“प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश” के नाम पर सरेआम एनकाउंटर और हत्याएँ
लोकतंत्र की सबसे खतरनाक चुप्पी
जब किसी देश में “प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश” जैसी ख़बर सामने आती है, तो स्वाभाविक रूप से समाज में भय, रोष और संवेदनशीलता का माहौल बनता है। लेकिन जब ऐसी खबरों के तुरंत बाद पुलिस द्वारा कथित साजिशकर्ताओं का “एनकाउंटर” कर दिया जाता है — बिना किसी मुकदमे, बिना किसी सबूत की सार्वजनिक जाँच के — तब सवाल केवल “साजिश” का नहीं रह जाता, बल्कि राज्य के चरित्र का बन जाता है।
क्या हम एक ऐसे लोकतंत्र में रह रहे हैं जहाँ न्याय प्रक्रिया की जगह अब राजनीतिक कथानक (narrative) और पुलिस की गोलियाँ तय करेंगी कि कौन दोषी है और कौन निर्दोष?
“साजिश” का नैरेटिव: भय से वैधता पैदा करने की राजनीति
प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश जैसी घटनाएँ सिर्फ़ कानून-व्यवस्था का विषय नहीं होतीं; वे सत्ता के लिए नैतिक वैधता (moral legitimacy) का हथियार भी बन जाती हैं। जब राज्य कहता है कि “हम पर हमला होने वाला था,” तो वह खुद को “रक्षा की मुद्रा” में पेश करता है, और ऐसी मुद्रा में जनता का विरोध करना लगभग “देशद्रोह” जैसा बना दिया जाता है।
इस तरह “सुरक्षा” का विमर्श “जवाबदेही” को निगल जाता है। सत्ता आलोचना से ऊपर उठ जाती है, और पुलिस या खुफिया एजेंसियाँ बिना किसी पारदर्शिता के, किसी भी व्यक्ति को साजिशकर्ता घोषित कर सकती हैं। यही वह बिंदु है जहाँ लोकतंत्र धीरे-धीरे पुलिस-राज में बदलने लगता है।
एनकाउंटर: न्याय का नहीं, भय का उपकरण
एनकाउंटर भारतीय पुलिस संस्कृति का पुराना उपकरण रहा है। लेकिन इसे अब “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर वैधानिक आभा दी जा रही है। जब कोई आरोपी न्यायालय तक पहुँचने से पहले ही मारा जाता है, तो समाज यह मानने लगता है कि “शायद वह सच में अपराधी था।” यह मान्यता लोकतंत्र की मृत्यु का पहला संकेत है।
न्याय का मूल सिद्धांत यह है कि दोष सिद्ध होने तक हर व्यक्ति निर्दोष है। एनकाउंटर इस सिद्धांत को उलट देता है — दोष सिद्ध होने से पहले ही सजा दे देता है।
और जब यह सजा “प्रधानमंत्री की सुरक्षा” जैसे भावनात्मक मुद्दे से जुड़ी हो, तो कोई भी संस्था — चाहे वह मीडिया हो या न्यायपालिका — सवाल उठाने का साहस नहीं करती।
मीडिया और जनमानस: भावनात्मक ब्लैकमेल की भूमिका
हमारा मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, ऐसे मामलों में अक्सर पुलिस का प्रवक्ता बन जाता है। “प्रधानमंत्री पर हमला टला” जैसी सनसनीखेज हेडलाइनें जनता को यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि कोई बड़ी साजिश सचमुच थी।
किंतु कोई यह नहीं पूछता कि –
• उस साजिश का सबूत कहाँ है?
• मारे गए लोगों के बयान, डिजिटल डेटा, या फोन रिकॉर्ड क्यों सार्वजनिक नहीं किए गए?
• क्या उन्हें अदालत में पेश किया गया था?
मीडिया का यह एकतरफा रुख केवल सत्ता की सुविधा बढ़ाता है, जनता की समझ नहीं। लोकतंत्र में जनता का डर जितना बढ़ता है, सत्ता उतनी ही निरंकुश होती जाती है।
राज्य की हिंसा और नागरिक का असुरक्षित अस्तित्व
किसी भी सभ्य समाज में हिंसा पर राज्य का एकाधिकार (monopoly of violence) इसलिए होता है ताकि वह हिंसा को सीमित कर सके, न कि उसका मनमाना प्रयोग करे।
जब राज्य ही हिंसा को “देशभक्ति” या “सुरक्षा” के नाम पर वैध बना देता है, तब नागरिक और अपराधी के बीच का अंतर मिट जाता है।
आज जिन पर “साजिशकर्ता” होने का ठप्पा लगाया जा रहा है, कल वे किसी अन्य राजनीतिक या वैचारिक समूह के लोग भी हो सकते हैं।
यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो संविधान की जगह “भय” शासन करेगा — और भय किसी भी समाज का सबसे स्थायी तानाशाह होता है।
न्यायपालिका की चुप्पी: संवैधानिक संकट का संकेत
इन एनकाउंटरों पर न्यायपालिका का मौन रहना केवल लापरवाही नहीं, बल्कि एक गहरा संस्थागत संकट है।
जब अदालतें कहती हैं — “हम पुलिस के आचरण में हस्तक्षेप नहीं कर सकते” — तो वे अनजाने में पुलिस को संविधान से ऊपर रख देती हैं।
ऐसे में लोकतंत्र केवल चुनावों तक सिमट जाता है; न्याय, स्वतंत्रता और समानता केवल किताबों में रह जाते हैं।
निष्कर्ष: भय से नहीं, कानून से संचालित राष्ट्र
प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश चाहे कितनी भी गंभीर क्यों न हो, उसका समाधान गोलियों से नहीं, न्यायालयों से होना चाहिए।
राज्य की नैतिकता इस बात से तय होती है कि वह अपने सबसे घृणित अपराधियों के साथ भी कितना न्यायपूर्ण व्यवहार करता है।
यदि हम “राष्ट्र की सुरक्षा” के नाम पर कानून की प्रक्रिया को ही खत्म कर देंगे, तो न तो प्रधानमंत्री सुरक्षित रहेंगे, न ही लोकतंत्र।
क्योंकि लोकतंत्र का असली कवच सुरक्षा बल नहीं — कानूनी प्रक्रिया की पवित्रता है।
“कानून की हत्या से किसी प्रधानमंत्री की हत्या टल भी जाए, तो भी राष्ट्र की आत्मा मर जाती है।”

