बिहार के चुनावी परिदृश्य पर एक विश्लेषण: मतदाता सूची में परिवर्तन और संस्थागत निष्पक्षता पर सवाल
बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही, राज्य की राजनीति में एक नया और गंभीर विवाद उभरा है: मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर होने वाले परिवर्तन। यह विवाद मुख्यतः दो बिंदुओं पर केंद्रित है: पहला, लगभग 69 लाख मतदाताओं का सूची से हटाया जाना, और दूसरा, नए मतदाताओं के विवादास्पद तरीके से जोड़े जाने का आरोप। इन आरोपों के मद्देनजर, चुनाव की निष्पक्षता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गहरे सवाल उठ रहे हैं।
मतदाता सूची से हटाए गए 69 लाख मतदाता: एक लक्षित प्रक्रिया का आरोप
आलोचकों का मानना है कि मतदाता सूची से हटाए गए ये 69 लाख मतदाता विशिष्ट सामाजिक समूहों—जैसे मुस्लिम, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और यादव—से संबंध रखते हैं। यह वह वोट बैंक है जिसे सत्तारूढ़ दल के लिए प्रतिकूल माना जाता है। एक साधारण गणना से पता चलता है कि यह संख्या बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर औसतन लगभग 28,000 मतदाताओं के बराबर है। चूंकि अधिकांश विधानसभा सीटों पर जीत-हार का अंतर 20,000 मतदाताओं से भी कम होता है, ऐसे में इस तरह का बड़ा बदलाव चुनाव के परिणाम को सैद्धांतिक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखता है। आरोप है कि यह एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है, जिसके तहत विपक्ष को वोट देने वाले मतदाताओं को सूची से बाहर कर बहुमत सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है।
नए ‘फर्जी’ मतदाता: चुनावी युक्ति का दूसरा पहलू
दूसरी ओर, आरोप यह भी लगाया जा रहा है कि चुनाव आयोग द्वारा लगभग 30 लाख नए मतदाता जोड़े गए हैं, जिन्हें ‘फर्जी’ करार दिया जा रहा है। आलोचकों का कहना है कि ये मतदाता दूसरे राज्यों से लाए गए हैं या फर्जी तरीके से बनाए गए हैं, और इन्हें ट्रैक कर पाना मुश्किल है। प्रति सीट करीब 12,000 के इस आंकड़े को, अगर हटाए गए मतदाताओं के साथ जोड़ा जाए, तो प्रति सीट कुल परिवर्तन का आंकड़ा 40,000 तक पहुंच जाता है। इससे एक ऐसा चुनावी माहौल बनने की आशंका जताई जा रही है, जहां वास्तविक जनादेश की अभिव्यक्ति बाधित हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट में लंबित SIR मामला और न्यायपालिका पर संदेह
यह पूरा मामला ‘स्पेशल समरी रिविजन’ (SIR) प्रक्रिया से जुड़ा है, जो फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। आरोप है कि चुनाव की घोषणा के पहले ही इस मामले में फैसला न आना, एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। इस देरी पर सवाल उठाते हुए, आलोचकों ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी चिंता जताई है, और विशेष रूप से जस्टिस सूर्यकांत पर तटस्थता संबंधी आपत्तियां दर्ज की हैं। आशंका जताई जा रही है कि चुनाव के बाद आने वाला कोई भी फैसला अब प्रासंगिक नहीं रह जाएगा, और इसे ‘नॉनसेंस’ करार दिया जा रहा है।
चुनाव आयोग पर अंगुली: संस्थागत स्वायत्तता का संकट?
सबसे गंभीर आरोप चुनाव आयोग की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर लगाया जा रहा है। आलोचकों का मानना है कि केंद्र सरकार द्वारा पारित नए कानूनी प्रावधानों ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पक्षपातपूर्ण बना दिया है। इन्हें ‘अनैतिक और असंवैधानिक’ बताया जा रहा है। आरोप है कि इन नियमों के जरिए सरकार ने चुनाव आयोग को ‘सुरक्षित’ कर लिया है, जिससे अब आयोग की तटस्थ कार्यवाही पर भी संदेह के बादल मंडरा रहे हैं। इससे भारत के लोकतंत्र की एक मजबूत स्तंभ संस्था की विश्वसनीयता संकट में पड़ती दिख रही है।
निष्कर्ष: लोकतंत्र की मूलभूत चुनौती
बिहार के मतदाता सूची विवाद का सीधा संबंध लोकतंत्र की मूल आत्मा—’एक व्यक्ति, एक वोट’ के सिद्धांत—से है। अगर यह आरोप सही साबित होते हैं, तो यह केवल एक राज्य के चुनाव का मामला नहीं रह जाता, बल्कि यह देश की पूरी चुनावी प्रणाली की विश्वसनीयता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा देगा। एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र की बुनियाद है। इस बुनियाद को किसी भी प्रकार की रणनीतिक युक्तियों से कमजोर करने का प्रयास, देश के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है। अंततः, जनता का विश्वास ही किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी पूंजी होती है, और इस विश्वास को बनाए रखना सभी संस्थाओं और राजनीतिक दलों की सामूहिक जिम्मेदारी है।

