अर्थव्यवस्था का संकट: उत्पादकता बनाम सट्टेबाजी
(vicharvani.com संपादकीय संस्करण)
भारत की अर्थव्यवस्था आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। एक ओर बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, और उद्योगों के बंद होने की चिंताएँ हैं; दूसरी ओर शेयर बाज़ार, रियल एस्टेट और कीमती धातुओं के दाम रिकॉर्ड ऊँचाइयों पर पहुँच चुके हैं।
यह विरोधाभास संकेत देता है कि विकास का प्रवाह वास्तविक उत्पादन से हटकर काल्पनिक पूँजी-संचय की दिशा में चला गया है।
अर्थात, धन अब श्रम को नहीं, बल्कि सट्टे को पोषित कर रहा है।
1. चांदी का संकट: एक प्रतीकात्मक झरोखा
धनतेरस के आसपास चांदी की कीमतों में अचानक 200% की वृद्धि केवल बाज़ार की बात नहीं, बल्कि एक गहरे आर्थिक असंतुलन का संकेत है। सामान्य वर्षों में जहाँ चांदी की लीज़ दर 1% होती है, वहीं इस बार यह 30% तक पहुँच गई — यानी लोग किसी भी कीमत पर चांदी खरीदने को तैयार हैं।
यह व्यवहार केवल चांदी तक सीमित नहीं है। यही प्रवृत्ति रियल एस्टेट और शेयर बाज़ार में भी दिखती है, जहाँ किसी फ्लैट या शेयर की वास्तविक कीमत ₹10 होते हुए भी वह ₹40 या ₹50 तक बेचा जा रहा है — इस उम्मीद पर कि “कीमतें बढ़ेंगी”।
वास्तविक उत्पादन से अलग यह मूल्यांकन “सट्टेबाजी का बुलबुला” है — एक ऐसा बुलबुला जो अर्थव्यवस्था की रीढ़ को खोखला कर रहा है। यहाँ मूल्य का निर्धारण उत्पादन की वास्तविकता से नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक अपेक्षा से होता है।
2. उत्पादक बनाम सट्टेबाजी निवेश: फर्क जो दिशा तय करता है
उत्पादक निवेश वह है जो किसी फैक्टरी, स्टार्टअप या MSME में लगाया जाए — जहाँ रोजगार बनते हैं, आय बढ़ती है, और मांग उत्पन्न होती है।
इसके विपरीत, सट्टेबाजी निवेश वह है जहाँ धन केवल मूल्य वृद्धि की उम्मीद में लगाया जाता है — जैसे शेयर, सोना, या रियल एस्टेट में। यह न तो उत्पादन करता है, न ही रोज़गार; केवल एक वर्ग से दूसरे वर्ग में संपत्ति का हस्तांतरण करता है।
आज भारत की अर्थव्यवस्था में पूंजी का प्रवाह सृजन के बजाय सट्टे की दिशा में है।
परिणामस्वरूप, आर्थिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा वास्तविक उत्पादन से कटकर आभासी वित्तीय परिसंपत्तियों में फँस गया है।
3. संकट की जड़ें: जब बैंक भी सट्टेबाज बन जाएँ
(क) बैंकों की भूमिका में परिवर्तन
पहले बैंक अर्थव्यवस्था की नाड़ी हुआ करते थे — वे उद्योग, कृषि और उद्यम को पूँजी देते थे।
आज वही बैंक अपने धन को ट्रेजरी ऑपरेशनों (शेयर और बॉन्ड ट्रेडिंग) में लगा रहे हैं।
FY 2025 की पहली तिमाही में बैंकों ने ट्रेजरी से ₹60,000 करोड़ का लाभ कमाया — पर यह लाभ उस किसान, उद्यमी और नौजवान के नुकसान पर टिका है, जो ऋण के अभाव में उत्पादन शुरू ही नहीं कर पा रहा।
जब बैंक स्वयं सट्टेबाज बन जाएँ, तो पूंजी का नैतिक वितरण असंभव हो जाता है।
(ख) MSMEs के साथ भेदभाव
भारत में MSMEs कुल रोजगार का लगभग 45% और GDP का 30% योगदान देते हैं।
फिर भी, संस्थागत ऋण पाने में केवल 12-14% MSMEs ही सफल हो पाते हैं।
जहाँ बड़े कॉर्पोरेट्स को 8-12% ब्याज दर पर ऋण मिलता है, वहीं लघु उद्योगों को 30-60% तक ब्याज देना पड़ता है।
ऐसी विषमता पूंजी को बड़े कॉर्पोरेट्स के पास केंद्रित करती है, और छोटे उद्योग धीरे-धीरे दम तोड़ते हैं।
वित्तीय वर्ष 2025 में 31,978 MSMEs के बंद होने का आँकड़ा इसका जीवंत प्रमाण है — जो पिछले वर्ष से 61% अधिक है।
(ग) नीतिगत अस्थिरता और जोखिम
GST, आयकर कानूनों और नियामक नीतियों में लगातार परिवर्तन, भ्रष्टाचार और अनिश्चितता ने उद्यमी के आत्मविश्वास को तोड़ा है।
एक फैक्टरी लगाने में पाँच वर्ष लगते हैं और परिणाम अनिश्चित रहते हैं, जबकि शेयर बाजार या सोना खरीदने से छह महीने में 50% मुनाफा मिल सकता है।
यह तर्कसंगतता नहीं, बल्कि मजबूरी है — जब नीतियाँ उत्पादन को दंडित और सट्टे को पुरस्कृत करें।
4. परिणाम: एक असंतुलित अर्थव्यवस्था का चेहरा
भारत की राष्ट्रीय बेरोजगारी दर 5.2% बताई जाती है, पर युवाओं में यह 16.3% और स्नातकों में 44.5% तक पहुँच चुकी है।
हर साल लगभग 50 लाख नौकरियों का अभाव है।
मांग का संकट इतना गहरा है कि महँगी कारें बिक रही हैं, पर सस्ती मोटरसाइकिल और आवश्यक वस्तुओं की बिक्री घट रही है।
Hindustan Lever जैसी कंपनियाँ भी ग्रामीण बाजारों में गिरती माँग को लेकर चिंतित हैं।
रुपया कमजोर है, पर निर्यात नहीं बढ़ रहा — क्योंकि अर्थव्यवस्था उत्पादन से अधिक आयात और सट्टे पर निर्भर हो गई है।
यह वही स्थिति है जब संपत्ति का संचय होता है, पर समृद्धि नहीं।
5. समाधान: पूंजी का पुनःदिशानिर्देशन
यह संकट स्वतः समाप्त नहीं होगा। इसके लिए सरकार, RBI और SEBI को मिलकर पूंजी के नैतिक उपयोग की नीति बनानी होगी।
1. उत्पादक निवेश को आकर्षक बनाना:
व्यवसाय करने में आसानी, स्थिर कर ढाँचा और दीर्घकालिक प्रोत्साहन देने होंगे ताकि उद्योग और कृषि पुनः लाभकारी बनें।
2. सट्टेबाजी पर नियंत्रण:
रियल एस्टेट और कमोडिटी बाज़ारों में अत्यधिक सट्टेबाजी पर निगरानी और कर-नीति के माध्यम से अंकुश लगाया जाए।
3. MSMEs के लिए ऋण प्रवाह सुनिश्चित करना:
बैंकों को अनिवार्य रूप से एक निश्चित प्रतिशत ऋण लघु उद्योगों को देना हो, और ब्याज दरों का अंतर घटाया जाए।
4. धन के बहिर्प्रवाह पर नियंत्रण:
विदेशी निवेश में पारदर्शिता और देश की पूँजी को देश के उत्पादन में लगाने के लिए नीतिगत प्रोत्साहन आवश्यक है।
6. निष्कर्ष: उत्पादन ही विकास का आधार है
भारत को अब यह तय करना होगा कि वह “वित्तीय वृद्धि” को विकास मानेगा या “उत्पादक सशक्तिकरण” को।
GDP के आँकड़े चमक सकते हैं, लेकिन यदि गाँव का कारीगर, शहर का युवा और महिला उद्यमी उत्पादन में शामिल नहीं हैं, तो यह विकास केवल ऊपरी आभा है।
जब तक पूँजी का प्रवाह सट्टेबाजी से हटकर श्रम और उत्पादन की ओर नहीं मोड़ा जाता, तब तक यह आर्थिक मंदी और असमानता का चक्र जारी रहेगा।
राष्ट्र की समृद्धि तभी संभव है जब धन का संचार ऊपर से नीचे नहीं, बल्कि नीचे से ऊपर — जनता के श्रम और उत्पादन के माध्यम से — प्रवाहित हो।

