दलित सीजेआई पर दबाव’ बनाने का आह्वान करने का आरोप है।
- कौशलेश राय — जिन्होंने कथित तौर पर हिंसक और भड़काऊ बयान दिए, जैसे कि “किसी हिंदू वकील को सीजेआई का सिर दीवार से फोड़ देना चाहिए।”
- अनुपम सिंह (ओपीइंडिया) — जो पत्रकारिता के नाम पर हिंसा भड़काने वाली चर्चाओं में शामिल पाए गए।
इसके अतिरिक्त, ‘किक्की सिंह’ नामक एक इन्फ्लुएंसर के खिलाफ नवी मुंबई पुलिस ने एक अपमानजनक वीडियो के लिए एफआईआर दर्ज की है, जिसमें सीजेआई का चेहरा काला किया गया था।
बेंगलुरु पुलिस ने भी कई हिंसक पोस्ट्स पर कार्रवाई की है।
पंजाब सरकार की पहल और राजनीतिक संकेत
पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार ने इन इन्फ्लुएंसर्स के विरुद्ध ठोस कदम उठाए हैं।
हालाँकि, इसमें राजनीतिक गणना भी निहित है — अगले वर्ष होने वाले पंजाब विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह कार्रवाई दलित समुदाय में संदेश देने का प्रयास भी मानी जा रही है।
वहीं, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने आरोपी वकील राकेश किशोर को निष्कासित किया है, किंतु सोशल मीडिया पर उनके समर्थक उन्हें ‘हिंदू नायक’ के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह प्रवृत्ति दिखाती है कि हिंसा और नफरत के प्रति सहानुभूति का माहौल बनाना अब एक राजनीतिक औजार बन चुका है।
क्या यह न्यायपालिका को डराने की कोशिश थी?
यह प्रश्न अब और स्पष्टता से पूछा जा रहा है कि क्या यह हमला सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरी न्यायपालिका को भयभीत करने की सुनियोजित कोशिश थी?
सत्ता-समर्थक समूहों की यह रणनीति हो सकती है कि न्यायाधीश भविष्य में ऐसे फैसलों से बचें जो सरकार या उसके वैचारिक सहयोगियों के हितों के विपरीत हों।
इस परिप्रेक्ष्य में यह हमला भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक स्वतंत्रता और न्याय की स्वायत्तता पर सीधा प्रहार बन जाता है।
सरकार की चुप्पी: मौन या मौन स्वीकृति?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा नेतृत्व की लगभग पूर्ण चुप्पी इस प्रकरण की सबसे गंभीर परत है।
यह केवल प्रशासनिक मौन नहीं, बल्कि राजनीतिक संदेश भी है — कि सत्ता का झुकाव किस ओर है।
केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले के बयान को छोड़ दें, तो भाजपा के किसी वरिष्ठ नेता ने अब तक इस घटना की स्पष्ट निंदा नहीं की है।
यह मौन इस धारणा को पुष्ट करता है कि दलितों के सम्मान की बात सत्ता की शब्दावली में है, पर भावना में नहीं। उन्हें केवल एक वोट बैंक की तरह देखा जाता है।
लोकतंत्र की परीक्षा और कानून का भविष्य
विभिन्न राज्यों की पुलिस ने जो कार्रवाई शुरू की है, वह स्वागतयोग्य कदम है।
परंतु यह केवल सुर्खियाँ बटोरने तक सीमित न रह जाए, यही चुनौती है।
कानूनी प्रक्रिया को तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाना आवश्यक है, ताकि अपराधियों को दंड मिले और भविष्य के लिए एक सख्त नजीर कायम हो।
यह घटना हमें यह सोचने पर विवश करती है कि अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश तक को निशाना बनाया जा सकता है, तो सामान्य नागरिक किस कानून पर भरोसा करें?
न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा करना केवल एक संस्थागत जिम्मेदारी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के अस्तित्व का मूल दायित्व है।
निष्कर्ष: लोकतंत्र के विरुद्ध हर हमला, राष्ट्र के विरुद्ध है
जूता फेंकने की यह घटना केवल एक क्षणिक अपराध नहीं थी; यह भारत के संवैधानिक ढाँचे और न्याय की प्रतिष्ठा पर एक संगठित प्रहार था।
यदि अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को भीतर से खोखला कर देगा।
कानून के शासन का अर्थ ही यह है कि किसी की भी स्थिति, पद या विचारधारा से ऊपर — न्याय सर्वोच्च है।
और यही इस समय की सबसे बड़ी कसौटी है।

