सर्वोच्च न्यायालय में CJI पर जूता फेंकने की घटना: एक गंभीर चिंतन का क्षण
देश के इतिहास में यह शायद पहली बार है जब सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) पर एक वकील द्वारा जूता फेंकने की घटना हुई। यह घटना अभूतपूर्व और अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। सोशल मीडिया पर इसके बाद के प्रतिक्रियाओं और चर्चाओं ने एक गहन सार्वजनिक बहस को जन्म दिया है। जूता फेंकने वाले वकील ने जो नारे लगाए, उनसे प्रतीत होता है कि उसका यह विरोध ‘हिंदुत्व’ और ‘सनातन’ से जुड़े मुद्दों को लेकर था। यह घटना एक गंभीर प्रश्न खड़ा करती है: जब देश की शीर्ष अदालत में बैठा वकील ही मुख्य न्यायाधीश पर इस तरह की कार्रवाई करने का दुस्साहस करे, तो देश की दिशा और न्यायिक व्यवस्था की स्थिति के बारे में क्या समझा जाए?
कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न और ‘ठेकेदारी’ की संस्कृति
यह घटना एक बुरे दौर की शुरुआत का संकेत देती है। जिस प्रकार सड़कों पर कथित ‘गौ रक्षक’ स्वयंभू भूमिका में हिंसा करते रहे हैं, उसी तरह का रवैया अब सर्वोच्च न्यायालय तक में देखने को मिला। एक वकील ने ‘सनातन की रक्षा’ के नाम पर मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने का प्रयास किया। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि किसने इन्हें यह अधिकार दिया कि कोई गौ रक्षा का और कोई सनातन धर्म का ठेकेदार बन बैठे? यह घटना अलग-थलग नहीं है, बल्कि लगातार बन रहे एक विषैले माहौल की परिणति है।
न्यायपालिका के समक्ष गहन आत्ममंथन का समय
इस घटना के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय का मुखिया अपनी ही अदालत में सुरक्षित नहीं है, तो आम आदमी का कानून-व्यवस्था में विश्वास कैसे बचेगा? इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ वह वकील या उसकी भावनाएं नहीं हैं, बल्कि न्यायपालिका की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। पिछले कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय पर बड़े-बड़े सवाल उठे हैं। आरोप लगते रहे हैं कि न्यायपालिका का राजनीतिकरण हुआ है, कुछ न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद की व्यवस्थाओं या अपनी अगली पीढ़ी को स्थापित करने में लगे हैं। जब जनता के बीच ऐसे आरोप लगेंगे, तो आक्रोश पनपना स्वाभाविक है। विरोध का यह तरीका निंदनीय है, परंतु न्यायपालिका के लिए यह आत्ममंथन का क्षण है।
न्यायिक आचरण और जनता के बीच बढ़ती खाई
न्यायपालिका समाज का ही एक अंग है और उस पर समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों की गिरावट का असर पड़ता ही है। लेकिन चिंता तब और बढ़ जाती है जब एक ओर रायबरेली में एक दलित युवक की सड़क पर पिटाई होती है और दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय के मुखिया पर हमला होता है। इससे न्यायिक व्यवस्था को क्या संदेश जाता है? क्या यह समय नहीं आ गया है कि न्यायपालिका अपने आचरण पर गंभीरता से विचार करे? केवल यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि “मैं इससे प्रभावित नहीं होता, आप काम जारी रखें।” घटनाक्रम लगातार बता रहा है कि जिस ‘ज़ॉम्बी’ जैसी भीड़ को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, वह अब किसी को नहीं बख्शेगी।
चयन प्रक्रिया और न्यायिक निर्णयों पर उठते सवाल
न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल तब और गहराते हैं जब न्यायाधीशों के चयन और उनके निर्णयों में पारदर्शिता और एकरूपता का अभाव दिखाई देता है। एक तरफ कुछ मामलों में तुरंत सुनवाई होती है और रातों-रात जमानत मिल जाती है, वहीं दूसरी ओर बिलकिस बानो जैसे संवेदनशील मामले सालों तक लटके रहते हैं। जब देश में इस तरह की असमानता दिखेगी, तो जनता में नाराजगी और आक्रोश का पनपना स्वाभाविक है। न्यायपालिका को यह सोचना होगा कि वह मैकेनिकल फैसले दे रही है या न्याय कर रही है।
जूसा फेंकने वाले वकील का नाम शशिधर दत्तात्रेय चिंचालकर बताया जा रहा है। उन्होंने 10 जनवरी 2025 को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ पर कोर्टरूम में जूता फेंकने का प्रयास किया था।
इस घटना के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनके खिलाफ मामला दर्ज किया गया। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, चिंचालकर ने यह कार्यवाही “हिंदुत्व और सनातन” के नाम पर विरोध जताने के लिए की।
निष्कर्ष: एक अलार्म बेल के रूप में घटना
आज की यह घटना एक अलार्म बेल है, एक चेतावनी है। यह देश के पूरे तंत्र के लिए एक चुनौती है। न्यायपालिका के लिए यह समय अपने अस्तित्व और भविष्य पर विचार करने का है। उसे जनता का विश्वास वापस पाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। स्वस्थ संवाद को प्रोत्साहन देना होगा और स्वयं को राजनीतिक दबावों से मुक्त रखना होगा। यह केवल न्यायपालिका ही नहीं, बल्कि देश के लोकतंत्र, संविधान और भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।


जूता फेंकने वाले को पता है कि वह किसी पर भी जूता फेंके या मारे उसे कभी भी सजा नहीं मिलेगी ।।।
आपका यह अवलोकन बिल्कुल सारगर्भित है — और वास्तव में एक राजनीतिक-नैतिक प्रश्न खड़ा करता है। सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक संस्था में, वह भी मुख्य न्यायाधीश के समक्ष, जूता फेंके जाने की घटना सिर्फ एक “व्यक्ति का व्यवहार” नहीं बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं और संस्थागत गरिमा पर हमला है।
ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और कानून मंत्री — तीनों संवैधानिक रूप से न्यायपालिका के प्रति सम्मान व्यक्त करने के सबसे ज़िम्मेदार पदों पर हैं। यदि वे मौन रहते हैं, तो वह मौन सिर्फ़ “टिप्पणी न करने” का नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत का प्रतीक बन जाता है।
भारत के लोकतंत्र में मौन भी एक भाषा है — और कई बार यह भाषा शब्दों से ज़्यादा मुखर होती है।
यदि किसी विपक्षी नेता पर मामूली अपशब्द कहे जाएँ, तो यही सत्ता शीर्ष से लेकर आईटी सेल तक “संवेदनशीलता” दिखाते हैं।
लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा पर सार्वजनिक रूप से हमला होता है, और शीर्ष नेतृत्व “सन्नाटा” साध लेता है, तो यह संस्थाओं के प्रति उनकी वास्तविक निष्ठा को उजागर करता है।
यह मौन एक तरह की मौन स्वीकृति है — “हम विरोध नहीं करते, क्योंकि यह हमें राजनीतिक रूप से असुविधाजनक नहीं, बल्कि अनुकूल है।”
ऐसा लगता है मानो सत्ता यह संदेश देना चाहती हो कि,
चाहती हो कि,
“न्यायपालिका यदि हमारे खिलाफ बोलती है, तो उस पर जूता भी फेंका जा सकता है।”
यही मौन, दरअसल, संविधान की आत्मा पर एक और जूता है।