भारत में अफगानिस्तान का कानून?

यह बहुत गम्भीर और विचारणीय प्रश्न है —

क्योंकि यह सिर्फ़ किसी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में प्रवेश रोकने का मामला नहीं है; यह भारत की संप्रभुता, लोकतंत्र और महिलाओं के सम्मान से जुड़ा प्रश्न है।

यह ‘कूटनीतिक आतिथ्य’ नहीं, ‘राष्ट्रीय अपमान’ है

अगर अफगानिस्तान के विदेश मंत्री की प्रेस कॉन्फ़्रेंस भारत की राजधानी दिल्ली में हुई और उसमें भारतीय महिला पत्रकारों को रोका गया, तो यह “अतिथि की सुविधा” का मामला नहीं रहा, बल्कि भारत की भूमि पर विदेशी सोच के प्रभाव का संकेत है।

भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है — यहाँ का संविधान हर नागरिक, चाहे वह पुरुष हो या महिला, को समान अधिकार देता है।

अब अगर किसी विदेशी प्रतिनिधि की उपस्थिति में भारत की महिला पत्रकारों को रोक दिया जाता है, तो यह न केवल संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है, बल्कि यह दर्शाता है कि सरकार ने विदेशी धार्मिक या सामाजिक मानसिकता के दबाव में झुकाव दिखाया।

भारत में अफगानिस्तान का कानून लागू नहीं हो सकता

यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि भारत में केवल भारतीय संविधान लागू होता है।

ना तालिबानी कानून यहाँ मान्य हैं, ना किसी विदेशी धर्मशासित व्यवस्था के नियम।

अगर किसी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में यह कहा गया कि “अफगान मंत्री की इच्छा है कि महिलाएँ उपस्थित न हों”, तो यह भारत की धरती पर संवैधानिक अधिकारों का अपमान है।

क्योंकि प्रेस कॉन्फ़्रेंस किसी निजी स्थान या दूतावास परिसर में नहीं, बल्कि भारत की राजधानी में आयोजित हुई — और वहाँ भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार लागू होते हैं।

प्रश्न सरकार की अनुमति और मौन पर भी उठता है

यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न यह है —

क्या भारत सरकार को इस रोक की जानकारी थी?

क्या मंत्रालय ने यह अनुमति दी कि “मंत्री की सुरक्षा या सांस्कृतिक अनुरोध” के नाम पर महिला पत्रकारों को बाहर रखा जाए?

यदि ऐसा हुआ, तो यह सीधे-सीधे भारत के लोकतांत्रिक मूल्य और लैंगिक समानता की भावना के खिलाफ है।

और यदि सरकार कहती है कि उसे इस निर्णय की जानकारी नहीं थी, तो यह और भी खतरनाक है —

क्योंकि यह दिखाता है कि भारत की धरती पर एक विदेशी मंत्री अपनी शर्तों पर मीडिया और नागरिक अधिकारों को नियंत्रित कर सका।

यह मानसिक गुलामी का संकेत है

कभी हम कहते हैं कि भारत विश्वगुरु बनने की राह पर है,

पर जब किसी विदेशी मेहमान की “महिलाओं से असुविधा” को हमारी सरकार मान लेती है, तो यह “विश्वगुरु” नहीं, बल्कि मानसिक दासता का संकेत है।

भारत ने हमेशा विश्व को सभ्यता, समानता और सम्मान का संदेश दिया है।

लेकिन इस घटना में हमने वही मानसिकता अपनाई, जो तालिबान या पुरातन पितृसत्तात्मक समाजों की पहचान है।

लोकतंत्र के लिए ख़तरे की घंटी

महिला पत्रकार को प्रेस कॉन्फ़्रेंस से रोकना केवल “महिला विरोधी” निर्णय नहीं है, बल्कि यह मीडिया की स्वतंत्रता और प्रश्न करने के अधिकार पर भी आघात है।

आज अगर सरकार किसी विदेशी मंत्री के लिए भारतीय पत्रकारों को “छांट” सकती है, तो कल अपने लिए भी ऐसा करने में देर नहीं लगेगी।

यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की नींव को खोखला करती है — क्योंकि लोकतंत्र में सवाल ही शक्ति का संतुलन बनाए रखते हैं।

असली सवाल :

अगर अफगानिस्तान का मंत्री भारत में अपने देश का तालिबानी दृष्टिकोण लागू कर सकता है,

तो क्या भारत की सरकार इतनी निर्बल है कि वह अपने संविधान के मूल मूल्य —

“समानता, स्वतंत्रता और गरिमा” — की रक्षा नहीं कर सकती?

महिला पत्रकारों की रोक केवल मीडिया की नहीं, बल्कि भारत की महिला अस्मिता पर भी चोट है।

और यह घटना हमें याद दिलाती है कि जब कोई राष्ट्र अपने मूल मूल्यों पर समझौता करने लगता है,

तो उसका लोकतंत्र कमजोर नहीं, बल्कि दिशाहीन हो जाता है।

महिला सशक्तिकरण या अवसरवाद: सरकार की दोहरी मानसिकता का प्रश्न

सरकार के हर बयान में “नारी शक्ति”, “महिला सशक्तिकरण”, “लाडली बहना”, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे नारे गूंजते हैं। लेकिन जब ये नारे सत्ता की दीवारों से टकराते हैं, तब उनकी गूंज अक्सर खो जाती है। हाल ही की दो घटनाएँ इस विडंबना को साफ़-साफ़ उजागर करती हैं — एक तरफ़ बिहार में लाखों महिलाओं के खातों में सरकार 10-10 हजार रुपये भेज रही है, दूसरी तरफ़ दिल्ली में अफग़ानिस्तान के एक मंत्री की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में भारतीय महिला पत्रकारों को प्रवेश से रोक दिया गया। सवाल ये है कि क्या यही है सरकार की महिला सशक्तिकरण की परिभाषा?

एक हाथ से देना, दूसरे हाथ से रोकना

बिहार में “लाडली बहना” और अन्य महिला सशक्तिकरण योजनाएँ सरकार की उपलब्धि के तौर पर पेश की जाती हैं। यह कहा जाता है कि सरकार महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना रही है। पर क्या मात्र आर्थिक सहायता देना ही सशक्तिकरण है? जब उसी सरकार के अधीन राजधानी दिल्ली में महिला पत्रकारों को सिर्फ़ इसलिए प्रेस कॉन्फ़्रेंस से रोका जाता है क्योंकि वहां विदेशी मंत्री हैं, तो यह सिर्फ़ एक प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि मानसिकता का आईना है।

महिलाओं को रुपये देने वाली सरकार, क्या उन्हें अपनी बात कहने, सवाल पूछने, और सार्वजनिक मंच पर उपस्थित होने का अधिकार नहीं दे सकती? जब किसी महिला पत्रकार को रोका जाता है, तो यह केवल एक व्यक्ति का अपमान नहीं होता, बल्कि यह हर उस महिला का अपमान होता है जिसने कलम को अपना हथियार बनाया है।

राजनीति का दिखावटी नारीवाद

हमारे देश में महिलाओं के नाम पर राजनीति करना नया नहीं है। “महिला सशक्तिकरण” आज सबसे आकर्षक नारा है, जिसे हर दल अपनी सुविधा के अनुसार इस्तेमाल करता है। चुनावों के समय महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए सरकारें आर्थिक प्रलोभन देती हैं — कभी नकद सहायता, कभी मुफ्त गैस सिलेंडर, कभी मुफ्त यात्रा। लेकिन जैसे ही सवाल सत्ता की आलोचना का आता है, वही महिलाएँ “असुविधाजनक”, “सुरक्षा खतरा” या “अनुशासन भंग करने वाली” कहकर किनारे कर दी जाती हैं।

ये वही अवसरवादी मानसिकता है जो महिलाओं को ‘वोट बैंक’ तो मानती है, लेकिन ‘विचारशील नागरिक’ नहीं। जो उन्हें लाभार्थी कहती है, लेकिन भागीदार नहीं बनने देती। जो उन्हें मंच पर ‘देवी’ कहकर सजाती है, लेकिन संवाद की जगह से हटाती भी वही है।

महिला सशक्तिकरण का असली अर्थ

सच्चा सशक्तिकरण वह नहीं है जो किसी खाते में दस हज़ार रुपये डाल दे। सच्चा सशक्तिकरण वह है जो किसी महिला के भीतर आत्मविश्वास डाल दे कि वह सवाल पूछ सके, अपनी राय रख सके, और सत्ता की आँखों में आँख डालकर सच्चाई कह सके।

महिला पत्रकारों को प्रेस कॉन्फ़्रेंस से रोकना इसलिए खतरनाक है क्योंकि यह उस मानसिकता को पुष्ट करता है जिसमें महिलाएँ “असुविधाजनक” मानी जाती हैं — विशेषकर तब जब वे सवाल पूछती हैं।

यह वही मानसिकता है जिसने सदियों तक महिलाओं को “गृहस्थी की सीमाओं” में बाँधे रखा, और अब “राजनैतिक मर्यादा” के नाम पर उनकी आवाज़ को दबाने की कोशिश कर रही है।

सरकार को आइना दिखाने का समय

अगर सरकार सच में महिलाओं के हित में काम कर रही है, तो उसे केवल योजनाओं और अनुदानों से आगे बढ़कर यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी महिला किसी भी मंच पर अपनी उपस्थिति और आवाज़ के लिए भेदभाव का शिकार न बने।

महिला पत्रकार को प्रेस कॉन्फ़्रेंस से रोकना सिर्फ़ एक घटना नहीं है — यह लोकतंत्र की आत्मा पर चोट है। लोकतंत्र तब जीवित रहता है जब हर नागरिक, हर महिला, हर पत्रकार बिना डर, बिना रोक-टोक के प्रश्न पूछ सके।

एक सीधा सवाल

सरकार यह तय करे कि वह महिलाओं को क्या मानती है — वोट पाने का माध्यम, आर्थिक अनुदान का पात्र, या स्वतंत्र नागरिक जो बराबरी से सोचती, बोलती और प्रश्न पूछती है।

बिहार की महिलाओं को 10-10 हज़ार रुपये देना अच्छा कदम हो सकता है, पर दिल्ली में महिला पत्रकारों को रोकना उसी कदम पर कालिख पोत देता है।

क्या यह महिला हितैशी मानसिकता है?

नहीं — यह अवसरवादी मानसिकता है, जो सशक्तिकरण की भाषा बोलती है, लेकिन भीतर से भयभीत है महिलाओं की स्वतंत्र सोच से।

और जब कोई सत्ता महिलाओं की सोच से डरने लगे, तो समझिए — समाज बदलने की शुरुआत हो चुकी है।

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